अन्ना सेबेस्टियन पेरेयिल की मौत ने जीने के लिए अवकाश की अनिवार्यता के सवाल को राजनीतिक प्रश्न में बदल दिया है।
मशहूर चार्टर्ड अकाउंटेंट फर्म अर्नस्ट एंड यंग (EY) की पुणे शाखा में काम कर रही 26 साल की अन्ना सेबेस्टियन की मौत को सामान्य मौत मान लिया जाता अगर उसकी माँ अनीता सेबेस्टियन ने इसे सामान्य मौत मानने से इनकार न किया होता। उन्होंने अपनी बेटी की मौत के लिए अर्नस्ट एंड यंग को ज़िम्मेवार ठहराया है। उन्होंने इल्ज़ाम लगाया कि फर्म ने उनकी बेटी पर काम का जो बोझा डाला उससे दबकर उसकी मौत हो गई। “ वह देर रात तक तक काम करती रहती थी, यहाँ तक कि सप्ताहांत में भी, और उसे साँस लेने की फुर्सत भी न थी।” अनीता ने लिखा कि “अन्ना अपने मैनेजरों को कभी दोष नहीं देती क्योंकि वह बहुत दयालु थी। लेकिन वे चुप नहीं रह सकतीं। नए लोगों पर ऐसा कमरतोड़ काम का बोझा डालना, उन्हें दिन रात, यह तक कि इतवार को भी काम करने को मजबूर करना किसी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। नए कर्मचारी के प्रति थोड़ा संवेदनशील होना ज़रूरी था। इसके उलट प्रबंधन ने उसके नए होने का फ़ायदा उठाया…।”
आगे अन्ना की माँ ने जो लिखा वह कोई 175 साल पहले कार्ल मार्क्स लिख गए थे। अनीता लिखती हैं, “अन्ना के तजुर्बे से उस कार्य संस्कृति पर रौशनी पड़ती है जो अविराम काम को गौरवान्वित करता है लेकिन उस इंसान को नज़रअंदाज़ करता है जो वह काम करता है।” अन्ना ने अर्नस्ट एंड यंग की कार्य संस्कृति को बदलने की अपील की। वह ऐसा माहौल होना चाहिए जहाँ कर्मचारी बोलने में डरें नहीं और जहाँ उत्पादकता के लिए उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बलि न चढ़ा दिया जाए।”
अनीता ने लिखा कि उनकी बेटी ज़िंदगी और सपनों से भरपूर थी।उन्हें नहीं मालूम कि क्या कोई वाक़ई समझ भी पाएगा कि एक माँ अपनी उस बच्ची को ख़ाक के सुपुर्द करते वक्त क्या महसूस करती है जिसे उसने अपनी बाँहों में खेलाया है, जिसे बढ़ते, रोते देखा है और जिसके सपनों को साझा किया है जबतक कि वह ख़ुद ही उस दर्द को उसी तरह महसूस न करे।
अनीता ने इस बात पर भी अफ़सोस और रंज ज़ाहिर किया कि अन्ना की मौत के बाद उसकी कंपनी ने कोई संवेदना व्यक्त नहीं की, यहाँ तक कि उसके दफ़्न के वक्त भी कंपनी की तरफ़ से कोई नहीं आया।
अनीता सेबेस्टियन के पत्र ने सरकारों और राजनेताओं को विचलित किया है।केरल की सरकार ने पत्र पर ध्यान दिया है। उसके मंत्रियों ने इस कार्य संस्कृति की आलोचना की है जो श्रमिकों को चूस लेना चाहती है। संघीय सरकार के श्रम विभाग, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी अपनी तरफ़ से कंपनी से सवाल किए हैं। कंपनी ने यह मानने से इनकार किया है कि उसकी कार्य संस्कृति अन्ना की मौत के लिए ज़िम्मेवार है। उसके मुताबिक़ वह अत्यंत मानवीय है और कर्मचारियों की मानसिक और शारीरिक सेहत का ध्यान रखती है।
संघीय सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का बयान उनकी सरकार से भिन्न है। उन्होंने अन्ना का नाम लेने की ज़हमत भी मोल नहीं ली।एक कॉलेज में उन्होंने कहा कि कुछ समय से एक घटना का ज़िक्र चल रहा है।विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि परिवारों और शिक्षण संस्थाओं को विद्यार्थियों को तनाव का प्रबंधन करने की शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें आध्यात्मिक तत्वों को शिक्षा में शामिल करना चाहिए। वे अन्ना की मौत के लिए एक तरह से उसी को दोषी ठहरा रही थीं। वह क्यों नहीं ज़रूरत से ज़्यादा श्रम झेलने के लिए ख़ुद को तैयार कर पाई? क्यों वह इस तनाव से टूट गई?
सीतारमण की इस बेरहम बेहिसी को छोड़ भी दिन तो हम जानते हैं कि अन्ना की माँ अगर यह ख़त नहीं लिखतीं तो अन्ना की मौत और उसकी ज़िंदगी वैसे ही गुमनाम रह जाती जैसे लाखों, करोड़ों श्रमजीवियों की ज़िंदगियाँ रह जाती रही हैं जो पूँजीवादी श्रम के कुँए में डूब जाती हैं और कोई आवाज़ भी नहीं होती।
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पूँजीवादी श्रम जीवन देने का भ्रम पैदा करता है लेकिन वह वास्तव में श्रमिक की जान ले लेता है।
अनीता के ख़त के बाद सोशल मीडिया पर ढेर सारे लोगों ने अपनी अपनी कंपनियों की अमानवीय श्रम संस्कृति के बारे में खुल कर लिखा है। एक महिला ने लिखा है कि जब वह गर्भवती थी तब किस प्रकार कंपनी ने उसके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया। उसे काम से निकाल दिया गया, फौरन उसका कंप्यूटर ले लिया गया और उससे उसकी सारी चीज़ें तुरत बिना उसे मौक़ा दिए मिटा दीं। यह कंपनी का उस कर्मचारी के साथ बर्ताव था जिसने उसे मुनाफ़ा कमाने और उसकी पूँजी बढ़ाने के लिए अपनी ज़िंदगी के कई साल सर्फ़ किए थे। दूसरे बहुत से लोगों ने भी अपने ऐसे ही अनुभव बतलाए हैं। हर कंपनी कह सकती है कि कर्मचारी की मेहनत का मुआवज़ा तो दिया ही जाता है। लेकिन जैसा मार्क्स ने लिखा है और उसे अब तक पूँजीपति नकार नहीं पाए हैं कि श्रमिक के श्रम की असली क़ीमत का बड़ा हिस्सा पूँजी हड़प कर जाती है और इस तरह मोटी ताजी होती जाती है। यह कहना कि पूँजी मानवीय होती है अपने आप में मज़ाक़ है। वह आपके वक्त की एक एक बूँद सोंख लेना चाहती है और उसकी हर जुगत लगाती है।
यह बात पहले लुभावनी लगती है कि अगर आप सुबह सुबह दफ़्तर आ जाएँ तो वह आपको नाश्ता और कॉफी देगा लेकिन उसकी क़ीमत उस समय के मुक़ाबले कुछ नहीं जो वह दफ़्तर आप से ले रहा है। आप ख़ुशी ख़ुशी वह समय उसके हवाले करते जाते हैं और इस तरह अपना आपा भी।
अन्ना अभी पूँजी और श्रम की दुनिया में आई ही थी। उसने ख़ुद को उसमें खपा दिया। अन्ना की माँ अनीता के ख़त से ज़ाहिर है कि यह कोई आनंददायी श्रम न था। क्या श्रम आनंददायी भी हो सकता है? इस प्रश्न पर लंबे वक्त से विचार किया जाता रहा है। यह मात्र मार्क्स का मानना नहीं है कि श्रम का लक्ष्य तय करने में जब तक श्रमिक की कोई भूमिका न हो, वह उसके लिए पराया रहता है। श्रम का परिणाम श्रमिक का शत्रु बन कर उसके सामने खड़ा हो जाता है।
मेरी मेहनत से मेरा क्या बना, यह सवाल सिर्फ़ घीसू माधव ही नहीं करते। वे उस मेहनत से देह चुराते हैं, ऐसा दूसरे कहते हैं। लेकिन कहानीकार की यह टिप्पणी श्रम के महिमागान से इनकार करती है: “जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुक़ाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज़्यादा संपन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज़्यादा विचारवान था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाज़ों की कुत्सित मंडली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाज़ों के नियम और नीति का पालन करता।”
मेरा श्रम मुझे नहीं, श्रम लेनेवाले को समृद्ध करता है, यह अनपढ़ घीसू समझता था। इसलिए वह अधिक विचारवान था। प्रेमचंद यह कोई व्यंग्य में नहीं लिख रहे थे। मार्क्स ने यह बात लिखी इसलिए उन्हें सभ्य समाज का खलनायक बना दिया गया।
अन्ना की मौत के बाद काम के घंटों की बात फिर से उठी है। लोग कह रहे हैं कि उनसे 12, 14 घंटे काम लिया जाता है। श्रम के आधुनिकीकरण के दौर में मोबाइल फ़ोन और ईमेल के कारण आप 24 घंटे अपने मालिक की गिरफ़्त और निगरानी में रहते हैं। फ़ोन न उठाने, ह्वाट्सऐप न देखने की क़ीमत चुकानी पड़ती है। कोई 200 साल पहले कामगारों ने आंदोलन करके या पूँजीवाद के नियम से विद्रोह करके उसे काम के घंटे सीमित करने को मजबूर किया था। लेकिन 200 साल बाद चालाकी और धोखाधड़ी से इन घंटों को 12 से 20 तक किया गया है। पूँजीपति श्रम क़ानूनों में ‘सुधार’ की माँग कर रहे हैं जिससे उन्हें छूट मिल जाए कि वे कामगारों से जितना और जिस कदर चाहें, काम ले सकें। हम अभी उनकी बात नहीं कर रहे जो एक से अधिक जगह, कई पालियों में काम करते हैं जिससे उनका गुज़ारा चल सके।
कुछ वक्त पहले भारत के आदर्श पुरुष एन आर नारायणमूर्ति ने हिंदुस्तान के नौजवानों में बढ़ती काहिली की शिकायत की थी। उन्होंने काम के घंटे बढ़ाने की माँग की थी। राष्ट्र की उत्पादकता बढ़ाने के लिए उन्होंने नौजवानों से हफ़्ते में 70 घंटे काम की माँग की थी। उस पर उस वक्त एक उबाल उठा था लेकिन जल्दी ही वह झाग की तरह बैठ गया।
कॉरपोरेट दुनिया बिना किसी औपचारिक घोषणा के कैसे काम के घंटे की सीमा बढ़ाती जाती है उसकी एक सूचना अन्ना सेबेस्टियन की मौत से मिली। काम के घंटे इस कदर उस पर लादे गए कि वह उनमें दफ़न हो गई।
अन्ना की माँ अनीता की गुहार पूँजीपतियों से है या कारपोरेट दुनिया से कि वे उस काम के पीछे के इंसान की भी सुध ले। वह काम उस इंसान को तोड़ रहा है, बना नहीं रहा! लेकिन क्या पूँजी के पास इंसानी कान हैं भी? उसके पास न हों लेकिन क्या अन्ना की माँ अनीता का ख़त भी मात्र अखबारी खबर बन कर रह जाएगा?