रोहित वेमुला को दलित होने का अधिकार भी नहीं है?

07:18 am May 27, 2024 | अपूर्वानंद

नई लोकसभा के लिए 2024 के चुनाव के दौरान बार-बार रोहित वेमुला की याद आती रही। इसकी बड़ी वजह यह है कि इस बार चुनाव-प्रचार में जो शब्द सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किए गए, उनमें अनुसूचित जाति, जनजाति, या दलित और आदिवासी जैसे शब्द सबसे अधिक सुनाई पड़े। भारतीय जनता पार्टी के मुख्य प्रचारक नरेंद्र मोदी ने, जो संयोग से भारत के प्रधानमंत्री भी हैं, सबसे पहले इन समुदायों के हितों के प्रति चिंता ज़ाहिर की। उनके इशारे को समझकर भाजपा के सारे नेताओं ने चिल्ला-चिल्लाकर कहा कि उन्हें डर है कि कांग्रेस पार्टीवाले इन दलित और आदिवासी समुदायों के हिस्से के संसाधनों का अपहरण कर लेंगे और उन्हें मुसलमानों को बाँट देंगे। यह हिस्सा मुख्य रूप से आरक्षण के रूप में इन्हें मिल रहा है। भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस इनका आरक्षण लेकर मुसलमानों को दे देगी। 

जब यह शोर गुल चल रहा था, तेलंगाना की पुलिस रोहित वेमुला की आत्महत्या से मृत्यु के मामले को बंद करने की प्रक्रिया के आख़िरी दौर में थी। उसका कहना था कि रोहित वेमुला ने ख़ुद से ही, ख़ुद की तैयार की गई स्थितियों से परेशान होकर आत्महत्या की थी। लेकिन उसके साथ पुलिस ने यह भी कहा कि असल में बात यह थी कि रोहित वेमुला ने अपनी जाति के बारे में अपनी माँ के साथ मिलकर झूठ गढ़ा था कि वह दलित है। पुलिस के मुताबिक़, रोहित को दलित नहीं माना जा सकता है क्योंकि उसके पिता ‘अन्य पिछड़ी जाति’ समुदाय के हैं। रोहित की माँ ज़रूर दलित हैं लेकिन उससे रोहित की जाति तय नहीं होती। पुलिस के अनुसार रोहित के लिए इस झूठ को चलाए रखना कठिन हो रहा था। अलावा इसके पढ़ाई-लिखाई से ज़्यादा वे कुछ और कर रहे थे। इन सबने मिलकर ऐसे हालात पैदा कर दिए जिनका सामना रोहित नहीं कर पाए और उन्होंने आत्महत्या कर ली।

अगर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के अध्यापकों और छात्रों का और अन्य दलित अधिकारों के लिए काम करनेवालों का ध्यान इस मामले पर नहीं बना रहता तो रोहित वेमुला का मामला सरकारी और पुलिस की फ़ाइलों में कहीं दफ़न हो गया होता। लेकिन वे इसे लेकर मुख्यमंत्री के पास गए। अभी सरकार कांग्रेस की है। पुलिस ने यह कार्रवाई पिछली सरकार के दौरान की थी। कांग्रेस सरकार ने पुलिस को मामला बंद करने से मना किया है।

पुलिस का काम यह नहीं था कि वह रोहित की जाति के बारे में फैसलाकुन राय दें। जाति के प्रमाणन का काम दूसरे अधिकारियों का है। वहाँ से कोई बयान नहीं आया है। फिर पुलिस इस नतीजे पर कैसे पहुँच गई? दूसरे, यह बात रोहित की मृत्यु के बाद कई बार कही जा चुकी है कि रोहित की माँ और पिता अलग हो चुके थे और रोहित को उसकी माँ ने ही पाला था। फिर रोहित की जाति कहाँ से तय होगी? वह किस जाति-समुदाय में पला-बढ़ा और किससे उसकी सामाजिक स्थिति निर्धारित होगी? इसके साथ ही ऐसे प्रसंग में सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्थिति स्पष्ट की है। फिर पुलिस को इस पक्ष को उभारना क्यों ज़रूरी लगा?

रोहित वेमुला पढ़ाई-लिखाई छोड़कर राजनीति में लिप्त था। इस वजह से वह अपने शोध को नहीं सम्भाल पा रहा था। पुलिस यह दर्ज नहीं करती कि रोहित ने जूनियर रिसर्च फेलोशिप दो दो बार हासिल की थी। उसके अलावा आत्महत्या के पहले लिखे रोहित के बयान की भी अपव्याख्या करते हुए पुलिस ने उसकी राजनीतिक उलझन को भी आत्महत्या की वजह ठहराया।

रोहित वेमुला के साथ पुलिस के इस बर्ताव पर चुनाव प्रचार के दौरान चर्चा नहीं हुई, अह आश्चर्य की बात थी। यह इसलिए कि इस पूरे मामले से अनुसूचित जाति या दलितों के प्रति भाजपा के असली रवैये का पता चलता है।

जिनकी याददाश्त ठीक है वे जानते हैं कि रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद भाजपा के नेताओं ने, जिनमें स्मृति ईरानी सबसे मुखर थीं, बार-बार रोहित पर इल्ज़ाम लगाया कि वह झूठ बोल रहा था कि वह दलित था। रोहित की माँ को भी झूठा साबित करने की कोशिश की गई थी।

थोड़ी देर के लिए भाजपा के नेताओं की इस शैतानी हरकत पर हम विचार करें। एक दलित छात्र ने आत्महत्या की। उसके पहले उसे भाजपा के मित्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के द्वारा प्रताड़ित करने की घटना हो चुकी थी। प्रशासन ने भी ए बी वी पी का साथ दिया और रोहित को दंडित किया। भाजपा के केंद्रीय मंत्रियों ने बार-बार पत्र लिखकर रोहित और उसके मित्रों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की माँग की।

रोहित और अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के ख़िलाफ़ भाजपा के मंत्री दुष्प्रचार कर रहे थे। उसका कारण था रोहित और उसके संगठन के द्वारा अफ़ज़ल गुरू की फाँसी का विरोध और मुसलमानों के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आंदोलन। रोहित ने हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में हुए बीफ उत्सव के पक्ष में लिखा था कि आम तौर पर वह खाने के मामले को लेकर किसी सार्वजनिक प्रदर्शन के ख़िलाफ़ है लेकिन चूँकि बीफ खाने को अपराध ठहराया जा रहा है, इस प्रकार के सार्वजनिक विरोध की सार्थकता है। आप याद करें दिल्ली के क़रीब दादरी में मोहम्मद अख़लाक़ को उनके घर से निकाल कर हिंदुओं की भीड़ ने इस इल्ज़ाम में मार डाला था कि उनके फ्रिज में बीफ था। 

कोई दलित मुसलमानों का साथ कैसे दे सकता है? यदि वह ऐसा करता है तो वह नक़ली दलित है। या दलित नहीं माओवादी है। उसका दलितपन उसकी राजनीति के कारण ख़त्म कर दिया जा सकता है। दलितों को अपनी राजनीति और अपनी एकजुटताएँ तय  करने का अधिकार नहीं। ख़ासकर वे मुसलमानों के साथ खड़े नहीं हो सकते। उसी तरह सिखों को कहा जाता है कि वे मुसलमानों का साथ नहीं दे सकते क्योंकि गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविंद सिंह को मुग़लों ने प्रताड़ित किया था। अगर वे इसके बाद भी मुसलमानों का साथ दें तो आतंकवादी घोषित कर दिए जाते हैं। 

यही वक्त था जब भाजपा के लोगों ने रोहित और उसके छात्र संगठन पर आरोप लगाना शुरू किया कि वे असली दलित नहीं हैं और माओवादी हैं क्योंकि वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की माँग नहीं कर रहे।

इन दोनों विश्वविद्यालयों के अल्पसंख्यक दर्जे को ख़त्म करने की माँग के पक्ष में तर्क यही था कि ये दोनों अल्पसंख्यक होने  कारण यह छूट ले पा रहे हैं। इस तरह दलित समुदाय में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसात्मक भावना भड़काने की कोशिश भाजपा ने शुरू की। वह अब तक चल रही है। 

ए एम यू और जामिया का अल्पसंख्यक दर्जा ख़त्म करना मुसलमानों की सामाजिक हैसियत ख़त्म करने की दिशा में एक बड़ी प्रतीकात्मक जीत होगी। इसके लिए सामाजिक न्याय का तर्क लिया जा रहा है। हिन्दुत्ववादी राजनीति के प्रभुत्व के लिए दलितों और पिछड़ों की संख्या महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए इस बार चुनाव प्रचार में भाजपा ख़ुद को दलितों और पिछड़ों का हितैषी बना रही है कि उन्हें ढाल बना कर मुसलमानों पर हमला किया जा सके।

रोहित वेमुला इसलिए ख़तरनाक है कि वह राजनीतिक रूप से शिक्षित दलित का प्रतिनिधि है जो जानता है कि दलित हिंदुत्ववादी राजनीति में सिर्फ़ प्यादे रहेंगे और मुसलमानों के ख़िलाफ़ उनका इस्तेमाल किया जाएगा। लेकिन इससे निरपेक्ष वे अल्पसंख्यकों के अधिकारों के हक़ में लड़ना अपना फर्ज समझता है। इसलिए भाजपा की राजनीति तय करती है कि रोहित वेमुला को दलित होने का अधिकार भी नहीं है।