अलीगढ़ के पास टप्पल इलाक़े में ढाई साल की मासूम ट्विंकल की हत्या के बाद सिर्फ़ अलीगढ़ ही नहीं, देश के कोने-कोने से बच्ची के लिए इंसाफ़ की माँग की जा रही है। हत्या पर अफ़सोस, शर्म और नाराज़गी का इजहार किया जा रहा है।ढाई साल की बच्ची को आपसी रंजिश के चलते ही क्यों नहीं, मार डालना परले दर्जे की विकृति है और उसका कोई मनोवैज्ञानिक औचित्य नहीं दिया जा सकता। यह तथ्य कि अभियुक्त पहले से ही ऐसा था, मारी गई बच्ची के परिजनों को कोई राहत नहीं पहुँचाता। ढाई साल की बच्ची की हत्या इसलिए भी अधिक क्रूर है क्योंकि वह बच्ची किसी भी तरह अपनी रक्षा नहीं कर सकती थी। शायद ट्विंकल बच जाती अगर पुलिस ने पहले ही परिवार की गुहार सुन ली होती। इसलिए ज़िम्मेवार पुलिसकर्मियों को सज़ा होनी भी ज़रूरी है।
यह मानना कि कोई ऐसा भी होगा जिसे इस हत्या पर क्रोध न आया हो, दूसरों की आदमीयत पर शक करना है। और अपनी इंसानियत की श्रेष्ठता का अहंकार भी इस ख़याल में छिपा है। संवेदना ज़ाहिर करते वक़्त दूसरों को ललकारना कि तुम कहाँ हो, उन्हें शामिल करने की जगह बाहर करना है।
इसके बाद कुछ और बातों पर ठंडे दिमाग़ से सोचने की ज़रूरत है। इस हत्या के अभियुक्त संयोग से मुसलमान हैं। वे हिंदू भी हो सकते थे। इसलिए हत्या का विरोध करते वक़्त अभियुक्तों के नाम के साथ क्यों इस पर ज़ोर दिया जा रहा है कि रमज़ान के दौरान यह हत्या की गई क्या रमज़ान में मुसलमान नामधारी अपराध नहीं करते क्या नवरात्रि के समय कोई हिंदू जेब नहीं काटता
ट्विंकल की हत्या के प्रसंग में रमज़ान को रेखांकित किया जाना दो व्यक्तियों के अपराध के लिए उनके पूरे समुदाय या धर्म को ज़िम्मेवार ठहराना है।
ट्विंकल की हत्या के बाद देश में उठे रोष से विश्वास होना चाहिए कि हमारी संवेदना शायद उसके लिए भी है जिससे हमारा ख़ून, भाषा, बिरादरी आदि का कोई रिश्ता नहीं है। ऐसी ही हमदर्दी से हमशहरीयत का निर्माण होता है। राष्ट्र के निर्माण के लिए भी यह अनिवार्य है। मैं आपके प्रति ज़िम्मेदारी महसूस करता हूँ, हालाँकि न मैं आपसे कभी मिला और न कभी मिलने की कोई सूरत है। यह भी कह सकते हैं कि कोई ऐसी जाती गर्ज भी नहीं कि हम एक-दूसरे से सम्पर्क करें। फिर भी मैं आपके दुःख में दुखी होता हूँ।यह हमेशा अपने आप नहीं होता। हमशहरीयत का यह अहसास स्वतःस्फूर्त हो, ज़रूरी नहीं। इसे संगठित करना होता है। इस संगठन के माध्यम से हम इस सह-नागरिकता के भाव को विकसित करते हैं। सह-नागरिकता या हमशहरीयत के बारे में सोचते हुए हमेशा ही ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह कोरी भावुकता का मामला नहीं बल्कि इंसाफ़ का ख़याल इससे जुड़ा हुआ है।
यह राजनीतिक है या नहीं अगर हम यह न भूलें कि हर समाज ग़ैरबराबरी से किसी न किसी रूप में ग्रस्त है और सामूहिक नागरिकता या राष्ट्रीयता इस असमानता के साथ-साथ नहीं चल सकती तो इसका राजनीतिक आशय स्पष्ट होता है। मेरी नागरिकता, या राष्ट्र की मेरी सदस्यता मुझे अगर आपकी तरह ही प्रत्येक प्रकार के संसाधन और अवसर में हिस्सेदारी नहीं दिलाती तो वह बेमानी है। इसीलिए राष्ट्र या राज्य संवैधानिक अथवा क़ानूनी प्रावधान करते हैं कि यह बराबरी हासिल हो। बराबरी का अहसास इंसाफ़ का अहम हिस्सा है।
किसी के लिए इंसाफ़ माँगने का अर्थ किसी के ख़िलाफ़ जाना भी हो सकता है। क्या किसी व्यक्ति या समुदाय को वह होने के कारण जोकि वह है, इससे वंचित किया जाता रहा है कौन है जो इसके रास्ते में रुकावट है अगर यह रुकावट समाज की बनावट में पैबस्त है तो इसके ख़िलाफ़ खड़े होना इस सहभाव के लिए आवश्यक है। जितनी बड़ी रुकावट है, उतनी ही बड़ी गोलबंदी की ज़रूरत भी है। यह सिर्फ़ उसे विश्वास दिलाने के लिए नहीं जो पीड़ित है बल्कि ख़ुद अपने भीतर भी नागरिकता के भाव को विस्तार देने के लिए ज़रूरी है।
श्रीलंका में कथित “इस्लामी” संगठन के द्वारा गिरिजाघरों पर हमले के बाद वहाँ मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा हुई। बौद्ध कट्टरपंथियों ने सरकार में मुसलमान मंत्रियों के ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ दिया कि दहशतगर्दों से उनके रिश्ते की जाँच होनी चाहिए। इसके कारण मुसलमान मंत्रियों ने इस्तीफ़ा दिया। इस इस्तीफ़े के विरुद्ध श्रीलंका के हिंदू तमिल मुखर हुए हैं। वे दहशतगर्द हमलों के कारण सारे मुसलमान समुदाय को संदिग्ध बनाए जाने की मुहिम को ख़तरनाक मान रहे हैं।
बहुसंख्यक समुदाय पर है बड़ी ज़िम्मेदारी
श्रीलंका में तमिल हिंदू और मुसलमान, दोनों ही अल्पसंख्यक हैं। एक पर जब बहुसंख्यक आक्रमण हो तो दूसरे का उसकी एकजुटता में खड़ा होना ही स्वाभाविक है। लेकिन उससे भी ज़रूरी है सिंहली बौद्धों का उनके पक्ष में उठना। जब ये दो अल्पसंख्यक समुदाय एक-दूसरे के साथ खड़े होते है तो वे स्वतः ही बहुसंख्यकवादी दबाव के ख़िलाफ़ भी हैं। यह ज़िम्मेदारी अब बहुसंख्यक समुदाय की है कि वह श्रीलंका की नागरिकता को व्यापक करने के लिए इन समूहों की चिंता में शामिल हो।
यह हमने न्यूजीलैंड में देखा जब मसजिदों पर श्वेत श्रेष्ठतावादी हमले हुए तो देश के श्वेत और ईसाई, मुसलमानों के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए बाहर आए। इससे मुसलमानों को न्यूजीलैंड की नागरिकता में शामिल होने का भरोसा हुआ।
यह सह-नागरिकता का संगठन है। यह निरंतर चलने वाली और सचेत होनी चाहिए। इसलिए कि समाज में अन्याय का स्रोत हो सकता है कि एक व्यक्ति हो, लेकिन उस अन्याय के पीछे एक विचार होता है जो साझा होता है। टप्पल की ट्विंकल की हत्या के पीछे यह विचार कि किसी से विवाद की स्थिति में आप उसके संबंधी या परिजन से बदला ले सकते हैं, या उन्हें हानि पहुँचाकर उसे पीड़ित कर सकते हैं, कितना व्यापक है, हम जानते हैं।एक व्यक्ति के अपराध की सज़ा उसके परिवार या जातीय अथवा धार्मिक समुदाय को देने की इच्छा कितनी आम और कितनी सहज है! इसके ख़िलाफ़ कितना सजग रहना होता है! किसी जगह दलित दूल्हे के घोड़ी चढ़ने पर हिंसा के पीछे जातीय श्रेष्ठता और विशेषाधिकार का विचार है, इसलिए ऐसी घटना का विरोध हिंसा के शिकार व्यक्ति की तरह के लोगों से ज़्यादा उन्हें करना चाहिए जो किसी रूप में हिंसक समुदाय के अंग माने जाते हैं। यह इस कारण कि इस प्रकार की हिंसा भले ही एक व्यक्ति या कुछ लोग कर रहे हों, वे असमानता के विचार के कारण ही ऐसा कर रहे हैं। यह मानकर भी वे यह हिंसा कर आगे हैं कि वे यह अपने लिए और अपनी तरफ़ से नहीं बल्कि अपने समुदाय के लिए और उसकी तरफ़ से कर रहे हैं। उस समय उस समुदाय को ख़ुद को उससे अलग करना ही होता है।
जर्मनी में यहूदियों के ख़िलाफ़ हिंसा करने वाला एक व्यक्ति हो सकता है लेकिन जर्मनी की राष्ट्र प्रमुख इसके ख़िलाफ़ हमेशा बोलती हैं। वे हमेशा अपने देश को याद दिलाती रहती हैं कि यहूदी विरोध या उनके प्रति घृणा हिटलर के साथ ख़त्म नहीं हुई है, वह देश में ज़िंदा है और सबको उसके प्रति सचेत रहना आवश्यक है। यह जर्मन नागरिकता का भाव विकसित करने के लिए ज़रूरी है।
उसी तरह दिल्ली में जब कोई व्यक्ति या समूह मणिपुरी समुदाय पर हमला करे तो उत्तर भारतीयों का उसके ख़िलाफ़ मुखर होना मणिपुरी लोगों को भारत के सह-नागरिक होने का आश्वासन देता है।
यह संवेदना जब व्यक्त हो रही हो तो उसे अपनी परीक्षा भी करते रहनी चाहिए। संवेदना व्यक्त करते वक़्त आप किसी और के ख़िलाफ़ द्वेष की परोक्ष अभिव्यक्ति तो नहीं कर रहे वह पीड़ित के प्रति संवेदना और अन्यायी के ख़िलाफ़ अधिक रोष किसी और के विरुद्ध घृणा व्यक्त करने का बहाना तो नहींजब आप संवेदना प्रकट करते समय दूसरे को चुनौती देने लगें कि वह कहाँ है या क्यों चुप है तो आपको अपनी संवेदना की ईमानदारी पर शक करना चाहिए। उसके साथ ही यह भी कि घटनाओं और पृष्ठभूमि के अंतर को भी नहीं भूलना चाहिए। एक हिंसा वह है जिसका शिकार एक ही व्यक्ति हो लेकिन निशाना उसका समुदाय है लेकिन प्रत्येक हिंसा ऐसी ही हो, यह आवश्यक नहीं। ट्विंकल की हत्या उसके दादा को सबक़ सिखाने के लिए की गई, उसके हिंदू होने के कारण नहीं। जुनैद का क़त्ल उसके नाम के चलते हुआ। जुनैद के क़त्ल के पीछे मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा थी।
उसी तरह एक हिंसा के शिकार के न्याय के रास्ते में हो सकता है, बाधा डाली जा रही हो लेकिन दूसरी घटना में यह नहीं भी हो सकता है। इसलिए हत्या और हिंसा की हर घटना की तुलना नहीं की जा सकती। आसिफ़ा की हत्या के बाद उसके इलाक़े के हिंदू अभियुक्तों के पक्ष में आंदोलन करने लगे। ट्विंकल की हत्या के बाद क्या अभियुक्तों की ओर से मुसलमान सड़क पर आ गए हैं
न्याय की माँग करते हुए जब किसी समुदाय को कठघरे में खड़ा किया जाए या उसे अप्रत्यक्ष रूप से निशाना बनाया जाए तो न्याय की वह माँग ही अन्याय बन जाती है। वह संवेदना से अधिक घृणा का संगठन है। ट्विंकल की हत्या के बाद क्यों गाँव के मुसलमान भय से गाँव छोड़ रहे हैं
पाकिस्तान में सलमान तासीर की संवेदना, न्यूज़ीलैंड में प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न की संवेदना, श्रीलंका में हिंदू समूहों की संवेदना ईमानदार है। वह स्वार्थ से परे है, इसलिए भी और इस कारण भी कि वह आत्मरक्षा या ख़ुद के प्रभुत्व की इच्छा से मुक्त है।सब अपने हों, यह महत्वाकांक्षा रहनी चाहिए लेकिन इस यथार्थ को हमें स्वीकार करना ही चाहिए कि पराया होता है और हमें उस पराए से रिश्ता बनाने में श्रम करना पड़ता है। किससे लगाव सहज है और किससे लगाव पैदा करना होता है यह सह-नागरिकता के लिए आवश्यक श्रम है। वैष्णव जन वही है जो यह श्रम करने को तत्पर और उत्सुक हो। गाँधी का प्रिय आख़िर नरसी मेहता का यही भजन था, वैष्णव जन तो वही है जो पराए की पीर जाने।अपना और पराया होगा ही। पराए को हड़प कर अपना हिस्सा बना लिया जा सकता है। लेकिन जब उससे हमदर्दी का रिश्ता क़ायम किया जाए तो हम एक सह-नागरिक हासिल करते हैं।