पड़ोसी बांग्लादेश के एक फ़ैसले ने दुर्गापूजा के त्योहार से पहले पश्चिम बंगाल में आम लोगों के चेहरे खिल गए हैं। वह फ़ैसला है पद्मा नदीं की हिल्सा मछली के निर्यात पर लगी पाबंदी को अस्थायी रूप से हटाने का। अब 10 अक्टूबर से पहले बेनापोल-पेट्रापोल सीमा होकर रोज़ाना 1,450 टन हिल्सा मछली इस राज्य में आएगी।
याद दिला दें कि तीस्ता नदी के पानी के बँटवारे समेत कई मुद्दों पर मतभेद की वजह से बांग्लादेश ने जुलाई 2012 में इस मछली के निर्यात पर पाबंदी लगा दी थी।
कीमत गिरेगी
पश्चिम बंगाल में इस साल हिल्सा की पैदावर कम होने की वजह से बाज़ारों में इसकी कीमत 1,200 से 1.700 रुपए प्रति किलो तक पहुँच गई है। अब सीमा पार से इनके आने के बाद कीमतें गिर कर 800 से 1.200 रुपए किलो तक रहने की उम्मीद है। हिल्सा की कीमत उसके साइज से तय होती है। जितनी बड़ी मछली, उतनी ही ज़्यादा कीमत। कोलकाता के लोगों का कहना है कि कोरोना महामारी और लॉकडाउन के दौर में पहली बार कोई अच्छी ख़बर मिली है।
बंगाली समाज में इस मछली की कितनी अहमियत है, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि निर्यात पर पाबंदी की वजह से इसे सीमा पार से तस्करी के ज़रिए यहाँ ले आया जा रहा था।
मछली की तस्करी!
सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने बीते सप्ताह नदिया ज़िले से लगी सीमा पर दो सौ किलो हिल्सा जब्त की, जिसकी कीमत क़रीब ढाई लाख रुपए थी। बीते छह-सात महीने के दौरान तस्करी से आने वाली करीब तीन हजार किलो हिल्सा मछली जब्त की जा चुकी है। इससे यह पता लगता है कि बंगाल के लोगों में सीमा पार की इस मछली का कितना जबरदस्त क्रेज़ है।
तस्करी का जिक्र होने पर भारत से बांग्लादेश को होने वाली तस्करी की खबरें ही सामने आती हैं, वह चाहे पशु हों या फिर दूसरे सामान। लेकिन सीमा पार से तस्करी के ज़रिए बांग्लादेश से भारत आने वाली एक ही चीज है और वह हिल्सा मछली। इसे सीमा सुरक्षा बल के लोग उल्टी तस्करी यानी रिवर्ज़ स्मगलिंग कहते हैं। ,
हिल्सा अकेली ऐसी मछली है, जो पूरी कौम के सामाजिक ताने-बाने और संस्कृति में काफी गहरे रची-बसी है, भले ही वह कौम दो देशों की सीमाओं में क्यों न बँटी हो। बंगालियों के लिए यह महज एक मछली नहीं, अपने कौम की सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान है।
बांग्लादेश की पद्मा नदी की हिल्सा को सबसे उम्दा औऱ स्वादिष्ट माना जाता है और बंगाल के लोग इसकी मुँहमाँगी कीमत देने के लिए तैयार रहते हैं। कई बार तो इसकी कीमत ढाई से तीन हजार प्रति किलो तक पहुंच जाती है। बीते साल कुछ समय के लिए इसके निर्यात पर लगी पाबंदी हटी थी। लेकिन तस्करी के जरिए आने वाली इस मछली की भारी माँग रहती है।
स्टैटस सिंबल
बंगालियों के लिए एक स्टेटस सिंबल का दर्जा हासिल कर चुकी इस मछली का पश्चिम बंगाल में सेवन देश की आजादी के बाद बढ़ा। इसकी वजह थे तत्कालीन पूर्वी बंगाल से यहाँ पहुँचने वाली बंगाली शरणार्थी। लेकिन वर्ष 2012 में बांग्लादेश ने जब से हिल्सा के निर्यात पर पाबंदी लगा दी, आम बंगाली की दिनचर्या और खानपान की आदतें भी बदल गई थीं।वैसे तो हिल्सा ओडिशा, त्रिपुरा, असम, आंध्र प्रदेश और मिजोरम में भी बड़े चाव से खाई जाती है। लेकिन जो बात बंगाल में है वह कहीं और नहीं है। बंगाली हिंदू परिवारों में हिल्सा के बिना कोई भी शुभ काम पूरा नहीं होता। वह चाहे शादी-विवाह का मौका हो या फिर किसी पूजा या त्योहार का।
बंगाली परिवार तो अपने बांग्ला नववर्ष 'पोयला बैशाख' की सुबह की शुरूआत ही हिल्सा और 'पांता भात' यानी रात भर पानी में भिगो कर रखे गए भात के साथ शुरू करता है। शादी के मौके पर वर पक्ष की ओर से वधू पक्ष को हिल्सा का जोड़ा उपहार दिए बिना बात ही नहीं बनती।
समुद्र से नदी का सफ़र
हिल्सा की एक ख़ासियत यह भी है कि यह रहती है समुद्र के खारे पानी में, लेकिन अंडे नदी के मीठे पानी में ही देती है। अंडे देने के बाद अपने बच्चों के साथ यह फिर समुद्र की गहराइयों में लौट जाती है। यह एक तैलीय मछली है। इसमें ओमेगा-3 फैटी एसिड भरपूर मात्रा में होता है। बंगाली लोग इस मछली को पचास से भी ज्यादा तरीकों से पका सकते हैं और हर व्यंजन का स्वाद एक से बढ़ कर एक होता है। कोलकाता के विभिन्न होटलों और रेस्तरां में बांग्ला नववर्ष और दुर्गापूजा के मौके पर आयोजित हिल्सा महोत्सवों में उमड़ने वाली भीड़ से इसकी लोकप्रियता का अंदाजा मिलता है।
मछली व्यवसाय से जुड़े सूत्रों का कहना है कि बंगाल की खाड़ी में वर्ष 2001 में 80 हज़ार टन हिल्सा मिली थी। लेकिन वर्ष 2017 में यह मात्रा घट कर महज 10 हजार टन रह गई। ऊपर से बांग्लादेश की ओर से लगी पाबंदी की वजह से खुदरा बाज़ारों में इसकी कीमतें आसमान छूने लगी थीं। फिलहाल गंगा की हिल्सा की कीमत 17 सौ रुपए किलो है, जबकि म्यांमार से आने वाली जमी हुई हिल्सा मछली भी 12 सौ रुपए के भाव बिक रही है। लेकिन यह उतनी स्वादिष्ट नहीं होती।