आनंद तेलतुमडे फिर से आज़ाद हैं। पुणे की अदालत ने उन्हें पुलिस की गिरफ़्त से इसलिए आज़ाद किया कि उच्चतम न्यायालय ने उन्हें चार हफ़्ते की मोहलत दी थी कि वह उपयुक्त अदालतों में अपनी ज़मानत की अर्ज़ी दे सकें। उन्होंने पुणे की अदालत में ज़मानत का आवेदन किया जो नामंज़ूर कर दिया गया। लेकिन क़ानूनन उनके पास उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय तक जाने का हक़ है। इस बीच ही उन्हें रात के तीन बजे हवाई अड्डे पर गिरफ़्तार करने की जो जल्दबाज़ी पुलिस ने दिखाई, उसके मायने समझना हम सबके लिए ज़रूरी है। वह यह है कि हम ऐसे वक़्त में हैं जिसमें राज्य की सारी एजेंसियाँ नागरिक को उसके अधिकारों से ही वंचित करने के लिए नहीं बल्कि उनका उपयोग करने के मौक़े भी उनसे छीन लेने को आमादा है।
आनंद अध्यापक हैं और लेखक भी। उनपर राज्य के इस हमले का रिश्ता क्या उनके अकादमिक व्यक्तित्व से है? या, यह उनका अतिरिक्त कार्य है जो उनकी अकादमिकता के दायरे से बाहर है, भले ही इसे उनका नागरिक पक्ष क्यों न कहें? लेकिन हमें यह समझना भी ज़रूरी है कि आनंद निशाना ही इसलिए बनाए गए हैं कि वे अपने अध्ययन और शोध के बल पर वह बोल और लिख पा रहे हैं जो हम और आप उसके अभाव में नहीं बोल, लिख सकते। कम से कम उस अधिकार के साथ नहीं।
आनंद तेलतुमडे की बात में वजन है और उस पर यक़ीन करने का आधार कहीं अधिक पुख़्ता है। इसलिए आनंद या उन जैसे लोगों की आवाज़ राज्य या किसी सत्ता के लिए अधिक ख़तरनाक हो जाती है।
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यह बात आधुनिक वक़्त के पहले भी उतनी ही सच थी। वरना, सुकरात, कबीर, बसवन्ना, सरमद और जाफ़र जट्टल्ली से हुकूमतों को डर न लगता और वे उन्हें तबाह न करतीं। यह बात लोग हमेशा से समझते हैं कि लंबे अभ्यास और साधना से ज्ञान की प्राप्ति होती है। यह अवसर उन्हें ख़ुद नहीं मिला है इसलिए वे इन कवियों, दरवेशों और संतों की वाणी में विश्वास करते हैं। लेकिन यही कारण है कि सत्ता उन्हें जनता से दूर रखना चाहती है। इतना ही नहीं, वह उन्हें उनके अभ्यास और साधना के अवसर से भी वंचित करना चाहती है।
विचार की आज़ादी जनतंत्र की बुनियाद
पूछा जा सकता है कि अगर आपमें विचार का साहस है तो उसके लिए क़ीमत चुकाने को भी आपको तैयार रहना चाहिए। फिर आनंद, या उनकी तरह के लोग गिरफ़्तारी से बचना क्यों चाहते हैं और क्यों हम उनकी स्वतंत्रता के लिए गुहार लगाते हैं? वह इसलिए कि आधुनिक समय जनतंत्र का है जिसकी बुनियाद विचार की आज़ादी है। लेकिन विचार करना इतना आसान नहीं है। एक अकेला व्यक्ति हर विषय पर इसलिए सम्यक विचार नहीं कर सकता जब तक उसके उससे जुड़ी सारी जानकारी आधिकारिक तरीक़े से न हो और उसके सारे पक्ष भी उसके सामने स्पष्ट न हों।
- जानकारी का एक स्रोत सत्ता है। जनता आम तौर पर उसपर विश्वास कर लेती है। लेकिन सत्ता का स्वभाव हमेशा नियंत्रण का होता है। इसलिए उसकी जानकारी की जाँच करते रहना आवश्यक है ताकि लोग अपने निर्णय ठीक-ठीक कर सकें। यह काम शिक्षा संस्थान, शोधार्थी और अख़बार करते रहे हैं।
विश्वविद्यालय का काम क्या है?
अध्यापक का एक काम सत्ता के द्वारा दी गई जानकारी की जाँच करने का है। बजट में सरकार के दावे या अपने किसी क़दम की उसकी वकालत की पड़ताल करना विश्वविद्यालय का काम है। उनके सहारे सामान्य जनता सत्ता की आलोचना करने का आधार और विश्वास पा सकती है।
इसलिए प्रायः सरकारें कहा करती हैं कि विश्वविद्यालय का काम आर्थिक गतिविधियों के लायक और आदर्श नागरिक बनाने का है। शायद ही कोई सरकार यह कहती हो कि विश्वविद्यालय का काम सोचनेवाले इंसान बनाने का है। वे ऐसे अध्यापक चाहती हैं जो पाठ्यक्रम पूरा करने तक ख़ुद को सीमित रखे और जनता से बात न करे। ऐसे अध्यापक वैसे भी संख्या में काम होते हैं और उन्हें अलग किया जाना आसान होता है।
विश्वविद्यालय के विचार में ही यह शामिल है कि अध्यापक अपने शोध और अध्ययन का लाभ समाज को देगा। अगर उसे लगे कि सच छिपाया जाता रहा है, उसका फ़र्ज़ है कि वह सच को लोगों के सामने उजागर करे।
हमारी आज़ादी के लिए यह ज़रूरी
इसलिए ऐसे लोगों का आज़ाद रहना हमारी आज़ादी के लिए अनिवार्य है। आनंद सिर्फ़ सोचने का एक जटिल तरीक़ा प्रस्तावित करते रहे हैं। वह दलित होने की मुश्किल और दलित विचारक होने से जुड़े सारे जोख़िम को पहचानते हैं। इसलिए उनकी बात ग़ैर-दलितों को भी प्रभावित कर सकती है। यही बात रोहित वेमुला जैसे लोगों के बारे में भी ठीक है। इसलिए वे कहीं अधिक ख़तरनाक हैं।
आनंद की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न नहीं है, प्रश्न जनतंत्र के चलने के लिए अनिवार्य स्थितियों के बने रहने का है।
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