ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन से ज़्यादा ख़ुश आज कौन होगा? उन्होंने ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से बाहर लाने में सफलता जो अर्जित कर ली है। इसी मुद्दे पर ब्रिटेन के दो प्रधानमंत्रियों, डेविड केमरन और थेरेसा मे के इस्तीफ़े हो चुके हैं। 2016 में जब यूरोपीय संघ से अलग होने के मुद्दे पर ब्रिटेन में जनमत संग्रह हुआ था तो सिर्फ़ 52 प्रतिशत लोगों ने उसके पक्ष में वोट दिया था। ख़ुद जॉनसन पसोपेश में थे कि यूरोपीय संघ से इस मुद्दे पर कोई समझौता हो पाएगा या नहीं?
पिछले 10 माह से चली रही वार्ता से दोनों पक्ष संतुष्ट दिखाई पड़ रहे हैं और ब्रिटिश संसद अपने छुट्टी के दिनों में भी इस समझौते पर मुहर लगाने के लिए अब लंदन में जुटेगी। 31 जनवरी को ब्रिटेन अब 47 साल बाद इस यूरोपीय संघ से अलग हो जाएगा।
28 देशों का यह संगठन दुनिया का सबसे मालदार और शक्तिशाली साझा बाज़ार माना जाता रहा है। आयरलैंड के अलावा सभी देशों ने इस समझौते पर संतोष जाहिर किया है लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री का कहना है कि इस समझौते के कारण अब उन्होंने ब्रिटेन को उसकी संप्रभुता वापस लौटा दी है। अब यूरोपीय देशों के साथ व्यापार में कोई तटकर या बंधन आदि नहीं रहेगा लेकिन ब्रिटेन के व्यापारियों को अब छोटी-मोटी कई औपचारिकताओं से जूझना पड़ेगा। अब उन्हें मुक्त-व्यापार की सुविधा नहीं मिलेगी। अब तक वे बड़े यूरोपीय बाज़ार के अभिन्न अंग थे।
ब्रिटेन को यह लाभ भी मिलेगा कि अब वहाँ यूरोपीय लोग ब्रिटिश नौकरियों और रोज़गार पर पहले की तरह हाथ साफ़ नहीं कर सकेंगे। यूरोपीय देशों का सस्ती मज़दूरी पर बना माल ब्रिटिश उद्योगों को ठप्प करता चला जा रहा था। अब ब्रिटेन के उद्योगपति और व्यापारी भी राहत की साँस ले रहे हैं।
यूरोपीय संघ के मछुआरे विशाल ब्रिटिश समुद्र में से निर्बाध मछली पकड़ते थे लेकिन अब वे उसके तीन-चौथाई के पानी में ही पकड़ सकेंगे, वह भी सिर्फ़ साढ़े पाँच साल तक। उसके बाद हर वर्ष के लिए उन्हें कोई समझौता करना पड़ेगा। अन्य देशों में बने माल को अब ब्रिटेन यूरोप में आसानी से नहीं खपा सकेगा। इस स्थिति से भारत चाहे तो काफ़ी लाभ उठा सकता है। लेकिन ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से निकल जाना दुनिया में साझा बाज़ारों की राजनीति पर उल्टा असर भी डालेगा।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drva]ridik.in से साभार)