आरएसएस राहुल गांधी की मान्यता के लिए इतना बेकरार क्यों?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं को इसका काफ़ी मलाल है कि राहुल गाँधी उनसे नहीं मिलते। उनका कहना है कि वे किस मुहब्बत की बात करते हैं जब हमसे गले नहीं मिलते। आर एस एस किसी से मुहब्बत चाहता है, यह सुनकर किसी का भी हँसते हँसते पेट फट सकता है। लेकिन...
आर एस एस से राहुल गाँधी नहीं मिलते, इस वाक्य का क्या मतलब है? क्या आर एस एस प्रमुख ने कभी राहुल गाँधी से मिलने की इच्छा जतलाई है? मिलने को समय माँगा? अगर प्रमुख नहीं तो किसी दूसरे पदाधिकारी ने? इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं कि राहुल गाँधी को ऐसा पत्र लिखा गया और उन्होंने उसका उत्तर नहीं दिया या मिलने से इनकार कर दिया।आर एस एस ने चूँकि यह नहीं बतलाया है,हम यही मान सकते हैं कि राहुल के मिलने न मिलने का सवाल तभी पैदा होता जब संघ की तरफ़ से कोई अनुरोध उन्हें जाता।
पिछले दो सालों में अलग अलग क़िस्म के लोगों को राहुल गाँधी से मिलते देखा है। ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान अनेक ऐसे लोग उनसे मिले जो उनके आलोचक या विरोधी रहे हैं। कई बुद्धिजीवी, व्यवसायी, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक कार्यकर्ता उनसे मिले और लंबी चर्चाएँ कीं। यह शिकायत हमने नहीं सुनी कि किसी ने राहुल गाँधी से मिलना चाहा हो और उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया हो। क्या इस यात्रा के दौरान आर एस एस के किसी पदाधिकारी ने उनसे मिलना चाहा? राहुल गाँधी ने तो कहा था कि जो भी भारत के जोड़ने यानी यहाँ के लोगों को आपस में जोड़ने में आयक़ीन करता है, यात्रा में आ सकता है। आर एस एस के पदाधिकारी दो कदम ही इसमें क्यों नहीं चले?
अगर आर एस एस ने अपनी तरफ़ से कोई पहल नहीं की फिर भी वह राहुल गाँधी के उससे न मिलने को लेकर दुखी है तो संभवतः आर एस एस यह कहना चाहता है कि राहुल गाँधी ने उससे मिलने की इच्छा क्यों नहीं जतलाई। वे क्यों झंडेवालान के उसके दफ़्तर या नागपुर के हेडगेवार भवन नहीं गए? या उन्होंने आर एस एस के प्रमुख या उसके किसी नेता से मिलने के लिए पत्र क्यों नहीं लिखा?
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आर एस एस शायद यह सोचने लगा है कि वह आज के भारत के लिए इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि किसी को अपना जीवन सुगम करने के लिए उसके दरबार में हाज़िरी लगाना अनिवार्य है। यह तो आज सब कहते हैं कि आपको उद्योग धंधा लगाना हो, कोई व्यवसाय करना हो आपके ऊपर आर एस एस का वरदहस्त आवश्यक है।
मुझे नाट्य संस्थाओं और सांस्कृतिक संस्थाओं के लोगों ने बतलाया है कि राजकीय अनुदान या सहायता के लिए उन्हें संस्कार भारती का अनुग्रह आवश्यक है। दिल्ली विश्वविद्यालय या किसी भी शिक्षा या शोध संस्थान में पद के लिए भी आर एस एस का आशीर्वाद ज़रूरी है। यह हर स्तर पर पद और प्रतिष्ठा के लिए ज़रूरी है। मुझसे मेरे विद्यार्थी बतलाते रहते हैं कि अध्यापक पद पर चयन के लिए इंटरव्यू के पहले आर एस एस के किसी प्रभावी व्यक्ति से मिलकर उसकी कृपा प्राप्त करना अनिवार्य अर्हता है। अकादमिक योग्यता अब अप्रासंगिक है। मैंने ख़ुद ऐसे बहुत से लोगों को देखा है जो आर एस एस से जुड़े नहीं थे लेकिन 2014 के बाद वे आर एस एस के विभिन्न संगठनों और पदाधिकारियों के चक्कर लगाते रहते हैं। उद्योगपति उसके दरवाज़े मत्था टेकते हैं।
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क्या भारत में राजनीति करने के लिए भी आर एस एस की अनुमति आवश्यक हो गई है? क्या वह सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की तरह भारत का पितृ संगठन बन गया है कि उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता नहीं खड़क सकता?
इन सवालों से परे हमें याद रखना ज़रूरी है कि आर एस एस की महत्त्वाकांक्षा एक ऐसे संगठन के रूप में स्वीकृति की है भारत के प्रत्येक समुदाय के लोग जिसकी छत्रछाया में रहने की याचना करें। इसलिए उसने ख़ुद को सांस्कृतिक संगठन के रूप में प्रचारित किया। संस्कृति जीवन के हर क्षेत्र से जुड़ी है इसलिए वह हर इलाक़े में नेतृत्वकारी भूमिका चाहता है।वास्तव में वह एक राजनीतिक संगठन है जिसका इरादा भारत पर क़ब्ज़े का है। राजनीतिक होते ही उसे प्रतियोगिता का सामना करना पड़ेगा। लेकिन वह ख़ुद को प्रतियोगिताओं से परे, सबके ऊपर दिखलाना चाहता है। इसलिए वह ख़ुद को ग़ैर राजनीतिक दिखलाना चाहता है।
वह सबकी स्वीकृति या मान्यता चाहता है। बल्कि यह कहना चाहता है कि हर किसी को उसकी तरफ़ से मान्यता मिलनी चाहिए जिससे उनकी वैधता सिद्ध हो। वह यह भी दिखलाना चाहता है कि वह सारे दलों, विचारधाराओं से ऊपर है और वह हर किसी से संवाद करना चाहता है। इसलिए अगर कोई उससे बात नहीं कर रहा, तो गलती उसकी है, आर एस एस की नहीं।
यह सब कुछ ज़रा विषयांतर मालूम पड़ सकता है। हम राहुल गाँधी में आर एस एस की दिलचस्पी और उनकी आर एस एस के प्रति उदासीनता के सवाल पर लौट आएँ। उसके पहले एक और बात कर लें।आर एस एस को याद होगा कि एक और शख़्स था जिसने आर एस एस के प्रमुख से मिलने से इनकार कर दिया था। उस व्यक्ति का नाम था जवाहरलाल नेहरू। यह वक्त था गोलवलकर के जेल से बाहर आने का। आर एस एस प्रमुख को गाँधी की हत्या के बाद जेल में डाला गया था। कुछ वक्त गुजरने के बाद जब जेल से आर एस एस के लोगों को धीरे धीरे छोड़ा जाने लगा तो संघ प्रमुख ने बेतरह कोशिश करना शुरू किया कि किसी भी तरह नेहरू और सरदार पटेल की कृपा उसे मिल जाए। आर एस एस पर पाबंदी लग गई थी। वह किसी भी तरह खुले में आना चाहता था। लेकिन नेहरू उसे लेकर बहुत सख़्त थे। मिलने की गोलवलकर की बारंबार याचना का उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। यह सब धीरेंद्र झा ने गोलवलकर की अपनी जीवनी में बतलाया है।
इस इनकार के पहले नेहरू एक बार गोलवलकर से मिलने को तैयार हुए थे 1947 में। गोलवलकर के अनुरोध पर हुई उनकी यह मुलाक़ात काफ़ी तनावपूर्ण रही। गोलवलकर ने नेहरू को समझाने का प्रयास किया कि आर एस एस जैसे संगठन की भारत को ज़रूरत है ताकि वह विश्व पर अपना असर डाल सके। नेहरू ने इस पर गोलवलकर को डाँट लगाई और कहा कि ऐसी ताक़त को कभी शैतानी नहीं होना चाहिए। फिर गोलवलकर ने यह सिद्ध करने के लिए देर तक तर्क किया कि सांप्रदायिक हिंसा में संघ की कोई भूमिका नहीं है।नेहरू यह झूठ सुनने के मूड में न थे।अपने अधिकारियों को इस बैठक के बारे में लिखते समय नेहरू ने गोलवलकर का नाम तक लेना ज़रूरी नहीं समझा। बाद में उन्होंने गोलवलकर के पत्रों का उत्तर देना भी ज़रूरी नहीं समझा।
यही इंदिरा गाँधी ने आपातकाल में किया। आर एस एस के तत्कालीन प्रमुख ने तब अपने ऊपर पाबंदी हटाने के लिए इंदिरा गाँधी को कई पत्र लिखे जो उनकी प्रशंसा करते हुए लिखे गए थे। इंदिरा ने उत्तर नहीं दिया। हालाँकि बाद में इंदिरा ने आर एस एस के साथ एक रणनीतिक रिश्ता बनाया। उनके पिता ने आर एस एस को किसी भी संवाद के योग्य नहीं पाया क्योंकि वे उसे एक असभ्य संगठन मानते थे। जो संगठन किसी समुदाय से घृणा और किसी समुदाय की श्रेष्ठता के विचार पर टिका हो, वह सभ्य कैसे हो सकता था? यह ऐसा संगठन था जो असत्य, अर्धसत्य और छल कपट में माहिर था। वह जो कहता था, करता उससे अलग था। फिर उस पर भरोसा कैसे किया जा सकता था।
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नेहरू से पहले गाँधी ने गोलवलकर का मिलने का अनुरोध माना था।गाँधी ऐसी शख़्सियत थे जो किसी से भी मिल सकते थे।यह 12 सितंबर,1947 का दिन था।उन्होंने गोलवलकर को कहा कि उन्हें मालूम हुआ है कि आर एस एस के हाथ खून में डूबे हुए हैं।
गोलवलकर ने इनकार किया। धीरेंद्र झा ने मणि बेन की डायरी के हवाले से बतलाया है गाँधी को चूँकि इसपर भरोसा था कि बुरे से बुरे लोगों में सुधार लाया जा सकता है, उन्होंने गोलवलकर और आर एस एस को मौक़ा देना मुनासिब समझा।उन्होंने आर एस एस प्रमुख से कहा कि आर एस एस के ऊपर लग रहे आरोपों से और हिंसक गतिविधियों से ख़ुद को अलग करते हुए संघ प्रमुख को बयान देना चाहिए। लेकिन गोलवलकर ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और गाँधी को कहा कि वे अपनी तरफ़ से यह बात कह सकते हैं। गाँधी ने गोलवलकर से हुई बात को इसी प्रकार प्रार्थना सभा में कहा। गोलवलकर की चतुराई साफ़ थी। हिंसा से ख़ुद अलग करते हुए और उसे ग़लत ठहराते हुए कोई सार्वजनिक बयान आर एस एस प्रमुख उस वक्त देता तो उसके कार्यकर्ताओं में भारी भ्रम फैलता क्योंकि उन्हें तो हिंसा के लिए संगठित किया जा रहा था।
नेहरू और गाँधी का समझौता विहीन रुख़ छोड़ दें तो ऐसे नेता भारत में थे जो संघ के निर्दोषिता के दावे पर या ख़ुद को बदलने के उसके वादे पर भरोसा करना चाहते थे। पटेल उनमें एक थे। नेहरू के देश से बाहर रहते हुए उन्होंने गोलवलकर की भेंट का अनुरोध मान लिया। इस मुलाक़ात के बारे में बाद में नेहरू को पटेल ने लिखा कि लगता है इन लोगों को अकल आ रही है।उन्होंने गोलवलकर को हिंसा और घृणा का रास्ता छोड़कर मानवता और सद्भाव की राह पर आने को कहा। संविधान के प्रति वफ़ादारी के लिए कहा। पटेल जब उसे अपना रास्ता बदलने को कह रहे थे तो इसका मतलब यही है न कि इसके पहले वे मानते थे कि आर एस एस ग़लत रास्ते पर था?
पाबंदी हटाने के लिए संघ ने ज़ुबानी तौर पर यह बात मान ली लेकिन पटेल की इस बात को उसने कभी नहीं माना कि भारत हिंदू राष्ट्र नहीं, धर्मनिरपेक्ष रहेगा। बाद में जयप्रकाश नारायण ने भी 1974 में आर एस एस के प्रति अपना आरंभिक कठोर रुख़ छोड़कर उसका साथ लिया। उनकी शर्त थी कि आर एस एस अपनी सांप्रदायिकता छोड़ दे। तत्कालीन संघ प्रमुख देवरस ने वादा किया कि यही होगा लेकिन 1977 में आर एस एस इस बात से मुकर गया। यानी आर एस एस ने हर उस व्यक्ति को धोखा दिया जिसने उसे मौक़ा दिया और उसके प्रति नरमी बरती। कल्पना कीजिए कि पटेल या नेहरू जनतांत्रिक न होते तो क्या गोलवलकर का जेल से बाहर आना और आर एस एस का संगठन के रूप में बचे रहना क्या संभव था? आख़िर पटेल तो लौह पुरुष थे!
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आर एस एस भुलाना चाहे लेकिन इतिहास में आर एस एस की इन वादा ख़िलाफ़ियों और उसके असत्य और छलपूर्ण आचरण की असंख्य मिसालें दर्ज हैं।
जब आर एस एस कहता है कि वह हर राजनीतिक दल से मिलता है तो उसका क्या मतलब? क्या यह सच नहीं कि वह भारतीय जनता पार्टी की जीत के लिए ही काम करता है? क्या यह सच नहीं कि आर एस एस और भाजपा में कोई अंतर नहीं है? क्या आर एस एस के लोग किसी भी दल के लिए काम कर सकते हैं? और क्या कोई भी दल आर एस एस को अपने लिए कमा करने देगा? नरेंद्र मोदी हो या लालकृष्ण आडवाणी या अटलबिहारी वाजपेयी, ये भाजपा के हैं या आर एस एस एस के? आर एस एस की इस बात का कोई मोल नहीं कि वह दलों में भेद नहीं करता। आज यह भी सच है कि आर एस एस का धन ऐश्वर्य भाजपा पर टिका है। उसकी यह औक़ात नहीं कि वह उसके लिए काम न करे? फिर बाक़ी दल उससे क्यों मिलें और मिलकर आख़िर क्या बात करें?
राहुल गाँधी कॉंग्रेस पार्टी के नेता है। आर एस एस कॉंग्रेस पार्टी को और उसकी धर्मनिरपेक्ष विरासत को नष्ट कर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है। क्या इसमें कोई संदेह है? कॉंग्रेस इस मामले में कितनी ही कमजोर क्यों न हो, हिंदुओं, मुसलमानों और सबको साथ एक बराबर दर्जे पर साथ रखने में विश्वास करती है और सबकी एकता की बात करती है।आर एस एस सिर्फ़ हिंदुओं की एकता की बात करता है, वह भी काल्पनिक शत्रुओं का भय दिखलाकर उनमें असुरक्षा भरते हुए। फिर राहुल और आर एस एस का संवाद क्या होगा?
राहुल गाँधी अगर संघ के नेताओं से मिलें भी तो शायद यही कहेंगे, जो गाँधी, पटेल और जयप्रकाश ने उन्हें बार बार कहा था कि घृणा, हिंसा और अलगाव का रास्ता छोड़कर वह इंसानियत की राह पर चले। क्या आर एस एस यह सुनने को तैयार है? अगर नहीं तो राहुल गाँधी को क्यों आर एस एस के किसी भी नेता से मिलना चाहिए? राहुल गाँधी को इतिहास पता है और कम से कम वे यह ज़रूर जानते हैं कि जवाहरलाल नेहरू ने क्यों आर एस एस प्रमुख का मिलने का प्रस्ताव ठुकराया और उसे भारत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बतलाया। राहुल गाँधी में नेहरू जैसा साहस है या नहीं, यह बहस का विषय है लेकिन कम से कम आर एस एस के बार में उन्हें उनके भीतर नेहरू जैसी स्पष्टता अवश्य है। आर एस एस को भी यह पता है इसलिए उसे छटपटाहट है कि किसी तरह वह इस क़िले को तोड़ ले। वह अभी होता नहीं दिख रहा।