विश्वविद्यालयों के लिए क्यों ज़रूरी हैं समरवीर सिंह जैसे अध्यापक!

08:01 am Apr 29, 2024 | अपूर्वानंद

‘कल समरवीर सिंह की पहली बरसी है। क्या आप उसमें हिस्सा लेंगे?’ एक छात्र का संदेश फ़ोन पर आया। मुझे झटका लगा। एक साल हो गया? समरवीर सिंह की आत्महत्या का एक साल? कुछ शर्म भी आई कि मुझे याद करना पड़ रहा है कि कब समरवीर ने ख़ुदकुशी से जान दी थी। ‘कहाँ?’, मैंने पूछा। मुझे लगा था कि शायद हिंदू कॉलेज में, जहाँ समरवीर पढ़ाते थे, यह स्मृति सभा हो रही हो। मेरा अनुमान ग़लत निकला। यह सभा ऑनलाइन होनी थी। बाद में आयोजक ने बतलाया कि कॉलेज में जगह मिलना मुश्किल थी। एक ‘एढाक’ अध्यापक की ख़ुदकुशी की याद कॉलेज की छवि के लिए ठीक न थी। 

ऑनलाइन सभा में 30-35 लोग शामिल हुए। 4-5 अध्यापक, वे भी सब उस कॉलेज के नहीं। विद्यार्थी भी कई दूसरे कॉलेजों के। हिंदू कॉलेज के अध्यापकों को क्या इसकी ख़बर नहीं थी? या समरवीर सिंह को वे अपनी बिरादरी का नहीं मानते जिस वजह से वे उन्हें याद करने के लिए वक्त निकालें? क्योंकि वे स्थायी नहीं, ‘एढाक’ मात्र थे? और 8 साल जिन्हें समरवीर ने पढ़ाया था, क्या उन विद्यार्थियों में भी अधिकतर को इस बैठक के बारे में मालूम न था? 

उस बैठक में समरवीर सिंह ने जिन्हें पढ़ाया था उन विद्यार्थियों में कुछ ने उनकी याद की। और उनके सहकर्मियों ने। अध्यापन के प्रति उनके लगाव की। अपने विषय दर्शनशास्त्र से उनकी प्रतिबद्धता की। कक्षा के बाहर अपने विद्यार्थियों को लेकर उनकी चिंता की भी। 

सुनते हुए मुझे लगा कि इस बैठक में कुलपति और कॉलेजों के प्राचार्यों को भी होना चाहिए था। उन्हें उस छात्रा को सुनना चाहिए था जिसने बतलाया कि कॉलेज ने उसकी ज़िंदगी में कितनी बड़ी भूमिका निभाई है। यह सिर्फ़ एक क़स्बे से एक बड़ी दुनिया में आना भर नहीं है। उसने कहा कि वह एक बहुत ही हिंसक माहौल से निकल पाई और कॉलेज उसे ऐसी जगह मालूम हुआ जहाँ वह ख़ुद को महफ़ूज़ समझ सकती है। हिफ़ाज़त का यह अहसास कितना बड़ा और क़ीमती है, यह उसे ही समझ में आ सकता है जिसने उस छात्रा की काँपती हुई आवाज़ सुनी हो। यह सुनकर कुछ लोगों को ताज्जुब हो सकता है कि लड़कियाँ यूनिवर्सिटी या कॉलेज को अपने घरों के मुक़ाबले अधिक सुरक्षित स्थान मानती हैं। सुरक्षित भी और स्वतंत्र भी। मुझे अपनी छात्राएँ याद आ गईं। यूनिवर्सिटी जिनके लिए अपने घरों के दमघोंटू माहौल से निकलकर आज़ादी की साँस ले पाने की जगह है। वे आगे पढ़ते रहने का मौक़ा इसलिए भी चाहती हैं कि उन्हें फिर उसी क़ैद में वापस न जाना पड़े।

छात्रों ने यह भी कहा कि कॉलेज में आने के बाद उन्हें राजनीति के भी असली मायने समझ में आए। उस अर्थ से अलग जिसमें वह शब्द उनके घरों, समुदायों और मोहल्लों में इस्तेमाल होता रहा है। उन्होंने समझा कि राजनीति उनके लिए कितनी अहम है और क्यों उन्हें राजनीतिक होना चाहिए। 

उस बैठक में छात्रों को सुनते हुए जान पड़ा कि कॉलेज के अध्यापकों का उनके जीवन में कितना अहम रोल है। वह विषय के प्रति रुचि जगाने से लेकर ख़ुद अपने ऊपर यक़ीन पैदा करने तक का काम है।

एक मायने में कॉलेज के अध्यापक की भूमिका स्कूल के अध्यापकों के मुक़ाबले भी कहीं अधिक नाज़ुक है। मैंने जाने कितनी बार सुना है कि कॉलेज के किसी अध्यापक की वजह से छात्रा को साहित्य में दिलचस्पी पैदा हुई जिसमें उसने बेमन से दाख़िला लिया था क्योंकि उसके प्रिय विषय में प्रवेश लायक़ नंबर नहीं थे।

लेकिन छात्र भी अपने अध्यापकों को देखते समझते हैं। कौन उन्हें आदर देता है, कौन दुत्कारता है, कौन उदासीन है। कौन उनके गले में अपनी आवाज़ ठूँसना चाहता है और कौन उन्हें उत्साहित करता है कि वे अपनी ख़ास आवाज़ हासिल करें। उनका अपना कंठ फूट सके। कौन अध्यापक क्लास के बाद ढाबे या कैंटीन में छात्रों की जाती बातों के साथ चाय पीने का वक्त निकालता है। ज़रूर अध्यापकों को शोध पत्र भी लिखने चाहिए लेकिन इन ज़िंदा किताबों से अधिक ज़रूरी क्या हो सकता है जिनमें रोज़ नए सफ़े जुड़ते जाते हैं!

समरवीर सिंह को याद करते हुए छात्रों ने उन अध्यापकों को याद किया जिनसे उनकी मुलाक़ात दाख़िले के बाद हुई। अभी वह साथ में क़ायदे से तब्दील भी न पाई थी कि उन्हें उनके काम से निकाल दिया गया। वे भी समरवीर की तरह ही ‘एढाक’ थीं। इन छात्रों ने अपने इन शिक्षकों का अपमान देखा, महसूस किया। और ख़ुद को असहाय पाया। 

इन अध्यापकों की जगह दूसरे अध्यापकों ने ले ली है। ज़्यादातर छात्रों ने बतलाया कि इनमें से अधिकतर को अपने विषय में रुचि नहीं है। उनमें अध्यापन की क्षमता की कमी है। वह सिर्फ़ उनके नए होने के कारण नहीं बल्कि उनकी अयोग्यता के चलते। अपनी इस कमी को वे छात्रों को नीचा दिखलाकर पूरा करते हैं। छात्रों ने कहा कि नई शिक्षा नीति के तहत इन अध्यापकों के पास अब प्रायः 40% अंक हैं। यह ख़तरनाक है क्योंकि वे इसके सहारे उन छात्रों को दंडित कर सकते हैं जो उनके अनुकूल नहीं हैं।

इसके चलते छात्रों को अपने उन अध्यापकों की कमी खलती है जिन्हें निकाल दिया गया। वे छात्र यह भी देख रहे थे कि ‘एढाक’ रहते हुए उनके उन ‘एढाक’ अध्यापकों पर बाक़ी स्थायी अध्यापकों के मुक़ाबले काम का कितना अधिक बोझा था। अपने सहकर्मियों का यह शोषण तो ख़ुद अध्यापक ही कर रहे थे!

छात्रों ने कॉलेजों के माहौल पर फ़िक्र ज़ाहिर की। नई शिक्षा नीति का असर अब कॉलेजों पर दीखने लगा है। पाठ्यक्रम से लेकर कॉलेज के अन्य कार्यक्रमों तक का स्तर गिर रहा है। अब सिर्फ़ एक ही तरह के ‘राष्ट्रवादी’ कार्यक्रमों के लिए कॉलेज में जगह रह गई है। आख़िर यह स्मृति सभा भी कॉलेज परिसर में नहीं की जा सकी क्योंकि समरवीर सिंह की मौत कॉलेज के लिए और यूनिवर्सिटी के लिए भी असुविधाजनक प्रसंग है।

समरवीर सिंह की स्मृति सभा तकलीफ़देह थी और भरोसा देनेवाली भी। वह भरोसा विद्यार्थियों की बात सुनकर हुआ। अपने वातावरण के प्रति उनकी संवेदनशीलता और जागरूकता से तसल्ली हुई। अध्यापकों को लेकर उनकी चिंता भी आश्वस्तिकारक थी। उन्होंने कहा कि वे चाहते हैं कि अध्यापक जानें कि वे उनके लिए भी फ़िक्रमंद हैं, कि उनका रिश्ता मात्र कक्षा और  पाठ्यक्रम का नहीं।

यह सब कुछ लेकिन समरवीर को वापस नहीं ला सकता। न ही यह समरवीर जैसे उन अध्यापकों के लिए कोई सांत्वना है जिन्हें बरसों बरस काम करने के बाद निकाल दिया गया। अगर यह होता कि उनकी जगह लेनेवाले उनके मुक़ाबले अधिक काबिल हैं तो भी कोई बात थी। लेकिन जैसा छात्रों ने बतलाया कि ये नए बहाल किए गए लोग पहले के अध्यापकों के मुक़ाबले बहुत कमतर हैं। यह बात समरवीर सिंह की न रहने की तकलीफ़ और बढ़ा देती है।