‘इंदिरा इज़ इंडिया एंड इंडिया इज़ इंदिरा’ पाँच साल पहले राजस्थान में वसुंधरा राजे के लिए उनके समर्थक भी इसी तरह का नारा दिया करते थे। राजस्थान में वसुंधरा राजे का ऐसा वर्चस्व था कि वसुंधरा ही बीजेपी और बीजेपी ही वसुंधरा थीं। तीन महीने पहले तक यही तसवीर थी, जब वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री थीं लेकिन अब तसवीर पूरी तरह उलट गई है।
टिकट बाँटने में राजे का कोई हाथ नहीं
आगामी लोकसभा चुनाव के लिए राजस्थान में टिकट तय होने हैं और बीजेपी के राजस्थान के चुनाव प्रभारी प्रकाश जावड़ेकर टिकट तय करने के लिए बैठकें कर रहे हैं। इस बीच बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने राजस्थान के दो नेताओं को दिल्ली बुलाकर फीडबैक लिया है। जिसमें विधानसभा में विपक्ष के नेता गुलाब चंद कटारिया और उप नेता राजेंद्र राठौड़ शामिल हैं। शाह इन नेताओं से वहाँ की स्थिति को परख कर यह सुनिश्चित करेंगे कि टिकट किसे देना है और किसे नहीं।वहीं, वसुंधरा राजे राजस्थान में लोकसभा चुनाव में न तो टिकट बाँटने की ड्राईविंग सीट पर नज़र आ रही हैं और न ही कैंपेन की रणनीति पर। वह बिल्कुल अलग-थलग हैं। यहीं नहीं टिकट चाहने वाले नेताओं की भीड़ भी अब राजे के सरकारी आवास पर अर्से से नहीं देखी गई है। टिकट चाहने वाले सीधे दिल्ली और अमित शाह के चक्कर काट रहे हैं।
बता दें कि वसुंधरा राजे लंबे अर्से के बाद बुधवार को जयपुर में कोर कमेटी की बैठक में बतौर सदस्य ही नज़र आईं। बैठक राजस्थान बीजेपी के प्रभारी प्रकाश जावड़ेकर की अगुवाई में हुई थी। इन सारे संकेतों से यही लग रहा है कि राजस्थान में पिछले 16 सालों में पहली बार चुनाव में टिकटों का फैसला वसुंधरा राजे नहीं करेंगी। बल्कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह करेंगे। यानी राजस्थान में लोकसभा चुनाव का टिकट किसे मिलेगा और किस मौजूदा सांसद का टिकट कटेगा यह फैसला वसुंधरा राजे नहीं अमित शाह करेंगे।
हाशिए पर वसुंधरा
लोकसभा चुनाव मे वसुंधरा को किनारे किया जा रहा है। इसका संकेत चुनाव की तारीख़ों के एलान होने से एक महीने पहले ही मिल गया था, जब राजे को तीनों राज्यों के चुनाव का प्रभारी बना दिया गया था। इसका साफ़ मतलब था कि बीजेपी के शीर्ष नेता लोकसभा चुनाव से राजे को राजस्थान से दूर रखना चाहते हैं।
राजे भले ही राजस्थान में किसी केंद्रीय भूमिका में न हों, लेकिन उनके लिए शर्मिंदगी तो यह है कि अमित शाह ने राजस्थान का फ़ीडबैक लेने के लिए भी वसुंधरा राजे को नहीं, बल्कि कटारिया और राठौड़ को बुलाया।
राजे को अब तक लोकसभा चुनाव में पूरी तरह से किनारे कर दिया गया है और यह तसवीर भी तब है जब मौजूदा सांसदों में अधिकतर सांसद राजे की पसंद के ही हैं। उनको टिकट राजे ने दिया था या कहें कि वे राजे के नज़दीकी थे। ऐसे में एक और सवाल जन्म लेता है कि तो क्या अब राजे के समर्थक सांसदों के टिकट भी कटेंगे? बता दें कि राजस्थान में 25 में से 23 सांसद बीजेपी के हैं और उनमें से 11 सांसदों तलवारे लटकी हुई हैं।
विकल्प ढूँढने की शुरुआत
वसुंधरा राजे को किनारे करने की शुरुआत दिसंबर 2018 में विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार के साथ ही हो गई थी। वसुंधरा राजे विपक्ष की नेता बनना चाहती थीं, लेकिन पार्टी ने राजस्थान में विपक्ष के नेता के चुनाव से एक दिन पहले ही उन्हें शिवराज सिंह और रमन सिंह के साथ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया।इसके अलावा पार्टी नेतृत्व ने पुराने भरोसेमंद और संघ की पसंद के गुलाब चंद कटारिया को विपक्ष का नेता और राजे की नापसंद राजेंद्र राठौड़ को उप नेता बना दिया था। हालाँकि विपक्ष के नेता के चुनाव को लेकर बैठक के दौरान कटारिया का नाम पहले से तय हो गया था, इसके बावजूद राजे के समर्थकों ने राजे का नाम विपक्ष के नेता के तौर पर पेश किया था और विधायकों से समर्थन भी करवा दिया था। इसके साथ ही राजे ने परोक्ष रुप से उस समय ही अपनी ताकत भी दिखा दी थी कि विधायक उनके साथ है, भले ही विपक्ष का नेता किसी और को ही क्यों न चुन लिया जाए।
ग़ौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वसुंधरा राजे के बीच रिश्ते कभी भी सहज नहीं रहे हैं। फिर 2018 की शुरुआत में दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर उप चुनाव में बीजेपी की हार के बाद ही मोदी और अमित शाह ने राजस्थान में राजे का विकल्प खड़़ा करने का मन बना लिया था। इस हार के बाद वसुंधरा राजे के नज़दीकी राजस्थान बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक परनामी का इस्तीफ़ा ले लिया गया।
शाह ने मजबूरी में दी मंजूरी
अमित शाह, मोदी मंत्रिमंडल में कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को राजस्थान बीजेपी की कमान सौंपना चाहते थे, शेखावत पीएम मोदी की भी पसंद थे। फिर राजे ने वीटो कर दिया और पार्टी में अपने वफ़ादार जाट नेताओं के ज़रिए विरोध करवाया कि इससे जाट समुदाय आने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी से दूर हो सकते हैं। ख़ुद राजे ने भी कह दिया कि वह राजपूत कोटे से मुख्यमंत्री हैं और दूसरा प्रदेश अध्यक्ष भी राजपूत नहीं हो सकता।राजे के विरोध के चलते मोदी-अमित शाह को राजस्थान में विधानसभा चुनाव से पहले राजे के विकल्प की तलाश की योजना को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा था। वहीं, एक न्यूट्रल और लो प्रोफ़ाइल नेता मदनलाल सैनी को अध्यक्ष बनाने पर समझौता करना पड़ा था। तब इसे राजे की जीत माना गया। तब से एक बार फिर यह धारणा मज़बूत हो गई थी कि राजस्थान में बीजेपी की चौधराहट तो राजे के पास ही रहेगी, पार्टी नेतृत्व चाहे या न चाहे।
अमित शाह को जयपुर आकर पार्टी की बैठक में ऐलान करना पड़ा कि विधानसभा चुनाव वसुंधरा राजे की अगुवाई मे ही लड़ा जाएगा और वही चुनाव जीतने पर अगली मुख्यमंत्री होंगी।
टिकटों के बँटवारे के लिए बनी कमेटी में अमित शाह ने गजेंद्र सिंह शेखावत समेत अपनी पसंद के नेताओं को शामिल तो करवा लिया था, लेकिन इसके बावजूद टिकटों का फ़ैसला वसुंधरा राजे ने ही किया था। फिर राजे की तैयार की सूचियों को चाहने या न चाहने के बावजूद बीजेपी संसदीय बोर्ड को मंज़ूरी देनी पड़ी थी जैसा पिछले 16 साल से पार्टी करती आई थी।
तब अमित शाह की मजबूरी थी क्योंकि 16 साल में वसुंधरा राजे ने राजस्थान में बीजेपी का डीएनए ही बदल डाला था। पंचायत से लेकर ज़िले में बीजेपी की कमान राजे के समर्थकों के पास ही थी। अब प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर कोई भी हो लेकिन उस वक़्त राजे के बग़ैर चुनाव लड़ना संभव ही नहीं था।
नतीजों के बाद शुरू हुआ खेल
पार्टी को इंतज़ार था तो सिर्फ नतीजों का, जिसके आधार पर राजे पर फ़ैसला किया जा सके। नतीजे आते ही राजे विरोधी टीम को मुख्यधारा में लाकर अहम ज़िम्मेदारियाँ सौंपने की शुरुआत हो गई थी। मदन लाल सैनी जिसे परनामी की जगह प्रदेश अध्यक्ष बनाया था, पार्टी हाईकमान के रबर स्टांप की भूमिका में आ चुके थे। यानी राजस्थान की पूरी लगाम शाह ने अपने हाथों में ले ली और फिर फ़ैसले भी पार्टी हाईकमान ही करने लगा। जिसके बाद वसुंधरा राजे अपने आप ही किनारे होती गईं।हालाँकि अभी भी ये इतना आसान नहीं है क्योंकि आज भी वसुंधरा राजे के कद का कोई नेता राजस्थान में विकल्प के रूप में बीजेपी के पास नहीं है। दूसरी वजह ये कि पार्टी के पूरे ढाँचे में गाँव देहात तक राजे की मौजूदगी है। पार्टी नेताओं की फौज में भी राजे का दबदबा है और अभी भी राजस्थान में राजे के विरोधियों में चुनौती देने का माद्दा नहीं है। इतना ही नहीं भले ही वे चुनाव हार गई हों लेकिन राजस्थान बीजेपी की सबसे बड़ी स्टार अभी भी वह ही हैं। क्या ऐसे में राजे को कैंपेन में पीछे करने का जोखिम बीजेपी ले पाएगी? वो भी तब जब राजस्थान में बीजेपी को काफ़ी उम्मीदें हैं।
क्यों वसुंधरा राजे से नाराज़ हैं मोदी
वसुंधरा राजे और मोदी के बीच रिश्ते ख़राब होने की शुरुआत राजे के पहले कार्यकाल में हुई थी। तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। दरअसल राजस्थान के जालौर जिले में पेयजल और सिंचाई के लिए गुजरात में नर्मदा नदी से एक नहर निकाली गई थी।
नहर का निर्माण पूरा होने के बाद राजे और मोदी के बीच इसका श्रेय लेने की होड़ मच गई थी। दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा का असर यह हुआ कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात की सीमा में नहर के लोकार्पण का समारोह किया तो वसुंधरा राजे ने राजस्थान की सीमा में।
एक ही पार्टी के नेता होने के बावजूद दोनों के बीच अजीब सी होड़ थी।
वसुंधरा मानती थीं ख़ुद को सीनियर
इस होड़ की एक वजह यह भी थी तब राजे ख़ुद को मोदी से सीनियर मानती थीं। इस घटना के बाद से ही राजे और मोदी के बीच रिश्तों में खटास शुरु हो गई थी। वहीं, 2013 में राजस्थान विधानसभा चुनाव में बीजेपी वसुंधरा राजे की अगुवाई में 200 में 163 विधानसभा जीती और राजे को मुख्यमंत्री बनाया गया। राजे इस बंपर जीत का श्रेय ख़ुद की करिश्माई छवि और अपनी सुराज संकल्प यात्रा को मान रही थीं। वहीं बीजेपी का एक धड़ा इस जीत का श्रेय नरेंद्र मोदी या कहें कि मोदी लहर को दे रहा था।राजे इस कश्मकश को छुपा भी नहीं पाईं। जिसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी ने देशभर में बंपर जीत दर्ज की, तब राजस्थान में बीजेपी ने 25 में से सभी 25 सीटें जीती थीं। वसुंधरा राजे इस जीत का श्रेय भी ख़ुद को दे रही थीं। यही नहीं वह यह दावा भी करती रहीं कि उन्होंने मोदी जी की झोली में 25 सीटें डाली हैं। इसके इतर मोदी समेत बीजेपी का एक बड़ा धड़ा इसे मोदी लहर का नतीजा बता रहा था।
एक साल तक दोनों ने नहीं की स्टेज़ शेयर
नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और मंत्रिमंडल बनाना शुरु कर दिया। इस दौरान राजे अपने बेटे दुष्यंत सिंह को मंत्री बनाना चाहती थीं लेकिन मोदी तैयार नहीं थे। राजे ने राजस्थान से संभावित मंत्रियों की लिस्ट सौंपी लेकिन मोदी ने राजे के दोनों ही प्रस्ताव पर विचार न करने फ़ैसला कर लिया था। फिर क्या, राजे नाराज़ होकर बीकानेर भवन में राजस्थान के सभी 25 सासंदों को लेकर चली गईं थी लेकिन तब मोदी की हवा इतनी तेज़ थी कि राजे को घुटने टेकने पड़े।जिसके बाद राजे की नाराज़गी की वजह उनके नापसंद के नेताओं को मोदी मंत्रिमंडल में जगह देने से रही। राजे चाहती थीं कि राजस्थान से मंत्री उनकी मर्ज़ी से ही लिए जाएँ, लेकिन मोदी इसके लिए तैयार नहीं थे। इस टकराव का नतीजा यह हुआ कि क़रीब एक साल तक मोदी और राजे ने स्टेज शेयर नहीं किया और अगर करना भी पड़ा तो नज़रें नहीं मिलाईं। यह खटास राजे के पूरे कार्यकाल तक चली।