नताशा और देवांगना की गिरफ़्तारी भारतीय जनतंत्र के लिए ख़तरे की घंटी है। लेकिन यह घंटी तो बिना रुके बजे जा रही है और हम सुन ही नहीं रहे। इन दोनों को दो दिन की पुलिस रिमांड दी गई है। इतवार 24 मई के दिन दोनों को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया था। उन्हें 23 मई को दिल्ली में उनके घर से जाफ़राबाद पुलिस ने गिरफ़्तार किया था। गिरफ़्तारी शाम 6 बजे की गई। यह किंचित नाटकीय तरीक़े से की गई कार्रवाई थी।
जाफ़राबाद पुलिस ने उनके घर में तब प्रवेश किया, जब दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के लोग उनसे पूछताछ कर रहे थे। इसे “इंटरोगेशन” कहा जा रहा है जो दिल्ली पुलिस फ़रवरी में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा की “साज़िश का पर्दाफ़ाश करने के लिए” अलग-अलग लोगों से कर रही है। प्रायः इसका अंत गिरफ़्तारी में होता है। यह पिछले दिनों सफ़ूरा, मीरान, शिफ़ा, गुलफ़िशा और आसिफ़ के मामले में देखा गया है। इन सबको फ़रवरी की दिल्ली हिंसा की साज़िश में संलिप्तता के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है।
स्पेशल सेल के अधिकारी पूछताछ कर ही रहे थे कि जाफ़राबाद पुलिस वहां पहुंची, जिसने इन दोनों युवतियों को गिरफ़्तार किया। यह गिरफ़्तारी उस एफ़आईआर के तहत की गई, जो हिंसा के बीच जाफ़राबाद पुलिस ने दायर की थी। लेकिन पुलिस ने बताया कि उन्हें अधिकारियों के काम करने में बाधा डालने और उनके ख़िलाफ़ हिंसा या बल प्रयोग के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है।
हालाँकि एफ़आईआर में इसका कोई ज़िक्र नहीं है। एफ़आईआर सिर्फ़ सड़क जाम करने का ज़िक्र करती है। एफ़आईआर कहती है कि ये रास्ता जाम करने वाली औरतों में शामिल थीं और नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी कर रही थीं लेकिन इनके द्वारा किसी हिंसा के प्रयोग का आरोप उस एफ़आईआर में नहीं है।
पूछताछ के दौरान एक दूसरे थाने की पुलिस का प्रवेश नाटकीय ही है। उतना ही जितना उनका पुलिस रिमांड का प्रसंग।
जब इन दोनों को गिरफ़्तारी के अगले दिन मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो उन्होंने इन्हें फ़ौरन ज़मानत दे दी। लेकिन उसी वक्त फिर स्पेशल सेल के अधिकारी आए और एक दूसरी एफ़आईआर के सिलसिले में इन्हें गिरफ़्तार करके 14 दिन की रिमांड माँगी।
मैजिस्ट्रेट ने इस पूरे तौर-तरीक़े पर नाखुशी ज़ाहिर की और 14 दिन की रिमांड देने से इनकार कर दिया और सिर्फ़ 2 दिन की रिमांड देना क़बूल किया। मैजिस्ट्रेट ने इसे अजीब और परेशान करने वाला तरीक़ा बताया।
यूएपीए का दुरुपयोग!
जो इस मामले में हुआ, वह हमने पहले भी देखा है। अगर किसी को एक मामले में राहत मिल रही हो तो उसे किसी और गम्भीर आरोप में गिरफ़्तार कर लिया जाता है। इस बार कुख्यात ग़ैर क़ानूनी गतिविधि (निरोधक) अधिनियम (यूएपीए) क़ानून का इस्तेमाल किया जा रहा है। मालूम होता है कि यह तय कर लिया गया है कि इन्हें किसी भी क़ीमत पर आज़ाद नहीं रहने देना है। राज्य का स्वतंत्र दिमाग़ों के दमन का यह निश्चय रघुवीर सहाय के शब्दों में जनता को उसकी “भयंकर दुष्टता” की याद दिलाते रहने के लिए ही है।
ये सारी गिरफ़्तारियाँ दिल्ली में फ़रवरी में हुई हिंसा की साज़िश का पता करने के नाम पर की जा रही हैं। लेकिन गिरफ़्तारी उनकी हो रही है जो उसके पहले तक़रीबन दो महीनों से दिल्ली में अलग-अलग जगहों पर सीएए, एनआरसी और एनपीआर के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शनों में किसी न किसी रूप में शामिल थे। यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि फ़रवरी की हिंसा की साज़िश इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान की जा रही थी।
यह तो तथ्य है कि शाहीन बाग से शुरू होकर दिल्ली और फिर देश के शहर-शहर में फैल गए सीएए विरोधी प्रदर्शनों में कोई हिंसा नहीं हुई। लोगों ने और मीडिया ने अचरज से देखा कि प्रायः मुसलमान औरतें धीरज के साथ दिन-रात धरने पर डटी रहीं। उनकी माँग थी भारतीय नागरिकता की अवधारणा में धर्म के आधार पर असमानता के तत्व के प्रवेश की विकृति को खत्म करने की, नागरिकता में बराबरी के अधिकार की।
भीषण ठंड में भी ये औरतें हिली नहीं और न ही इन प्रदर्शन स्थलों से कोई संकीर्ण स्वर सुनाई पड़ा। नारे बराबरी के थे, अमन के थे, संविधान की आत्मा के पुनर्वास के थे।
जीने के अधिकार का संघर्ष
यह सच है कि इनमें प्रायः मुसलमान ही थे। ग़ैर मुसलमानों की संख्या गिनती की थी। यह भी कहा जा सकता है कि सक्रिय रूप से इनमें वे ग़ैर मुसलमान शामिल हुए जिनकी पहचान धार्मिक नहीं है। उन्हें आजकल तिरस्कारपूर्वक धर्मनिरपेक्ष माना जाता है। लेकिन यह कमी उनकी न थी जिन्होंने यह आंदोलन शुरू किया था। क्योंकि उनकी माँग सिर्फ़ मुसलमानों के लिए नहीं थी।
उनका संघर्ष समानता की भूमि पर इज्जत के साथ जीने के अधिकार के लिए था। जब यह एक को मिलता है तो सभी इससे समृद्ध होते हैं और जब कोई एक भी इससे वंचित किया जाता है तो दूसरों में भी कुछ घट जाता है। लेकिन यह समझ ज़रा बारीक है। ख़ासकर भारत में मुसलमानों के एक साथ आने को ही साज़िश और हिंसा मान लेने का एक पूर्वाग्रह जड़ जमा गया है। इसलिए इन प्रदर्शनों के ख़िलाफ़ एक संदेह पैदा करना आसान था। संदेह से घृणा की यात्रा बहुत लंबी नहीं है। और घृणा को हिंसा में बदलने में सिर्फ़ एक इरादा चाहिए।
इसीलिए हमें नताशा, देवांगना और उन जैसी युवतियों का शुक्रिया अदा करना चाहिए जो इस आंदोलन में शामिल हुईं। उन्होंने नागरिकता के सिद्धांत को और दृढ़ ही किया। वह सिद्धांत मामूली सा है लेकिन उसके लिए सतत अभ्यास चाहिए। वह है साझेदारी और सापेक्षिकता का उसूल।
हर व्यक्ति नागरिक होता है लेकिन हरेक दूसरे के सापेक्ष होगा ही और हरेक की दूसरे में साझेदारी होगी ही। तभी हर व्यक्ति स्वतंत्र भी हो सकता है। इससे बराबरी निश्चित की जाती है। इसलिए अगर कोई एक अन्याय का अनुभव कर रहा हो और वह दूसरे को महसूस न हो तो नागरिकता खंडित और अधूरी रहती है।
मुझे आपके जीवन में भाग लेना ही है तभी मैं अपनी नागरिकता को साबित कर सकूँगा। यही तो अभी वे सब कर रहे हैं जो लॉकडाउन के चलते रोज़ी-रोटी से वंचित कर दिए लोगों को थामे हुए हैं। यह दया नहीं है। सिर्फ़ अपने नागरिकता के धर्म का निर्वाह है। शामिल होने की यह कार्रवाई नागरिकता की बुनियाद है।
मज़दूरों का संघर्ष इसी वजह से सिर्फ़ वे नहीं करते, स्त्रियों की बराबरी की लड़ाई में अकेले वे नहीं रहेंगी, दलितों के अधिकार के उनके संघर्ष में ग़ैर दलितों की भागीदारी उन्हें भी बराबरी का सच्चा अनुभव प्रदान करेगी।
नागरिकता के अधिकार और राज्य के नियंत्रण में द्वंद्व बना रहता है। राज्य नागरिकों के एक हिस्से को यक़ीन दिलाना चाहता है कि वह उसके हित के लिए ही दूसरे तबके पर जब्र (जबरदस्ती) कर रहा है।
नागरिकता के नए क़ानून में यही चतुराई थी। इससे मुसलमानों को चोट पहुँची। हिंदुओं को प्रायः उस अपमान का अहसास न हुआ। लेकिन देवांगना, नताशा और उनके संगठन “पिंजरा तोड़” की सदस्यों को हुआ। नाम से ही ज़ाहिर है कि यह वैसी युवतियों का समूह है जो किसी भी क़ैद के ख़िलाफ़ हैं।
औरतों से अधिक किसी और को इसका अन्दाज़ा नहीं हो सकता कि कैसे असमानता को कुदरती बना दिया जाता है और कैसे एक अदृश्य पिंजरे में क़ैद करके किसी को आज़ादी का भ्रम दिया जाता है। कई बार घर ही वह अदृश्य पिंजरा होता है। इसलिए औरतें किसी की भी आज़ादी और बराबरी की तड़प और उससे वंचित करने के अपमान को जान सकती हैं।
यह स्वाभाविक ही था कि वे इस आंदोलन में शामिल हों। कौन अमन पसंद और दोस्ती पसंद खुद को इससे दूर रख सकता था यह आंदोलन ग़ैर बराबरी की हिंसा के ख़िलाफ़ था। नताशा, देवांगना और उनकी मित्र अगर इसमें शामिल न होतीं तो आश्चर्य होता।
सबने देखा कि किस प्रकार भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार के मंत्रियों ने, सबसे आला मंत्री उनमें शामिल थे, इस आंदोलन के ख़िलाफ़ घृणा का प्रचार किया। आंदोलन करने वालों को उनके कपड़ों से पहचानने से लेकर एक “प्रयोग” बताने तक, आंदोलन में दहशतगर्दों, बलात्कारियों के छिपे होने की चेतावनी देने और उन्हें देशद्रोही कहकर गोली मारने का उकसावा सरेआम किया गया।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में शाहीन बाग को ज़ोरों के करंट का झटका देने का आह्वान किया गया। यह सब हिंसा का उकसावा था। और हिंसा हुई। देश-विदेश की मीडिया ने देखा और लिखा कि इस हिंसा का असली निशाना मुसलमान थे हालाँकि हिंदू भी इसके शिकार हुए।
साज़िश की शिकार हैं नताशा, देवांगना!
उकसावे और हिंसा के इस सीधे रिश्ते को जानबूझ कर नज़रअंदाज़ करके उसके पीछे किसी गहरे षड्यंत्र की खोज की सरकारी मुहिम खुद एक साज़िश है। नताशा और देवांगना इस साज़िश की सबसे नई शिकार हैं। अगर हमें यह समझने में दिक़्क़त है तो इसका मतलब है कि हमारी निगाह न सिर्फ़ सरकारी है बल्कि वह सचेत और स्वैच्छिक रूप से बहुसंख्यकवादी है।