कोरोना: जर्मनी ने जो किया वह भारत क्यों नहीं कर रहा है?

10:35 am Apr 06, 2020 | अमित कुमार सिंह - सत्य हिन्दी

यदि कहें कि कोरोना वायरस से लड़ने में भारत को जर्मनी से सीख लेनी चाहिए तो पहली नज़र में शायद आप चौंक जाएँ। ऐसा इसलिए कि जर्मनी में कोरोना पॉजिटिव 97 हज़ार से ज़्यादा हैं और भारत में सिर्फ़ साढ़े तीन हज़ार। ऐसे में हमें क्या जर्मनी से सीखने की ज़रूरत है दरअसल, हमें ही नहीं, पूरी दुनिया को सीखने की ज़रूरत है। दुनिया का सबसे ताक़तवर देश अमेरिका जर्मनी से लोगों की जानें बचाने के नुस्खे पूछ रहा है। जर्मनी में पॉजिटिव केस ज़्यादा हैं तो क्या लेकिन वहाँ मृत्यु दर काफ़ी कम है। दक्षिण कोरिया, चीन, फ़्रांस, अमेरिका, इटली इन सभी देशों से कम। यानी जर्मनी अपने मरीजों की ज़िंदगियाँ काफ़ी अच्छी तरह बचा रहा है जबकि दूसरे देश उस तरह से नहीं। 

जर्मनी में आए 97 हज़ार पॉजिटिव लोगों में से क़रीब 1400 लोगों की मौत हुई है यानी मृत्यु दर क़रीब 1.5 फ़ीसदी है। इसका मतलब है कि हर 100 मरीजों में से डेढ़ व्यक्ति की मौत हो रही है। जबकि इटली में 12 फ़ीसदी, स्पेन में 9.4, अमेरिका में 3.2, चीन में 4, भारत में 2.3 और दक्षिण कोरिया में 1.7 फ़ीसदी रहा है। इस तरह से देखें तो जर्मनी में मौत दर सबसे कम है। अब यही कारण है कि अमेरिका जर्मनी से नसीहत माँग रहा है कि उसने ऐसा कैसे कर दिखाया। अमेरिका पूछ रहा है कि उसने अलग क्या किया। 

जर्मनी के विशेषज्ञों के अनुसार इसमें जो सबसे अहम बातें हैं वे ये हैं कि देश में जब पहली बार पॉजिटिव केस आया तो हॉस्पिटलों में तैयारी शुरू कर दी गई थी। जाँच पर ज़्यादा ज़ोर रहा। जो पूरी तरह स्वस्थ हैं उनकी भी जाँच शुरू की। दक्षिण कोरिया से सीखा। और ऐसे ही कई अन्य क़दम उठाए। जर्मनी के विशेषज्ञों ने विश्लेषण कर कई कारण बताए हैं-

जाँच की सुविधा

मृत्यु दर कम होने का सबसे बड़े कारणों में से एक है- बड़े पैमाने पर जाँच और इलाज की सुविधा।

जनवरी के मध्य में जब कोरोना को लोग गंभीरता से नहीं ले रहे थे तभी से हॉस्पिटलों को तैयार किया जा रहा था। बर्लिन के चैरिटी हॉस्पिटल ने टेस्ट किट विकसित किया था और उस फ़ॉर्मूले को ऑनलाइन डाल दिया था। फ़रवरी में जब कोरोना का पहला मामला आया तब तक पूरे देश भर के हॉस्पिटलों में जाँच किट काफ़ी ज़्यादा संख्या में उपलब्ध हो गए थे। चैरिटी हॉस्पिटल के प्रमुख वायरोलॉजिस्ट डॉ. क्रस्टियन ड्रोस्टन कहते हैं कि कम मौत होने का कारण यह है कि हम बड़ी संख्या में लैब डाग्नॉस्टिक कर रहे हैं। अमेरिका और भारत जैसे कई देशों में उन्हीं की जाँच की जा रही है जिनमें कोरोना के लक्षण दिखाई देते हैं। 

अब जर्मनी में हर हफ़्ते क़रीब साढ़े तीन लाख जाँच हो रही हैं। यह सभी लोगों के लिये पूरी तरह मुफ़्त है। यह यूरोप के किसी भी देश से ज़्यादा है।

जर्मनी के हेडलबर्ग शहर में टैक्सी जाँच की सुविधा है। वहाँ लोग इसे कोरोना टैक्सी बुलाते हैं। इसमें मेडिकल स्टाफ़ होते हैं और गली-गली जाकर लोगों की जाँच करते हैं। मरीजों की देखभाल करते हैं और स्थिति ख़राब होने से पहले हॉस्पिटल में भर्ती कर देते हैं। 

आईसीयू और वेंटिलेटर

जर्मनी में काफ़ी ज़्यादा संख्या में आसीयू और वेंटिलेटर हैं। हेडलबर्ग के यूनिर्वसिटी हॉस्पिटल के प्रमुख वायरोलॉजिस्ट हैंस गियोर्ग क्रासलिश कहते हैं कि मरीज की हालत बिगड़ने से पहले ही वेंटिलेटर पर रखने से ख़तरा काफ़ी कम हो जाता है और इलाज से ठीक होने की उम्मीद काफ़ी ज़्यादा होती है। वेंटिलेटर में देरी होने पर जान जाने का ज़्यादा ख़तरा होता है। इटली में यही हुआ और इसलिए वहाँ जानें ज़्यादा गईं। जर्मनी में जब गिने-चुने मामले आ रहे थे तभी गिएसन के यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में वेंटिलेटरों के साथ 173 आईसीयू बेड तैयार कर लिए गए थे। इसके बाद कई और आईसीयू बेड बढ़ाए गए और स्टाफ़ भी क़रीब 50 फ़ीसदी बढ़ाए गए। जनवरी में 28000 बेड तैयार कर लिए गए थे जो कि जर्मनी में एक लाख की जनसंख्या पर 34 बेड होते हैं। इटली में यह 12 और निदरलैंड्स में 7 है। जर्मनी में फ़िलहाल 40 हज़ार आईसीयू बेड हैं। ये इतने ज़्यादा हैं कि इटली और फ़्रांस के मरीजों का भी जर्मनी में इलाज किया जा रहा है। 

दक्षिण कोरिया से सीख

कोरोना को रोकने के लिए कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग यानी वायरस से संक्रमित लोगों के संपर्क में आने वाले लोगों की कड़ी का पता लगाना काफ़ी महत्पूर्ण है। दक्षिण कोरिया ने इसकी बेहतरीन मिसाल पेश की थी। इसके लिए उसने मोबाइल जीपीएस सिस्टम से संक्रमित लोगों और उनके संपर्क में आए लोगों का पता लगाना शुरू किया था। जर्मनी ने दक्षिण कोरिया की इस तकनीक का इस्तेमाल किया। हालाँकि शुरुआत में इसने देरी कर दी थी इसलिए तब तक यह वायरस काफ़ी ज़्यादा लोगों में फैल चुका था। 

कम उम्र वालों में संक्रमण

जर्मनी में शुरुआत में उन युवाओं में कोरोना वायरस का संक्रण हुआ जो ऑस्ट्रिया और इटली में स्कि रिसॉर्ट में घूमने गए थे। जब वे लौटे और देश के अलग-अलग हिस्सों में गए तो अपेक्षाकृत ज़्यादा उनकी उम्र के लोगों में यह वायरस फैला। जर्मनी में कोरोना से संक्रमित लोगों की औसत उम्र 49 वर्ष है। फ़्रांस और इटली में यह 62 से ज़्यादा है। बता दें कि उम्रदराज लोगों के लिए यह वायरस ज़्यादा घातक साबित हो रहा है।

कई विशेषज्ञ स्वास्थ्य व्यवस्था की तैयारियों के अलावा जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल के नेतृत्व की भी दाद देते हैं और कहते हैं कि उनके प्रयास भी मृत्यु दर कम रहने देने में काफ़ी अहम हैं। मर्केल लगातार कोरोना के मामले में साफ़गोई से बिना लाग-लपेट के बोलती रही हैं और पूरे संकट पर लगातार नज़र बनाए रखी हैं। प्रोफ़ेसर क्रॉसलिश कहते हैं कि जर्मनी की सबसे बड़ी ताक़त संभवत: उच्च स्तर पर निर्णय लेने की क्षमता और सरकार पर लोगों का भरोसा है।