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विवेक देबरॉयः फासिस्ट नीतियों का समर्थन करने वालों को आप किस तरह याद करेंगे

विवेक देबरॉयः फासिस्ट नीतियों का समर्थन करने वालों को आप किस तरह याद करेंगे

भारत में मरने के बाद उस नेता की आलोचना नहीं की जाती। सोचिए अगर हिटलर या मुसोलिनी भारत में मरे होते तो क्या होता। लेकिन हमारे संवाद का मुद्दा हिटलर या मुसोलिनी नहीं है। हमारा संवाद फ़ासिस्ट हुकूमत को चलाने में मुख्य भूमिका निभाने वाली शख्सियतों पर है।आखिर उनकी मृत्यु पर किस रूप में  शोक मनाया जाए? इसी सवाल को टटोल रहे हैं स्तंभकार और जाने-माने चिंतक अपूर्वानंद। जरूर पढ़िए और मुद्दों को परखिएः

किसी की मृत्यु के बाद उसे कैसे याद किया जाए? ख़ासकर वैसे व्यक्ति की मृत्यु के बाद जो ऐसी सरकार का ख़ास हो जो अपनी मुसलमान विरोधी नीतियों के कारण ही जानी जाती है। जो व्यक्ति एक फ़ासिस्ट हुकूमत को चलाने में मुख्य भूमिका निभा रहा हो उसकी मृत्यु पर किस रूप में  शोक मनाया जाए? जिसने अपनी बुद्धि एक फ़ासिस्ट नेता और पार्टी की सेवा को समर्पित कर दी हो उसके गुणों को कैसे खोजा जाए? 

भारतवर्ष में यह परंपरा रही है कि मरने वाले की बुराई नहीं करते। इसलिए ख़ुद को प्रथमतः स्वयंसेवक कहने वाले और भारत में मुसलमान विरोधी राजनीति को लोकप्रिय करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की मृत्यु पर भी उनके गुणों का बखान हर प्रकार के राजनेता ने किया था। लालकृष्ण आडवाणी शारीरिक तौर पर जीवित हैं लेकिन उनकी राजनीतिक मृत्यु तो हो ही चुकी है। जिस व्यक्ति ने भारत में मुसलमान विरोधी राजनीति को हिंदू धर्म का अंग बनाने में सबसे प्रमुख भूमिका निभाई और जो बाबरी मस्जिद ध्वंस अभियान का अगुवा था, उसके गुणों की तलाश करने वाले हमारे बीच मौजूद हैं। 

यह बात अलग है कि आडवाणी के ध्वंस अभियान के कारण हज़ारों मुसलमान मारे गए लेकिन क्या आप इसे भूल जाएँगे  कि वह फ़िल्मों का बेहद शौक़ीन नेता रहा? हम सबको सुषमा स्वराज की मृत्यु पर भी हर तरह के राजनीतिक दायरे में उन्हें दी गई श्रद्धांजलि याद है।स्वराज ने सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना पर अपना सर मुँड़ाने और नंगे फ़र्श पर सोने की जो धमकी दी थी, उसे उनकी मृत्यु के समय भुला दिया गया। उन्होंने कहा था कि अगर सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री बनीं तो इव आजीवन हिंदू विधवा का जीवन व्यतीत करेंगी। ‘विदेशी’ के प्रति घृणा जिसकी राजनीति का आधार हो, हम उसे भी कतिपय कारणों से प्रशंसनीय मान ही लेते हैं।  

घृणा के प्रति हमारी यह सहनशीलता क्या हमारा राष्ट्रीय चरित्र है?


इस टिप्पणी का प्रसंग नरेंद्र मोदी सरकार की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय के निधन पर व्यक्त की गई सार्वजनिक प्रतिक्रिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें श्रद्धांजलि दी, यह स्वाभाविक था क्योंकि वे मोदी सरकार  के आर्थिक सलाहकार मण्डल के प्रमुख थे। लेकिन कांग्रेस पार्टी के नेता जयराम रमेश ने उनकी बहुमुखी प्रतिभा और हास्यप्रियता के कारण उन्हें याद किया। जयराम रमेश ने बतलाया है कि वे जटिल से जटिल विषय पर अत्यंत प्रांजल भाषा में लिख सकते थे। वे भारी लिक्खाड़ थे। कठिन आर्थिक मसलों को भी वे आसानी से समझा सकते थे। 

हमारे मित्र प्रताप भानु मेहता ने भी उनके व्यक्तित्व के आध्यात्मिक पक्ष का स्मरण किया है। देबरॉय ने महाभारत और पुराणों का अनुवाद किया। वे संस्कृत के भारी विद्वान थे और उन्होंने गीता का भी अनुवाद और भाष्य किया था। प्रताप ने लिखा कि उनकी राजनीतिक संबद्धता के कारण रहस्यमय बने रहे लेकिन उनमें यह कला थी कि वे ख़ुद को विवादों और विभाजनों से ऊपर रख सकते थे।

योगेंद्र यादव ने इन दोनों को पढ़ने के बाद लिखा कि इन्हें पढ़कर उनके मन में देबरॉय के प्रति इज्जत पैदा हुई। जयराम रमेश की श्रद्धांजलि की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा कि यह तरीक़ा है सम्मान व्यक्त करने का उसके प्रति जो राजनीतिक तौर पर आपके विरोध में चला गया हो। लेकिन क्या आज की भाजपा सरकार के साथ जाना मात्र एक दूसरे राजनीतिक पक्ष में जाना है? क्या जनसंहार की राजनीति की तरफ़ जाना मात्र राजनीतिक मतभेद है और एक जायज़ राजनीतिक पक्ष का चुनाव है? 

विवाद और विभाजन आज क्या है? सांप्रदायिकता से आप ख़ुद को कैसे ऊपर रख सकते हैं? उस पर कुछ न बोलकर कर? क्या इसे बौद्धिक संयम कहते हैं?

देबरॉय ने 2017 में नरेंद्र मोदी सरकार की आर्थिक सलाहकार समिति का अध्यक्ष होना तय किया। बल्कि उसके भी पहले से वे सरकार से अलग-अलग रूप में जुड़े रहे थे। कहा जा सकता है कि सरकार की आर्थिक नीतियों के लिए वे ज़िम्मेवार थे। अगर जयराम रमेश प्रशंसापूर्वक कह रहे हैं कि वे कठिन से कठिन आर्थिक मसलों को आसानी से समझा सकते थे तो नोटबंदी, जी एस टी, आदि की उन्होंने कैसे सरल व्याख्या की  या उनकी पैरवी कैसे की? ऐसी आर्थिक नीतियाँ जिनसे भारत का व्यापक साधारण समाज तबाह हो गया?  मुख्य आर्थिक सलाहकार को क्या उनकी हाय नहीं लगनी चाहिए? या उनकी राय का कोई मतलब नहीं था फिर भी वे मुख्य आर्थिक सलाहकार बने रहे? जिन नीतियों के ख़िलाफ़ ख़ुद जयराम और उनकी पार्टी बोलती रही है, उन नीतियों के लिए देबरॉय  मज़बूत तर्क दे सकते थे, इसलिए जयराम उनकी तारीफ़ कर रहे हैं? 

महाभारत, पुराणों का अवगाहन करनेवाला पाप और पुण्य के प्रश्नों से रोज़ाना जूझता रहा होगा। अपने वक्त में पाप को पहचानना और उसके प्रति अपना रुख़ तय करना ही कर्तव्य है। जो पाप और पुण्य से ऊपर उठ जाए उसे किस प्रकार की आत्मा कहा जाएगा?

  • आज भारत में सबसे बड़ा पाप क्या है? क्या महाभारत पढ़ने, उसके साथ जीवन व्यतीत करने के बाद भी उसकी पहचान करना इतना कठिन है?

तो क्या इस बात के चलते देबरॉय की निंदा होनी चाहिए कि वे सरकारी समितियों के हिस्सा रहे? हमें मालूम है कि बाक़ी सरकारी मुलाजिमों से अलग भूमिका और रुतबा देबरॉय का था।वे एक तरह से नीति निर्माता थे। क्या नीति लागू करने की बाध्यता की दलील उनके पक्ष में दी जा सकती है? 

देबरॉय की मौत पर सार्वजनिक अफ़सोस  इसलिए किया जा रहा है कि एक बौद्धिक क्षमता से युक्त एक व्यक्ति चला गया। उसके साथ वह प्रतिभा जो उसने अर्जित की थी चली गई।लेकिन बौद्धिक होने का प्रमाण क्या है? बुद्धिजीवी होने का कर्तव्य क्या वह व्यक्ति निभा पाया? 

बुद्धिजीवी से उम्मीद की जाती है कि वह अपने समय के मुख्य प्रश्न की पहचान कर पाएगा। आज के भारत का मुख्य प्रश्न क्या है? वह है मुसलमानों और ईसाइयों का चौतरफ़ा दमन, साधारण जनता का आर्थिक शोषण और नागरिक अधिकारों का अपहरण। भारत में एक बहुसंख्यकवादी तानाशाही जनतंत्र के पर्दे के पीछे राज कर रही है। इस पर आपकी कोई राय है या नहीं इससे तय होगा कि आप किस क़िस्म के बुद्धिजीवी हैं या बुद्धिजीवी हैं ही या नहीं। महाभारत, पुराण के अनुवाद, रोज़ाना लिमरिक लिखते रहने से आपके व्यक्तित्व की गुणवत्ता तय नहीं होती, आपके बुद्धि कौशल का पता ज़रूर चलता है।

जब आपके चारों तरफ़ मुसलमानों की हत्या की जा रही हो, उन्हें अपमानित किया जा रहा हो, और  सरकार ही  इस घृणा और हिंसा का प्रचार कर रही हो और इनके लिए नीतियाँ बना रही हो तब उन सबसे अविचलित होकर आध्यात्मिक प्रश्नों में लीन रहने के लिए ख़ासी अमानवीयता चाहिए। 

देबरॉय ने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल एक बहुसंख्यकवादी तानाशाही को वैधता देने के लिए किया, क्या यह कहना उनके प्रति अन्याय है? क्या यह नहीं कहा जा सकता कि वे स्वयं एक जटिल व्यक्ति थे? ऐसा व्यक्ति जो एक साथ एक घृणा प्रचारक और हिंसा के सूत्रधार की सेवा कर सकता था और गहरे आध्यात्मिक प्रश्नों से भी जूझ सकता था?


  • यह ठीक है कि हम सबमें शायद ही कोई दावा कर सकता है कि वह सर्वथा निर्दोष रहा हो। लेकिन अपने समय के सबसे बड़े अन्याय को न पहचान पाना या उस अन्याय के प्रति कोई रुख़ लेने से इनकार कर देना एक बड़ी नैतिक उदासीनता है। या नैतिक खोखलापन है। कुछ लोग इसे उदासीनता या खोखलापन  नहीं, नैतिक अपराध कहेंगे। इस अन्याय की  पहचान करना और उसके बारे में समाज को जागरूक करना बुद्धिजीवी का दायित्व है।

प्रताप ने बतलाया है कि सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च ने देबरॉय को काम दिया। वहाँ रहते हुए महाभारत के अनुवाद की छूट दी। उस सी पी आर का गला जब सरकार घोंट रही थी तब देबरॉय ने क्या किया? अपनी हैसियत का इस्तेमाल उसे बचाने के लिए किया या नहीं? कोई हस्तक्षेप? या उस छोटी सी संस्था को बचाने के लिए उन्होंने आगे बढ़कर कुछ करना मुनासिब नहीं समझा क्योंकि सी पी आर का मरना ऐसी सरकार के लिए  ज़रूरी हो गया था जो हिंदू राष्ट्र स्थापित करने के महान कार्य में लगी थी? उस रास्ते सी पी आर की बलि दी जा सकती थी! 

देबरॉय  के जीवन के आख़िरी कार्यों में एक था गोखले इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉलिटक्स एंड इकोनॉमिक्स के चांसलर पद से इस्तीफ़ा देना। यह इस्तीफ़ा उन्होंने दिया क्योंकि बंबई उच्च न्यायालय ने उनके उस फ़ैसले पर रोक लगा दी थी जिसके तहत उन्होंने संस्थान के कुलपति अजीत रानाडे को बर्खास्त कर दिया था। उन्होंने क्यों रानाडे को बर्खास्त किया? इसलिए कि वे 10 साल से प्रोफ़ेसर नहीं थे? या इसलिए कि रानाडे  सरकार के आलोचक थे? 

इस्तीफ़ा देते समय देबरॉय ने  विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को लिखा कि संस्थान का स्तर इतना गिर चुका है कि उससे डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा वापस ले लेना चाहिए। संस्थान के लोगों ने कहा कि अपनी नाराज़गी में देबरॉय को संस्थान को बदनाम नहीं करना चाहिए था। इस घटना से यह भी मालूम होता है कि देबरॉय  में बड़प्पन की भी कमी थी।

मृत्यु हमें ख़ामोश करती है।वह उदारता भी देती है। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय किसी व्यक्ति की मृत्यु पर समाज के सबसे दमित तबके की प्रतिक्रिया से उसके जीवन के मूल्य का पता चलता है।आज के भारत में सबसे दमित तबका मुसलमानों का है। क्या वह देबरॉय का अभाव महसूस करेगा? और कैसे?

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