हरियाणा के चुनाव नतीजे को पचा पाना हर उस व्यक्ति के लिए मुश्किल है जिसने ज़मीन पर जाकर माहौल का आकलन किया था। बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त ग़ुस्सा था। फिर भी बीजेपी जीत गयी और कांग्रेस के संगठन से लेकर रणनीति तक पर ‘ज्ञानी-जनों' की ओर से लानतें बरसने लगीं। बताया जाने लगा कि यह कमाल आरएसएस के मज़बूत संगठन ने किया। आरएसएस कार्यकर्ता घर-घर गये और उन्होंने संभावित हार को जीत में बदल दिया।
किसी ने नहीं पूछा कि आख़िर दस साल के कुशासन के पक्ष में संघ कार्यकर्ताओं ने क्या तर्क दिया होगा कि लोगों ने बीजेपी को वोट दे दिया? साढ़े नौ साल तक मुख्यमंत्री रहे मनोहर लाल कट्टर को चेहरा बनाने की बीजेपी हिम्मत नहीं कर सकी, फिर जनता ने उनके कहने पर बीजेपी को वोट कैसे दे दिया? बीजेपी सरकार के मंत्रियों तक को गाँवों से भगाया जा रहा था, मोदी की रैली में भीड़ नहीं जुट रही थी, लेकिन मतदान के दिन लोग बीजेपी को वोट देने टूट पड़े, क्यों?
मीडिया ने इन तमाम ज़रूरी सवालों को गोल कर दिया था। लेकिन वोट फ़ॉर डेमोक्रेसी (वीएफ़डी) की रिपोर्ट ने इस रहस्य को बेपर्दा कर दिया है। इस रिपोर्ट से जो तस्वीर सामने आयी है, वह डराने वाली है। यह बताती है कि सत्ता, संसाधनों और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग ने लोकतंत्र को लूटतंत्र के हवाले कर दिया है। एक ऐसा तंत्र काम कर रहा है जो जनता की इच्छा के विपरीत चुनाव नतीजा घोषित करवाने में सक्षम हो रहा है।
इस रिपोर्ट में हरियाणा में हुए विधानसभा चुनाव की विसंगतियों को चिन्हित किया गया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि हरियाणा में 5 अक्टूबर यानी मतदान के दिन शाम 7 बजे से मतगणना की पूर्वसंध्या यानी 7 अक्टूबर शाम 8:45 तक मतदान का वोट 6.71 प्रतिशत बढ़ाया गया। कुल मिलाकर 13 लाख वोट बढ़े जिसका अर्थ है प्रति विधानसभा औसतन 15 हज़ार वोटों की बढ़त। मतगणना शुरू होने के 12 घंटे पहले तक कुल मतदान की तादाद में हुई इस बढ़ोतरी का चुनाव आयोग ने कोई समझ में आने वाला तर्क नहीं दिया। हैरानी की बात ये है कि चुनाव आयोग ने अभी तक यह नहीं बताया कि हरियाणा में कुल कितने वोट पड़े। सिर्फ़ मतदान का प्रतिशत ही बताया गया है।
एक ज़माने में चुनाव आयोग बूथ कैप्चरिंग को लेकर काफ़ी संवेदनशील था। तब बैलट पेपर से मतदान होता था। लेकिन ऐसा लगता है कि ईवीएम के ज़रिए जो कुछ हो रहा है वह बूथ कैप्चरिंग से कई गुना भयावह है। इस पूरे मामले में चुनाव आयोग की चुप्पी कम हैरान करने वाली नहीं है और इस आरोप पर मुहर लगाती है कि वह बीजेपी की रणनीतियों के मुताबिक़ फ़ैसले लेता है। वरना क्या वजह है कि जब बैलट पेपर से वोट पड़ता था, तब रात ग्यारह बजे तक आयोग अंतिम आँकड़ा जारी कर देता था। उसमें परिवर्तन की गुंजाइश बेहद कम रहती थी। लेकिन अब जबकि मशीन से गिनती होती है और कैलकुलेटर हर मोबाइल फ़ोन में है, तब अंतिम आँकड़े मतगणना के एक दिन पहले तक आते रहते हैं। इस प्रक्रिया पर किसका नियंत्रण है?
आख़िर कुल मतदान की संख्या बताने को लेकर चुनाव आयोग अनिच्छुक क्यों रहता है? यही नहीं, वह मतदान के क्षेत्रवार आँकड़े जारी करने के बजाय, ज़िलावार आँकड़े क्यों जारी करता है? यह तरीक़ा पारदर्शिता की राह में रोड़ा है।
रिपोर्ट बताती है कि हरियाणा के पंचकूला और चरखी दादरी सहित कई ज़िलों में कुल वोटों की संख्या में 10 फ़ीसदी से अधिक की बढ़ोतरी देखी गयी जहाँ बीजेपी क़रीबी मुक़ाबले में फँसी थी। इन इलाक़ों में बीजेपी को आश्चर्यजनक रूप से फ़ायदा पहुँचा। वह मामूली अंतर से जीतने में सक्षम रही। रिपोर्ट बताती है कि इन दस ज़िलों में बीजेपी को काफ़ी कामयाबी मिली। वह यहाँ की 44 में से 37 सीटें जीतने में सफल रही, जबकि बाक़ी 12 ज़िलों में उसका प्रदर्शन बहुत ख़राब रहा जहाँ वह 46 में से केवल 11 सीटें ही जीत सकी। हैरानी की बात ये है कि एक ज़िले में मतदान का अंतिम आँकड़ा घटा भी। वह ज़िला मेवात है जहाँ अल्पसंख्यक आबादी काफ़ी ज़्यादा है।
वीएफडी की रिपोर्ट बताती है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भी इसी तरह की अस्पष्टता देखने को मिली थी जिसका नतीजा बीजेपी के हक़ में गया था। आँकड़ों के हेरफेर की यह निरंतरता चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्र चुनाव कराने की उसकी क्षमता पर संदेह पैदा करती है। हरियाणा में आँकड़े के हेरफेर का असर ख़ासकर उन 17 निर्वाचन क्षेत्रों में पड़ा जहाँ बीजेपी की जीत का अंतर पाँच हज़ार वोटों से कम था। इंडियन नेशनल लोकदल जैसी पार्टियों को बहुत कम लाभ हुआ। रिपोर्ट बताती है कि इस हेरफेर ने बीजेपी को संभवत: 24 अतिरिक्त सीटों पर जीत दिलायी।
वीएफडी रिपोर्ट कहती है कि ईमानदार चुनाव प्रणाली पारदर्शिता पर निर्भर करती है। इसके ज़रिए ही छेड़छाड़, ग़लत गणना और डेटा में हेराफेरी को रोका जा सकता है। एक स्पष्ट, सटीक और पारदर्शी मतदान प्रक्रिया सुनिश्चित करके ही चुनाव नतीजों को विश्वसनीय बनाया जा सकता है जो लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है। आँकड़ों के बूथवार डेटा से लेकर वीवीपीएटी सत्यापन जैसी प्रक्रिया अपनाकर चुनाव प्रणाली पर विश्वास बढ़ाया जा सकता है। वीडियो साक्ष्य और मतदान अधिकारी की जवाबदेही इस पारदर्शिता को और मज़बूत करती है। ज़ाहिर है, इन उपायों को लेकर चुनाव आयोग की उदासीनता सामान्य बात नहीं है। हद तो ये है कि किसी मतदान केंद्र पर पड़ने वाले कुल वोटों की जानकारी देने वाले फ़ार्म 17 (सी) को सार्वजनिक करने से भी उसने इंकार कर दिया है। उसने सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा देकर कहा कि क़ानूनन ऐसा करना ज़रूरी नहीं है।
चुनाव आयोग शायद भूल गया है कि वह देश की जनता के प्रति जवाबदेह है न कि सरकार के प्रति। टी.एन. शेषन जैसे चुनाव आयुक्त का दौर लोग भूले नहीं हैं जब सरकारों पर भी आयोग का चाबुक चलता रहता था।
अब तो ऐसा लगता है कि आयोग पूरी तरह केंद्र सरकार के सामने हाथ बाँधे खड़ा है। बीजेपी जिस राज्य में जब और जितने चरणों में चुनाव चाहती है, आयोग उसी के अनुरूप कार्यक्रम ही नहीं बनाता, पूर्व घोषित कार्यक्रम में तब्दीली भी कर देता है।
वीएफडी की रिपोर्ट में तकनीकी अध्ययन करने वालों में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के मेडिसिन विभाग के पूर्व डीन डॉ. प्यारेलाल गर्ग, आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व प्रोफ़ेसर, प्रो.सैबस्टियन मॉरिस और आईआईटी, कानपुर से सेवानिवृत्त डॉ. हरीश कार्निक जैसे विद्वानों का नाम है। उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव से जुड़े आँकड़ों का भी अध्ययन किया था और आयोग पर कुछ गंभीर सवाल उठाये थे।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग को चुनाव प्रक्रिया के निर्देशन और नियंत्रण की शक्तियों से लैस किया गया है। इसमें चुनाव प्रक्रिया को पूरी तरह संदेह से परे रखने की ज़िम्मेदारी भी शामिल है। अफ़सोस कि आयोग इस भूमिका से पूरी तरह आँख मूँदे नज़र आता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मोदी सरकार ने इसीलिए चुनाव आयुक्त की चयन समिति से मुख्य न्यायाधीश को हटाकर प्रधानमंत्री के मातहत काम करने वाले एक जूनियर मंत्री को सदस्य बनाने का क़ानून बनाया है? यह चयन समिति में नेता प्रतिपक्ष के होने को बेमानी बना देता है। साफ़ नज़र आ रहा है कि सरकार की मर्ज़ी से बना चुनाव आयुक्त सरकार की मर्ज़ी के आगे कुछ सोचने-समझने को तैयार नहीं है।
लेकिन जनता जनमत की इस क़दर होने वाली लूट को कब तक बर्दाश्त कर पायेगी? बग़ल के बांग्लादेश का उदाहरण भी देखना चाहिए जहाँ शेख़ हसीना बेईमानी से चुनाव दर चुनाव जीत रही थीं लेकिन अंत में उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा। भारत को ऐसा कोई दृश्य न देखना पड़े, इसकी चिंता सरकार को नहीं है, पर चुनाव आयोग को होनी ही चाहिए।