'मुझसे प्यार करो या नफ़रत, दोनों ही मेरे पक्ष में हैं। क्योंकि यदि तुम मुझसे प्रेम करोगे तो मैं सदैव तुम्हारे हृदय में रहूँगा; अगर तुम मुझसे नफ़रत करते हो तो मैं हमेशा तुम्हारे दिमाग में रहूँगा।'
विलियम शेक्सपियर की यह उक्ति पाकिस्तानी के पूर्व प्रधानमंत्री और मशहूर क्रिकेटर इमरान ख़ान पर सटीक बैठती है। अनगिनत क़ानूनी मामलों में फँसे इमरान ख़ान को दो दिनों में पाकिस्तान की दो अदालतों ने अलग-अलग मामलों में दस और चौदह सालों की क़ैद की सज़ा सुनाई है। इससे पहले पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने उनके राजनीतिक दल - पीटीआई - की मान्यता छीन ली थी और उनके दल के चुनाव चिन्ह पर भी रोक लगा दी थी।
इन अदालती फ़ैसलों के कारण इमरान ख़ान किसी भी तरह के पद पर नियुक्ति से भी वंचित कर दिए गए हैं। इन दोनों सज़ाओं का प्रभाव सबसे पहले 8 फरवरी को होने वाले आम चुनाव पर पड़ेगा।
पाकिस्तानी सेना इमरान ख़ान के लगातार बढ़ती हुई राजनीतिक लोकप्रियता से घबराई हुई है और उन्हें बेईमान घोषित करके जनता के सामने उनकी छवि को ख़राब करने का जीतोड़ प्रयास कर रही है। यूँ तो पाकिस्तान के सभी शीर्ष राजनेताओं को कभी-न-कभी जेल में रहना पड़ा है पर इमरान के मामले में एक अलग तरह की अदालती जंग होती दिखाई पड़ती है। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान का न्याय तंत्र दो भागों में बँट गया है। निचली अदालतें लगातार इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ आदेश दे रही हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जाकर वे फ़ैसले उलट जाते हैं। निचली और ऊपरी अदालतों के रुख़ में इस अंतर के कारण सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायधीश जस्टिस बंदियाल (जो सितंबर 23 में रिटायर हुए) पर इमरान के प्रति नरम होने का भी इल्ज़ाम लग चुका है।
भारत की ही तरह वहाँ भी क़ानूनी प्रक्रिया इतनी लंबी है कि निचली अदालत से सुप्रीम कोर्ट में जाने में काफ़ी समय लग जाता है। एक ख़ूबसूरत व्यक्तित्व वाले इमरान ख़ान को अपनी कप्तानी में पाकिस्तान को 1992 का वर्ल्ड कप जिताने, एक ब्रिटिश महिला से शादी करने और अब तीसरी शादी बीबी बुशरा के लिए भी जाना जाता है। 1996 में उन्होंने 'तहरीक-ए-इंसाफ़' पार्टी बनाकर राजनीति के खेल में भी अपनी पारी शुरू की मगर अपने पहले चुनाव में उनको मुँह की खानी पड़ी। इमरान ने जनरल मुशर्रफ़ के सैन्य शासन का भी समर्थन किया।
2013 में ख़ैबर पख़्तुनख्वा और पंजाब के राज्यस्तरीय चुनाव में जीत के बाद इमरान को राजनीतिक पहचान मिलनी शुरू हुई। 30 सालों से शासन कर रहे राजनीतिक दलों की लूट से छुटकारा दिलाने, 'नया बनेगा पाकिस्तान' के नारे और बीबी बुशरा के चलते कट्टर इस्लामी सोच ने उनकी लोकप्रियता को बढ़ावा दिया।
2018 के चुनाव में आर्मी के सहयोग से सबसे बडे़ दल के नेता होने के कारण इमरान ख़ान प्रधानमंत्री भी बने।
सेना से तनाव कब और क्यों शुरू हुआ?
18 अगस्त 2018 को इमरान ख़ान ने 22वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी लेकिन वे अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सके और 1332 दिनों के बाद 10 अप्रैल 2022 को कुर्सी छोड़नी पड़ गई। इसका मुख्य कारण पाकिस्तानी सेना के आंतरिक मामलों में दख़ल देना था जब अक्टूबर 2018 में उन्होंने तत्कालीन DG-ISI और भावी सेनाध्यक्ष पद के प्रमुख दावेदार आसिम मुनीर को उनके पद से हटाने की कोशिशें शुरू कर दीं। इमरान ने उनकी जगह लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हामिद को रखवाया और वे उन्हीं को अगला सेनाध्यक्ष बनाना चाहते थे।
इमरान को लगता था कि वे सैन्य प्रतिष्ठान के साथ अपने मधुर संबंधों के बल पर अपनी बात मनवा सकते हैं। लेकिन वे शायद DG - ISI के बद पर बैठे मुनीर की ताक़त को आँकने में ग़लती कर बैठे। जल्दी ही एक ऑडियो क्लिप सामने आया जिसमें इमरान की पत्नी बुशरा बीबी के भ्रष्टाचार का मामला उजागर हुआ। इमरान के सत्ता से बेदख़ल होने के बाद नवंबर 2022 में आसिम मुनीर ही अगले सेनाध्यक्ष बने।
अमेरिका चाहता था इमरान को हटाना?
पकिस्तानी सेना के साथ बिगड़ते रिश्तों के बीच इमरान ने रूस से निकटता बढ़ाने की कोशिश की। 23 फ़रवरी 2022 को जिस दिन रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, उस दिन वे रूस में ही थे। उन्होंने इसे अपने जीवन की बहुत बड़ी घटना बताया। बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ में भी उन्होंने किसी एक पक्ष का साथ देने के बजाय निरपेक्ष रहने की वकालत की।
इसके कुछ ही दिन बाद इमरान सरकार के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पेश किया गया और 10 अप्रैल 2022 को उनको सत्ता से बेदख़ल होना पड़ा। बाद में इमरान ने आरोप लगाया कि अमेरिका उनको सत्ता से बेदख़ल करना चाहता था और वे इसी षड्यंत्र के शिकार हुए हैं। इसी सिलसिले में उन्होंने अपनी सभाओं में एक जूनियर अमेरिकी राजनयिक का टेलीग्राम भी दिखाया जिसमें कहा गया था कि यदि इमरान सत्ता से हट जाएँ तो अमेरिका के पाकिस्तान से रिश्ते बेहतर हो सकते हैं।
किसी सरकारी दस्तावेज़ को सार्वजनिक करना क़ानूनन ग़लत था। इसी मामले में उन्हें 30 जनवरी को दस साल की सजा हुई है।
सत्ता से हटने के बाद इमरान और सेना के बीच टकराव का नया दौर शुरू होता है। उन्होंने अपनी सभाओं में पाकिस्तान आर्मी की अक्षमताओं का, विशेषकर भारत के ख़िलाफ़ कोई भी जंग नहीं जीतने जैसी बातों का ज़िक्र कर लोगों के मन में आर्मी के प्रति आक्रोश जगाने की कोशिश की। इसका असर हमें 9 मई 2023 को इमरान की गिरफ़्तारी के बाद हुए उग्र प्रदर्शनों में दिखता है जब लाहौर में कोर कमांडर के घर में घुसकर आगजनी की गई और अन्य प्रांतों में भी भारी हिंसा हुई। इससे पाकिस्तानी आर्मी की छवि को तो ठेस लगी ही, साथ ही उनके शीर्ष कमांडरों में एक फाड़ भी सार्वजनिक तौर पर दिखाई पड़ी। पता चला कि मौजूदा और पूर्व सैनिकों का एक हिस्सा इमरान के साथ खड़ा है। पाकिस्तानी सेना इस सदमे से अभी तक उबर नहीं पाई है।
चुनाव में क्या होगा?
अभी तक के सारे सर्वे इमरान की लोकप्रयिता में लगातार वृद्धि दिखा रहे हैं। उनकी पार्टी की मान्यता समाप्त होने पर 'तहरीक-ए-इंसाफ़' के समर्थक निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में नामांकन दाख़िल कर चुके हैं और उनमें कई के जीतने की भी संभावना है। इसके उलट नवाज़ शरीफ की पार्टी को सिर्फ पंजाब में, बिलावल भुट्टो को सिंध और बलूचिस्तान के कुछ इलाक़ों में और मौलाना फज़लुर रहमान को ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में जीत मिलने की संभावना दिख रही है। शरीफ और भुट्टो एक-दूसरे के ख़िलाफ़ अपना ज़ोर लगा रहे हैं। इस बार उनके घोषणा पत्र भी अलग हैं। शरीफ ने भारत के साथ अपने रिश्ते अच्छे करने की बात कही है तो भुट्टो ने कई कल्याणकारी योजनाएँ लागू करने का वादा किया है जो आईएमएफ़ की शर्तों के ख़िलाफ़ है।
इस चुनाव में किसी भी पार्टी को अपने दम पर बहुमत मिलने की संभावना कम दिखाई दे रही है। पाकिस्तान आर्मी की चिंता एक ऐसी सरकार बनवाने की है जो उसके हितों की रक्षा कर सके। इमरान ख़ान की लोकप्रियता और सेना के प्रति उनकी कटुता इस रास्ते में आड़े हाथ आ रही है। यही कारण है कि अदालती कार्रवाइयों के माध्यम से एक संदेश भेजा जा रहा है कि इमरान ख़ान का राजनीतिक सफ़र अब ख़त्म है और उनकी बाक़ी ज़िंदगी जेल में ही कटेगी। हद तो तब हो गई जब सेना प्रमुख जनरल मुनीर ने सारे प्रोटोकॉल तोड़कर 24 जनवरी को एक सभा की और देश के युवाओं को इशारा भी किया कि वे चुनाव में अपना मतदान सोच-समझकर करें।
यानी पाकिस्तान के सेना प्रमुख इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ सीधे-सीधे चुनावी मैदान में उतर चुके हैं। यदि भुट्टो और शरीफ़ की पार्टियों को बहुमत मिल गया, तब तो उनकी ही सरकार बननी है। मगर यदि इमरान के समर्थकों को अच्छी बढ़त मिली तो उनको सरकार में आने से रोकने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज एक बार फिर देश का शासन अपने हाथ में ले सकती है।