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पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो भी सरकार का रुख क्यों नहीं बदला?

पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो भी सरकार का रुख क्यों नहीं बदला?

जेडीयू और टीडीपी जैसे सहयोगियों के भरोसे सरकार बनी, लेकिन क्या इस नयी सरकार के गठन के बाद बीजेपी सरकार के काम करने के तौर-तरीक़े में बदलाव आया? 

मध्य प्रदेश के रतलाम ज़िले के जावरा शहर में 4 मुसलमानों को गिरफ़्तार कर लिया गया। उनपर इल्ज़ाम है कि उन्होंने एक मंदिर में गाय का सर फेंका था। प्रशासन ने उनके घरों को बुलडोज़र से ढाह उसपर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत मामला दर्ज किया। मध्य प्रदेश में ही मांडला के बैंनवाही में 11 मुसलमानों को गिरफ़्तार कर लिया गया और उनके घरों को बुलडोज़र से ध्वस्त कर दिया गया। आरोप लगाया कि वे गोकुशी कर रहे थे। उसके पहले छत्तीसगढ़ में दो मुसलमानों को पीट पीट कर मार डाला गया। उनपर गाय की तस्करी का इल्ज़ाम था। गुजरात में भीड़ ने बक़रीद की क़ुर्बानी के लिए बकरे ले जा रहे मुसलमानों पर हमला किया। इसी बीच खबर आई कि वडोदरा में एक हाउसिंग कॉलोनी के हिंदू निवासियों ने एक मुसलमान महिला को, जो सरकारी कर्मचारी हैं, मकान दिए जाने का विरोध फिर से शुरू किया।

जिस दिन चुनाव के नतीजे आ रहे थे उसी दिन ‘नीट’ के परिणाम घोषित कर दिए गए। तुरत ही छात्रों ने आरोप लगाया कि परिणामों में भारी गड़बड़ी है और बड़े पैमाने पर इम्तहान में धाँधली हुई है। परीक्षा लेनेवाली नेशनल टेस्टिंग एजेंसी ने पहले तो साफ़ इनकार किया, लेकिन बाद में जब मामला अदालत में गया और अदालत ने भी कहा कि परीक्षा की पवित्रता भंग हुई है तब एजेंसी ने घोषणा की कि जिन छात्रों को कृपांक दिए गए थे, उनसे वे वापस ले लिए जाएँगे। इसके बाद भी वह अड़ी हुई है कि उसकी तरफ़ से कोई गड़बड़ी नहीं की गई। वह इसका जवाब नहीं दे पाई है कि परीक्षा का परिणाम उसने चुनाव परिणामवाले दिन ही क्यों जारी किया जबकि पहले से तय था कि 14 जून को इसकी घोषणा की जाएगी।

पहली नज़र में जिस परीक्षा में गड़बड़ी हुई दिख रही है,उसकी वकालत करने पर सरकार क्यों अड़ी हुई है? अभी अपना काम सँभाले 1 दिन भी नहीं गुजरा लेकिन शिक्षा मंत्री ने एजेंसी को अपनी तरफ़ से बेदाग़ घोषित कर दिया। लाखों छात्र इसका विरोध कर रहे हैं। मंत्री ने कहा कि यह विरोध किसी और मंशा से किया जा रहा है और ईमानदार नहीं है। यानी वे छात्रों और उनके अभिभावकों के विरोध को उसी तरह धता बता रहे हैं जैसे पिछली सरकार ने किसानों या मुसलमान महिलाओं या छात्रों के आंदोलनों की आवाज़ सुनने से इनकार कर दिया था और उन्हें देशद्रोही, माओवादी, ख़ालिस्तानी आदि कहकर अपमानित किया था।

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि गड़बड़ी हुई है लेकिन उसने परीक्षा परिणाम और आगे की कार्रवाई को स्थगित करने से मना कर दिया।

दिल्ली के उपराज्यपाल ने 14 साल पुराने मामले को ज़िंदा करते हुए अरुंधती राय और कश्मीर के प्रोफ़ेसर शेख़ शौक़त हुसैन पर यूएपीए के तहत मुक़दमा दर्ज करने की इजाज़त दी।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया कि ‘अर्बन नक्सल’ समाज में  सक्रिय हो गए हैं और उन्होंने जनता को गुमराह किया और उसी वजह से भाजपा गठबंधन बहुमत से दूर रह गया।उनके पहले असम के मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया कि एक ख़ास धार्मिक समुदाय यानी ईसाइयों ने भाजपा को वोट नहीं दिया।

इस बीच सोशल मीडिया के मंचों पर उत्तर प्रदेश, ख़ासकर अयोध्या के हिंदुओं के ख़िलाफ़ गाली-गलौज की बौछार करते हुए अभियान चलाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि वे नमक हराम, कृतघ्न, कायर हैं क्योंकि उन्होंने भाजपा को उतनी सीटें नहीं दीं जितनी वह चाहती थी।

अभी चुनाव नतीजों के दो हफ़्ते नहीं हुए हैं और सरकार बने हफ़्ता ही गुजरा है लेकिन ये शुरुआती इशारे यह बतला रहे हैं कि राज्य तंत्र और भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक तंत्र अपनी पुरानी चाल बेढंगी जारी रखे हुए है। चुनाव से जो जनादेश उभरा है, उसके बाद नरेंद्र मोदी की सरकार के बन जाने के चलते सारी राजकीय संस्थाएँ मान रही हैं कि जनता ने पुरानी रीति नीति को वैसे ही जारी रखने के लिए हरी झंडी दिखला दी है।

वह रीति-नीति क्या थी? जनता को हेय समझना या उसके प्रति पूरी बेपरवाही, राज्य तंत्र का अहंकारपूर्ण रवैया, मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंदुत्ववादी गिरोहों की और राज्य तंत्र की हिंसा, नागरिक अधिकारों पर हमला, मीडिया द्वारा सरकार और राज्य की वकालत और न्याय व्यवस्था का राज्य की तरफ़ झुकाव। माना जा रहा था कि जनता ने नरेंद्र मोदी को भगवान का दर्जा देने से इनकार कर दिया है और उन्हें और भाजपा के उनके अनुचरों को याद दिलाया है कि वह एक छोटे इंसान हैं और उसी तरह उनके साथ बर्ताव किया जाना चाहिए। लेकिन नतीजों के बाद चारों तरह पोस्टर लगाए गए जिनमें नरेंद्र मोदी को आधुनिक भारत का निर्माता घोषित किया गया।

2024 के लोकसभा चुनाव के जनादेश को नरेंद्र मोदी की नैतिक और राजनीतिक अस्वीकृति के तौर पर पढ़ा गया है। सबने ही, उनमें नरेंद्र मोदी के समर्थक भी हैं, माना कि नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत न देकर जनता ने कहना चाहा है कि जो जैसे चल रहा था, उसे वह पसंद नहीं करती और सरकार के तौर-तरीक़ों में बदलाव चाहती है।

अनेक लोगों का मानना है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनाए जाने की मोदी की और भाजपा की माँग को जनता ने ठुकरा दिया है। इसके बाद भी फिर से नरेंद्र मोदी का सत्ता पर काबिज होना वास्तव में जनादेश की चोरी है। कहा जा रहा है कि अगर चुनाव आयोग भाजपा के विभाग के तौर पर काम न करता, अगर मीडिया ने पक्षपात रहित भूमिका निभाई होती तो, अगर बार बार राजकीय संस्थाओं द्वारा विपक्ष के रास्ते में बाधाएँ न खड़ी की गई होतीं तो नतीजे अलग हो सकते थे। यानी भाजपा को 200 से भी कम सीटें मिलतीं! अभी हम अखिलेश यादव और दूसरे विपक्षी नेताओं के उन वक्तव्यों की चर्चा नहीं कर रहे जिनमें उन्होंने चुनाव अधिकारियों पर मतदान और मतगणना के दौरान धाँधली का आरोप लगाया है। हमें याद नहीं कि किसी चुनाव में इस तरह का इल्ज़ाम खुलेआम विपक्ष ने कभी लगाया हो। इसे यों ही हवा में नहीं उड़ा दिया जा सकता है।

बहरहाल, नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार जनता दल (यूनाइटेड) ,तेलुगू देशम पार्टी और लोक जनशक्ति पार्टी आदि के सहयोग से बना ली है। लेकिन क्या चुनाव से उभरे जनादेश से कहीं भी कोई फर्क पड़ा है?

टिप्पणी के आरम्भ में जिन घटनाओं का ज़िक्र है उससे मालूम होता है कि न तो राजकीय संस्थाओं के रवैये में, न सरकार के तौर तरीक़े में, न अदालत के रुख़ में, किसी में किसी तरह की कोई तब्दीली नहीं है। अरुंधती रॉय पर 14 साल पहले दिए गए वक्तव्य के कारण यू ए पी ए में मुक़दमा दायर करके सरकार यही बतला रही है कि अगर कोई यह सोचता है कि उसे अंतरराष्ट्रीय मत की परवाह है तो वह मूर्ख है। यह सरकार नागरिक अधिकारों को वैसे ही कुचलना जारी रखेगी जैसे पिछली सरकार कर रही थी। हिंदुत्ववादी भीड़ के साथ राजकीय संस्थाएँ भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ अपनी बुलडोज़र की हिंसा जारी रखेंगी। अपने विरोधियों को भाजपा देशद्रोही कहना जारी रखेगी।

जनता ने कम सीटें दीं, इससे नरेंद्र मोदी और भाजपा के नेता कोई आत्मनिरीक्षण करेंगे, इसका कोई संकेत नहीं है। मीडिया के एक हिस्से का रुख़ देखकर लग रहा है कि वही चुनाव हार गया है। वह तर्क दे रहा है कि विपक्ष ने जनता को ध्रुव राठी और रवीश कुमार जैसे पत्रकारों के सहारे गुमराह कर दिया। 

इससे जो बात ज़ाहिर होती है वह यह कि एक फ़ासिस्ट को अगर आप कम बहुमत से भी सरकार बनाने का रास्ता खुला रखेंगे तो भी वह फासिस्ट ही रहेगा। कुछ भलेमानस बहुत पहले से कह रहे थे कि वे तो बस इतना चाहते हैं कि न फासिस्ट को पूर्ण बहुमत मिले और न फ़ासिस्ट के विरोधियों को पूर्ण बहुमत मिले। ऐसी कामना करते वक्त उन्होंने यह न समझा कि पिछले 10 सालों में राजकीय तंत्र का और हिंदू जनता के एक हिस्से का भी फ़ासिस्टीकरण हुआ है। पूर्ण बहुमत न मिलने पर भी फ़ासिस्ट अपने सहयोगियों के साथ, जो अब तंत्र में घुसकर जम गए हैं, फिर से तंत्र पर क़ब्ज़ा कर लेगा, यह कोई भी जानता है। फासिज्म का विरोध करनेवालों को अगर हम पूरी ताक़त नहीं देंगे तो वापस फासिज्म के क़ब्ज़े में जाने को अभिशप्त होंगे।

अभी यही होता दीख रहा है। क्या इसका विरोध जनता और उसके साथ मिलकर विपक्षी दल संसद और सड़क पर कर पाएँगे? अगले कुछ हफ़्ते इसका जवाब देंगे।

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