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परशुराम जयंती के कार्यक्रम विश्वविद्यालयों में क्यों?

परशुराम जयंती के कार्यक्रम विश्वविद्यालयों में क्यों?

क्या विश्वविद्यालयों में परशुराम जयंती जैसे कार्यक्रम होने चाहिए? कई लोग तर्क देते हैं कि अगर दलित अस्मिता की अभिव्यक्ति की जा सकती है और वैध है तो ब्राह्मण अस्मिता की क्यों नहीं? 

मालूम हुआ कि परशुराम जयंती के अवसर पर ऋषि ऋण चुकता करके भारतीय संस्कृति और सभ्यता को समृद्ध करने के लिए घोषित कार्यक्रम को दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रशासन ने रद्द कर दिया। ऐसा नहीं है कि यह प्रशासन ने ख़ुद किया हो। इस कार्यक्रम का विरोध कुछ वामपंथी और दलित छात्र संगठनों ने किया था जिसके नतीजे में कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। लेकिन उस दिन परशुराम की जय जयकार करते हुए एक बड़ा जुलूस परिसर में निकाला गया। परिसर की दीवारें परशुराम जयंती के पोस्टरों से अटी पड़ी थीं।

पिछले कुछ वर्षों में ब्राह्मण श्रेष्ठता बोध के प्रदर्शन में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। परशुराम जयंती के कार्यक्रम जगह-जगह होने लगे हैं। ब्राह्मण अस्मिता की अभिव्यक्तियाँ तरह-तरह से की जाने लगी हैं। गाड़ियों पर ब्राह्मण होने की घोषणा करते स्टिकर दिखलाई पड़ने लगे हैं।

जो अब तक सड़क पर हो रहा था, वह अब विश्वविद्यालय में होता दीख रहा है। लेकिन इसे स्वाभाविक कहकर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह नहीं कि ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का यह विचार जो ख़ुद को ब्राह्मण कहते हैं, उनमें कोई इधर 10 सालों की पैदाइश है। लेकिन इसे बिना संकोच के अब व्यक्त किया जा सकता है, यह ज़रूर नई बात है और इसका रिश्ता हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार के साथ निश्चित ही है।

यह स्वाभाविक है इसलिए उचित भी है, कहना ग़लत होगा। कई लोग तर्क देते हैं कि अगर दलित अस्मिता  की अभिव्यक्ति की जा सकती है और वैध है तो ब्राह्मण अस्मिता की क्यों नहीं? आख़िर दोनों जाति से ही संबंधित ही तो हैं! अगर एक जाति समूह अपने बारे में बात कर सकता है तो दूसरा क्यों नहीं?

कहने की ज़रूरत नहीं कि उचित अनुचित का विचार इससे जुड़ा हुआ है कि ब्राह्मण अस्मिता किन मूल्यों की वाहक है और दलित अस्मिता किन मूल्यों की। उससे भी पहले इस पर भी विचार करना होगा कि दोनों में किस तरह का रिश्ता है। ब्राह्मण श्रेष्ठता बिना अन्य जाति समूहों की हीनता के संभव नहीं। ब्राह्मण अस्मिता मात्र श्रेष्ठता का नहीं, अलगाव और दर्ज़ाबंदी के विचार से नाभिनालबद्ध है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि ब्राह्मण ही जाति व्यवस्था के बने रहने के लिए जिम्मेदार हैं।

इस बात को किसी धार्मिक ग्रन्थ से अधिक हमारे साहित्य के माध्यम से समझा जा सकता है। अगर हम प्रेमचंद को आदरणीय मानते हैं तो उनके प्रसिद्ध पात्र या चरित्र पंडित मोटेराम शास्त्री को आप कैसे भूल सकते हैं? और 'सद्गति' कहानी में दुखी की नियति क्या पंडितजी की क्रूरता से नहीं जुड़ी है? या अगर ब्राह्मण से ही ब्राह्मण की कथा सुननी है तो पांडेय बेचन शर्मा उग्र की आत्मकथा ही क्यों न देख लें? या निराला की कविताएँ और उनकी कहानियाँ? 

ब्राह्मण अस्मिता आख़िरकार ऊँच नीच के विचार से बनती है, भेदभाव के विचार के बिना उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। शुद्धता और दूषण के विचार के बिना भी उसकी बात करना संभव नहीं। ब्राह्मण अपने लिए ब्राह्मण होने के कारण ही विशेषाधिकार की अपेक्षा करते हैं। 

यह सब कुछ समानता के विचार के ख़िलाफ़ है। यह बंधुत्व को असंभव कर देता है। चूँकि अलगाव इसके मूल में है, यह कभी भी जनता को एक जनता नहीं बनने दे सकता। और आजकल जो विचार सबके ऊपर रखा जाता है, यानी राष्ट्र का, वह भी ब्राह्मण श्रेष्ठता के कारण कभी नहीं बन सकता या सबका नहीं हो सकता।

दिल्ली विश्वविद्यालय में ऋषि ऋण को चुकता करके भारतीय संस्कृति की रक्षा का जो कार्यक्रम प्रस्तावित था, उसके पोस्टर से साफ़ था कि इसके पीछे ब्राह्मण श्रेष्ठता के अलावा पुरुष प्रभुत्व का विचार भी था। पोस्टर में कहीं महिला, स्त्री नहीं थी। सारे ऋषि पुरुष ही थे।

ऋषि किनके हैं? क्या वे सबके हैं? फिर उनका ऋण क्या मात्र ब्राह्मणों को चुकाना है या बाक़ियों को भी? 

एक दूसरा सवाल भी किया जा सकता है। वह दलित और पिछड़े समुदायों के लोग कर सकते हैं कि क्या ब्राह्मणों पर या उनके ऋषियों पर ही दलित समुदाय का ही ऋण तो नहीं जिसे उन्हें चुकता करना है? ब्राह्मणों की श्रेष्ठता आख़िरकार इन हीन ठहरा दिए गए समुदायों के श्रम और दूसरे संसाधनों के शोषण के बिना कैसे संभव थी? क्या ब्राह्मण इस बात से इंकार कर सकते हैं कि उन्होंने वे विधान बनाए जिनके सहारे ‘शूद्रों’ और स्त्रियों को ज्ञान और भाषा से वंचित किया गया और पीढ़ियों को मूक बना दिया गया? 

मुझे आज तक अपने ब्राह्मण बनने का प्रसंग याद है। यज्ञोपवीत संस्कार के समय मेरे गुरु ने कान में गायत्री मंत्र पढ़ने के बाद यह निर्देश भी दिया था कि इसका उच्चारण ‘शूद्र’ और स्त्री के समक्ष नहीं किया जाना है। यह बात अलग है कि बाद में सारी जनता के हिंदूकरण के लिए इसे लाउडस्पीकर पर बजाया जाने लगा। लेकिन क्या इससे समानता स्थापित हो गई?

ब्राह्मण शेष मनुष्यों की तरह पैदा नहीं होते। वे द्विज हैं। बिना यज्ञोपवीत संस्कार के ब्राह्मण बनना असंभव है। और मात्र जनेऊ पहन लेने से भी ब्राह्मणत्व हासिल करना भुलावा ही है जो आज कई जातियाँ करती हैं। वे इसके बाद भी ब्राह्मणों की पंक्ति में नहीं बैठ सकतीं। 

तो ब्राह्मण अस्मिता की रक्षा का अर्थ है श्रेष्ठता, अलगाव, असमानता और दमन के विचारों को मज़बूत करना। क्या विश्वविद्यालय में इन विचारों को वैध माना जा सकता है? क्या ये आज विचारणीय भी हैं?

दलित अस्मिता इसके उलट श्रेष्ठता के विचार का प्रतिरोध है। समानता के विचार का उद्घोष है। वह अलगाव के विरुद्ध है और हर प्रकार के दमन के ख़िलाफ़ है। यह ठीक है कि दलित अस्मिता प्राथमिक रूप से उन समुदायों की ही होगी जो ब्राह्मण विचार द्वारा दलित किए गए। लेकिन उसमें यह सम्भावना है कि जो दलित नहीं हैं, वे दलित चेतना से एक सक्रिय संबंध बनाकर समानता, बंधुत्व और न्याय के मूल्यों के संघर्ष में उनके साथ खड़े हों।

विश्वविद्यालय के लिए ऐसा कोई भी विचार त्याज्य है जो दर्ज़ाबंदी करता हो। जो ऐसा समूह बनाए जिसमें बाक़ियों का प्रवेश संभव नहीं। विश्वविद्यालय में इसलिए ब्राह्मण सम्मेलन की जगह नहीं।

उसी तरह परशुराम की जय जयकार विश्वविद्यालय में कैसे की जा सकती है? क्या परशुराम वही अध्यापक नहीं जिन्होंने ब्राह्मणों के अलावा और किसी को दीक्षित न करने का प्रण लिया था? कर्ण ने उनसे अपनी जाति छिपाकर शिक्षा ली। गुरु को हर प्रकार से संतुष्ट करने के बाद भी कर्ण को परशुराम ने शाप दिया कि वह उसी समय अपनी विद्या भूल जाएगा जब उसे उसकी सबसे अधिक ज़रूरत होगी। यह कहा जा सकता है कि कर्ण, सूतपुत्र कर्ण की मृत्यु का कारण एक ब्राह्मण शिक्षक था। क्या आज के अध्यापक के आदर्श परशुराम हो सकते हैं? और क्या परशुराम को देखकर हर शिष्य को कर्ण की गति याद नहीं आएगी?

और अगर परशुराम के वंशज उनकी जयंती मना सकते हैं तो शम्बूक के वंशज क्या करें? आख़िर शम्बूक को मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने एक ब्राह्मण को संतुष्ट करने के लिए ही तो मार डाला था?

ऋण किसका किस पर है? 

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