सामाजिक न्याय का अजेंडा अब 'अछूत' बन गया है

07:22 am Dec 03, 2018 | प्रो. विवेक कुमार - सत्य हिन्दी

क्या 2019 के लोकसभा चुनाव में सामाजिक न्याय राजनीतिक अजेंडा बन पाएगा सत्ताधारी दल और एनडीए के अन्य घटक दल सभी इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस भी सामाजिक न्याय के मुद्दे को राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करने में विफल होती दिख रही है। यह तब कि हमारे संविधान की प्रस्तावना में हमने सभी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय देने का संकल्प लिया था। इसके साथ ही साथ हमने अपने संविधान में अनुसूचित जाति व जनजाति, अल्पसंख्यक, महिलाओं व अन्य पिछड़ी जातियों को भारतीय संविधान के अनेक अनुच्छेदों के अन्तर्गत अनेक विशेषाधिकार देकर उन्हे सामाजिक न्याय देना सुनिश्चित किया। इस संदर्भ मे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 164, 28, 29, 30, 46, 330, 332, 335, 340 उल्लेखनीय हैं। 

हाल के दिनों में बीएसपी ने राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के चुनावों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने की कोशिश की है पर राष्ट्रीय राजनीति में उसकी मौजूदगी काफ़ी कमज़ोर है। लिहाज़ा राष्ट्रीय स्तर पर वह भी फ़िलहाल सामाजिक न्याय के अजेंडे को स्थापित नहीं कर पाई है। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जैसे-जैसे लोकसभा  चुनाव समीप आ रहे हैं, वैसे-वैसे सामाजिक न्याय का अजेंडा पीछे छूटता जा रहा है। सत्तारूढ़ दल हो या कांग्रेस या फिर राज्यों में सत्ता में बैठे प्रांतीय राजनैतिक दल, सभी सामाजिक न्याय के अजेंडे को भूल गए लगता है। सामाजिक न्याय के मसले पर कहीं कोई बहस नहीं हो रही है।

कांग्रेस की कोशिशों में कंजूसी

यह सच है कि 1970 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जवाहरलाल नेहरू के कम्यूनिटी डिवलेपमेंट कार्यक्रम को 20 सूत्री ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम में बदल कर सामाजिक न्याय के अजेंडे को आगे बढ़ाया था। तब से लेकर 1989 तक अनुसूचित जाति एवं जनजाति अपराध अधिनियमों को पारित कर सामाजिक न्याय को धार देने की भी कोशिश कांग्रेस ने की।लेकिन यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि कांग्रेस ने पिछड़ों को सामाजिक न्याय देने में हमेशा कंजूसी की। संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन कर पिछड़ी जातियों की पहचान करने का काम कांग्रेस ने नहीं किया। इस मसले पर काका साहेब कालेलकर के बाद जब बी. पी. मंडल की अध्यक्षता में मंडल कमिशन ने 1981 में अपनी रिपोर्ट जमा की, तब भी उस रिपोर्ट पर कार्रवाई नहीं की गई। मंडल कमिशन ने जिन 3743 जातियों की पहचान की थी, उन्हें 1990 तक सामाजिक न्याय मिलने का इंतज़ार करना पड़ा। 

हक़ मिला लेकिन आधा-अधूरा

वी. पी. सिंह ने अपने प्रधानमंत्री काल में मंडल कमिशन की सिफ़ारिश को लागू कर सामाजिक न्याय के अजेंडे को आगे बढ़ाया। फिर भी अन्य पिछड़ी जातियों को उनका पूरा हक़ नहीं मिल पाया। कई कारण थे। एक, तो उनकी जनसंख्या के आधे को ही मंडल कमिशन के हिसाब से आरक्षण मिला। दूसरा, बैठे-बिठाए उनको क्रीमी लेयर का दंश भी झेलना पड़ा। कल्पना कीजिए, अगर अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण 1950 में लागू हुआ होता तो क्या तब भी क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू होती!

यूपीए सरकार की बड़ी भूमिका

यूपीए सरकार में कांग्रेस ने सामाजिक अजेंडे को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। अनेक अन्सूचित जाति के लोगों को उसने राजनैतिक पदों पर बिठाया। के. आर. नारायणन को राष्ट्रपति के पद पर नामित किया गया। फिर एकसाथ अनुसूचित जाति के कई लोगों को गवर्नर के पद पर बिठाया। यूपीए-2 में मीरा कुमार को स्पीकर, मल्लिकार्जुन खड़गे को रेल मंत्री, सुशील कुमार शिंदे को गृह मंत्री, कुमारी शैलजा को पहले सांस्कृतिक मंत्री और बाद में मुकुल वासनिक की जगह सामाजिक न्याय मंत्री भी बनाया। इतना ही नहीं, योजना आयोग में कांग्रेस ने एक दलित को मेंबर भी बनाया और अनुसूचित जाति के एक सदस्य को यूजीसी का चेयरमैन भी नियुक्त किया। हालाँकि विशेषज्ञों का एक वर्ग यह आरोप भी लगाता है कि कांग्रेस ने ऐसा बीएसपी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए किया परंतु वर्तमान राजनीति में भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार में सामाजिक न्याय का अजेंडा विकास के नारे में कही गुम हो गया है। अनेकों योजनाएँ चलाई जा रही हैं परंतु उनमें अनुसूचित जाति के लिए कोई प्रावधान नहीं है। 

यह स्थापित सत्य है कि श्रेणीबद्ध समाज में सभी निर्धन एक समान नही होते। ग्रामीण अंचल में मूलभूत सरकारी सुविधाएँ अनुसूचित जाति की बस्ती तक पहुँचते पहुँचते ख़त्म हो जाती हैं। ऐसी परिस्थिति में विकास की योजनाओं में अनुसूचित जाति के सदस्यों के लिए विशेष प्रावधान न होना, उनके लिए किसी प्रकार का कोटा निर्धारित न किया जाना एवं किसी प्रकार की आर्थिक छूट न दिया जाना, सामाजिक न्याय के अजेंडे को निराश ही करता है।

अटकाओ और भटकाओ की रणनीति

दूसरी ओर अनुसूचित जाति के लोगों के लिए सामाजिक न्याय दिलवाने वाली नीतियों, नियमों एवं कार्यक्रमों को निष्क्रिय बनाना या उनको स्थगित करना या फिर उनमें क़ानूनी पेच डलवाना भी संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित सामाजिक न्याय के अजेंडे को निष्क्रिय करना नहीं तो क्या है चाहे वह एससी/एसटी (अपराध निवारण) अधिनियम 1989 को निष्क्रिय कर उसे क़ानून की पेचीदगी में फँसाना हो, या विश्वविद्यालयों को एक इकाई न मानकर विभागों को इकाई मानकर अनुसूचित जातियों के आरक्षण को निष्क्रिय बनाना हो या फिर प्रमोशन में आरक्षण की गुत्थी सुलझाने का नाटक हो, सभी स्तर पर वर्तमान केंद्र और राज्य सरकारें सामाजिक अजेंडे को हराती दिखाई पड़ती हैं। 

इसी कड़ी में वर्तमान समय में अनुसूचित जातियों पर होने वाले अपराधों की प्रकृति और उसके बाद सत्ता पक्ष द्वारा अपने कार्यकर्ताओं का बचाव भी सामाजिक न्याय के अजेंडे को पीछे धकेल देता है। गुजरात में उना हो या डांडिया करने के अपराध में दलित युवा का क़त्ल या फिर तलवार जैसी मूँछ रखने पर पिटाई आदि इसी कड़ी में आते हैं। आंध्र में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उनकी माँ का एक-सदस्यीय कमिटी द्वारा जाँच-पड़ताल कि वे दलित हैं या नहीं, उनकी अस्मिता का अपमान है। साथ ही वेमुला के मामले में अपराधियों का दंडित न किया जाना सामाजिक न्याय के अजेंडे की हार है।इसी कड़ी में भाजपा के यूपी के उपाध्यक्ष द्वारा बहुजन आंदोलन की नेता कु. मायावती के लिए अपशब्दों का प्रयोग और सांकेतिक निष्कासन और बाद निष्कासित उपाध्यक्ष की पत्नी को यूपी सरकार का कैबिनेट मंत्री बनाया जाना, अनुसूचित जाति के मनोबल को तोड़ता है। फिर 2 अप्रैल 2018 को अनुसूचित जाति/जनजाति ऐक्ट की कुछ धाराओं को शिथिल करने के विरोध में हुए ज़बरदस्त प्रदर्शन को हिंसात्मक करार देते हुए, अनुसूचित जाति के युवाओं को झूठे मामलों में फँसाकर जेल में डालना सामाजिक अजेंडे की सरासर अवहेलना है।

बीएसपी का सफल प्रयास

अगर भारत की राजनीति मे आकलन किया जाए तो हम पाएँगे कि कांग्रेस एवं बीजेपी के अलावा बहुजन समाज पार्टी तीसरे नंबर पर आती है। अर्थात भारतीय राजनीति में वह तीन राष्ट्रीय दलों में से एक है। हमने अभी तक दो राष्ट्रीय दल यानी कांग्रेस और बीजेपी का सामाजिक न्याय के प्रति उदासीन रवैया पढ़ा। इनके सापेक्ष अगर हम सामाजिक न्याय के आधार पर बीएसपी की नीतियों का आकलन करें तो हम पाएँगे कि बीएसपी ने दलितों, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों को राजनीतिक नेतृत्व एवं अपनी सरकारों मे सत्ता में भागीदार बना कर पूरे सामाजिक न्याय के अजेंडे को लागू करने का सफल प्रयास किया है। कोई कितनी भी आलोचना करे, पर यह सच्चाई है कि बीएसपी ने सभी वर्गों, समुदायों एवं जातियों को उनकी जनसंख्या को हिसाब से टिकट बाँट कर उनको लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ाया और अपनी सरकारों में उचित भागीदारी दी। चाहे पिछड़े समाज के मौर्य, कुशवाहा, सैनी, नाई, पाल, कुर्मी आदि हों या फिर दलित समाजों की अन्य जातियाँ ही क्यों न हो। इतना ही नहीं, बीएसपी ने अपनी सरकार के कार्यकाल में अनुसूचित जाति या जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, धार्मिक अल्पसंख्यक तथा विकलांग वर्गों के उत्थान के लिए पहली बार अलग-अलग राज्य स्तर पर कल्याण विभाग का गठन किया। इसी क्रम में अनुसूचित जाति-जनजाति के विकास हेतु प्रदेश सरकार के बजट में से 25% धन की अलग से व्यवस्था की। किसी भी राज्य एवं केंद्र सरकार ने ऐसी व्यवस्था आज तक नहीं की। 

महिलाओं के लिए विशेष प्रबंध किए गए। सावित्री बाई फूले बालिका शिक्षा मदद योजना के तहत ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाली बालिकाओं को कक्षा 11 में प्रवेश लेने पर 15 हज़ार रुपये और एक साइकिल मुफ़्त देने की व्यवस्था की गई। यहाँ पर यह बताना सही होगा कि जब बिहार के मुख्यमंत्री ने लड़कियों को स्कूल जाने के लिए साइकिल बाँटी तो मीडिया ने उसका ख़ूब प्रचार किया परंतु जब मायावती ने लड़कियों को साइकिल के साथ साथ 15 हज़ार रुपये भी दिए तो मीडिया ने इसका संज्ञान भी नहीं लिया। अनदेखी की गई। ऐसा क्यों होता है, यह सवाल है। कहीं ऐसा तो नहीं कि दलितों की समस्या और उनका दर्द वही समझ सकते है, बाक़ी सिर्फ़ टोकनिज़म करते हैं। ऐसे में सही मायनों में सामाजिक न्याय का अजेंडा कब लागू होगा। होगा भी या नहीं!