13 जनवरी से महाकुंभ शुरू होने वाला है, और वृहद स्तर पर इसकी तैयारियां चल रही हैं। खबरों की मानें तो, यहाँ ऊपर उड़ने वाले ड्रोन के अतिरिक्त पानी के अंदर चलने वाले ड्रोन भी तैनात किए गए हैं। लगभग 7000 करोड़ रुपए खर्च करके 40 दिनों में 40 करोड़ भक्तों के लिए व्यवस्था का दावा किया गया है; जिसमें 1.5 लाख से अधिक शौचालय और लगभग इतने ही टेंट लगाये गए हैं। यह अलग बात है कि यह महाकुंभ सिर्फ़ आस्था और धन का कुंभ है। समानता का कुंभ बनने की योग्यता इसमें नहीं है।
धनपतियों, फिल्मी हस्तियों और अन्य वीआईपी के लिए व्यवस्था बिल्कुल अलग और आलीशान है। स्नान के अतिरिक्त यहाँ आए लोग, इन आलीशान टेंट्स को भी देख सकते हैं, लेकिन दूर से।
उत्तर प्रदेश सरकार का पूरा ध्यान इस धार्मिक/आध्यात्मिक कार्यक्रम पर है। योगी आदित्यनाथ ने तो यह भी तय कर लिया है कि महाकुंभ के दौरान राज्य सरकार का संचालन भी कुंभ स्थल से ही किया जाएगा। इसके लिए भी करोड़ों रुपये फूंके जा रहे हैं। संगम स्थल से लगभग 300 मीटर की दूरी पर 2 लाख 40 हज़ार स्क्वायर फीट ज़मीन पर 4 विशाल टेंट लगाएं गए हैं। वैसे तो पूरे संगम स्थल पर लगभग 1 लाख पांडाल बने हैं लेकिन योगी आदित्यनाथ की सरकार जिन 4 पांडालों से चलनी है वो बड़े खास हैं। इंटरलॉकिंग सड़कों से लैस इस क्षेत्र के ये चारों पांडाल जर्मन हेंगर तकनीक से बने हैं। अपनी ज़िद और शौक के लिए जनता के करोड़ों रुपए फूंककर बनाये गए इन पांडालों से उत्तर प्रदेश सरकार चलाई जानी है। जिस सरकार के लिए पहले से ही अरबों रुपये का इंफ्रास्ट्रक्चर बना हुआ है उसे दरकिनार करके योगी सरकार अपनी सरकार के कल्पवास का आयोजन करने जा रही है।
श्रद्धा, भक्ति और भव्यता के इस दो महीने के महाकुंभ के समानांतर जो अन्य संघर्षों और दुखों के महाकुंभ चल रहे हैं उनपर भी सरकार को ध्यान देना चाहिए। क्योंकि सरकारें इसीलिए चुनी जाती हैं कि जनता की तकलीफों को दूर करे और उनका जीवन स्तर ऊंचा उठाए। पर सत्तारूढ़ दल तो किसी और ही मूड में है।
आइए दुख के एक महाकुंभ की चर्चा कर लें। उत्तर प्रदेश अपनी सबसे लाचार स्वास्थ्य सेवाओं के लिये जाना जाता है। कोविड के दौरान इलाहाबाद उच्च न्यायालय की नाराजगी बिल्कुल साफ़ थी कि जिस प्रदेश में ऐसी लाचार स्वास्थ्य सेवाएं होंगी उसका किसी महामारी के दौरान ध्वस्त हो जाना लगभग निश्चित है। अपने शासन के 7 साल पूरे होने के बाद अभी भी योगी सरकार जागी नहीं है। बहुत दिन नहीं बीते जब इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी तफ़तीश में पाया था कि उत्तर प्रदेश के 200 से अधिक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं कि वहाँ ईंट का ढाँचा भी नहीं खड़ा है, स्वास्थ्य सेवाएं तो बहुत दूर की बात है।
तमाम आंकड़े यह बता रहे हैं कि स्वास्थ्य मानकों में उत्तर प्रदेश की स्थिति बहुत ख़राब है। केंद्र सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले ग्रामीण स्वास्थ्य आंकड़ों के अनुसार, यूपी में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं, स्वास्थ्य अवसंरचनाओं की स्थिति बदहाल है।
यहाँ चिकित्सकों की बेहद कम संख्या है, जिसके कारण लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। जिस स्वास्थ्य सेवा को आसानी से पाने का उन्हें अधिकार है, वे ही उनके लिए दुर्लभ हैं। आंकड़ों के मुताबिक़ प्रदेश में सिर्फ़ 45% प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ही ऐसे हैं जो 24 घंटे खुले रहते हैं। मेडिकल और हेल्थ जर्नल, द लांसेट में प्रकाशित एक अध्ययन में उत्तर प्रदेश को उन पांच राज्यों में शामिल किया गया है जहां जिला अस्पताल केवल 1 प्रतिशत बुनियादी सेवाएं ही प्रदान करते हैं। इसके अलावा मातृत्व मृत्यु दर(MMR) में उत्तर प्रदेश देश में पहले स्थान और शिशु मृत्यु दर(IMR) में दूसरे स्थान पर है।
योगी जी को पता ही होना चाहिए कि संविधान की 7वीं अनुसूची के अनुसार स्वास्थ्य राज्य का विषय है। मतलब यह कि राज्य सरकार अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार है। यह अलग बात है कि ‘केंद्र-राज्य संबंधों’ की पवित्र अवधारणा की आड़ में ‘डबल इंजन’ का रिश्ता कुछ खास मदद प्रदान कर देता लेकिन मदद देने वाला और मदद लेने वाला दोनों ही जनता के हितों के प्रति उदासीन नजर आ रहे हैं।
एक तरफ़ धड़ल्ले से संसाधनों को बर्बाद किया जा रहा है, तो दूसरी तरफ़ संसाधनों को बचाने की आड़ में बेसिक शिक्षा से संबंधित 27,000 सरकारी स्कूलों को बंद किए जाने की योजना है। कारण यह है कि सरकार लोगों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करने में विफल है। प्रदेश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है ऐसे में न सिर्फ़ प्राइमरी बल्कि उच्च शिक्षा में भी नामांकन घट गया है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (UDISE+) रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश ने 2018-19 में 4.44 करोड़ छात्रों का नामांकन दर्ज किया था, जो 2023-24 के ताजा आंकड़ों में 28.26 लाख की कमी के साथ घटकर 4.16 करोड़ रह गया है। यही हाल पूरे भारत का है। 2023-24 के शैक्षणिक वर्ष में पूरे देश में कुल 24.8 करोड़ छात्र नामांकित हुए। यदि 2028-19 के आंकड़ों से तुलना करें तो पूरे देश में, नामाकित छात्रों की संख्या में 6% की कमी, मतलब लगभग 1 करोड़ 22 लाख छात्रों की कमी हुई है। जबकि यह आंकड़ा तो लगातार बढ़ता ही जाना चाहिए था क्योंकि जनसंख्या की बढ़ोत्तरी तो अपनी गति से जारी ही है। शिक्षा को प्रोत्साहित करने का काम न ही प्रधानमंत्री और न ही मुख्यमंत्री कर रहे हैं।
एक तरफ़ भारत के प्रधानमंत्री अपने प्रचार प्रसार में देश का हजारों करोड़ रुपया डुबो रहे हैं और जो चीजें जरूरी हैं उन्हें बंद किया जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ़ उनके मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री भी उन्हीं के कदमों पर चलकर देश को खोखला करने में लगे हैं।
जरा सोचकर देखिए कि देश का प्रधानमंत्री अपने व्यक्तिगत कार्यक्रम ‘परीक्षा पे चर्चा’ के आयोजन, प्रसार, प्रचार में तीन सालों में 62 करोड़ रुपया खर्च कर देता है लेकिन उन्हीं का शिक्षा मंत्रालय देश की सबसे प्रतिष्ठित छात्रवृत्ति परीक्षा-नेशनल टैलेंट सर्च एग्जामिनेशन-NTSE को इसलिए बंद कर देती है क्योंकि उसके पास इसके लिए धन नहीं है। जबकि इस परीक्षा के तीन सालों के आयोजन और छात्रवृत्ति वितरण का खर्च महज़ 40 करोड़ रुपया है। कोई कम जानकार भी बता सकता है कि कैसे पीएम की सलाह बाँटने की व्यक्तिगत आकांक्षा ने देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया है। पीएम न ही शिक्षाविद हैं, न ही परीक्षा एक्सपर्ट और न ही बाल और मनोविज्ञान विशेषज्ञ फिर भी बिना किसी आमंत्रण और जरूरत के छात्रों को अनावश्यक सलाह दे रहे हैं, वह भी इतना पैसा फूंककर? क्या जनता का पैसा इस तरह अनावश्यक कार्यों में फूँक दिया जाना एक सरकार को शोभा देता है? मैं तो कहती हूँ कि या तो उन्हें यह सलाह अपनी व्यक्तिगत सैलरी से देनी चाहिए थी या फिर अपने किसी व्यक्तिगत उद्योगपति मित्र के सहयोग से।
जब उनके मित्र को महाकुम्भ में प्रसाद बाँटने का ठेका मिल सकता है तो वो कम से कम इतनी मदद तो देश के छात्रों के लिए कर ही सकते थे। लेकिन किसी भी हालत में भारतीय प्रतिभा खोज परीक्षा(NTSE) को नहीं टाला जाना चाहिए था। यह बहुत बड़ा अपराध है!
कुंभ के विशाल आयोजन के बीच यह जानना भी जरूरी है कि वर्ष 2024 में उत्तर प्रदेश वह राज्य है जहाँ से राष्ट्रीय महिला आयोग को सबसे ज़्यादा शिकायतें प्राप्त हुई हैं। उत्तर प्रदेश से अकेले 50% से अधिक शिकायतें प्राप्त हुई हैं और यह भयावह है। यही नहीं, 2022 के आंकड़े बताते हैं कि अनुसूचित जातियों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराध जिसमें भीषण हिंसा भी शामिल है, के मामले में उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है। महाकुंभ जैसी विराट धार्मिक आध्यात्मिक चेतना का क्या फ़ायदा है यदि योगी सरकार प्रदेश में दमित वर्ग के ख़िलाफ़ अपराधों को ही ना रोक पाये। आख़िर वो कौन सी धार्मिक चेतना है जिससे सराबोर उत्तर प्रदेश, दलितों के ख़िलाफ़ देश भर में होने वाले अपराधों का अकेले लगभग एक चौथाई की हिस्सेदार है? 2022 में अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए बने कानून के तहत देश भर में दर्ज 51,656 मामलों में से उत्तर प्रदेश का हिस्सा 23.78% था।
इसके अलावा उत्तर प्रदेश लाचार अवसंरचना विकास और निम्नस्तरीय निवेश से जूझ रहा है। धार्मिक और जातीय हिंसा यहाँ निवेश के माहौल को और भी कमजोर बना देती है। सदियों से जिस उत्सव-महाकुंभ-में धार्मिक और जातीय पहचानें आड़े नहीं आयीं उसी कुंभ में इस बार मुसलमानों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई है। इस किस्म की विभाजनकारी बातों को शंकराचार्यों का भी समर्थन प्राप्त है। जिस सरकार को अपना ध्यान प्रदेश के विकास और जनकल्याण पर लगाना चाहिए वो पूरी तन्मयता से आने वाले 40 दिनों तक कुंभस्थल में और कुंभस्थल से ही काम करने वाली है।
ऐसा लगता है कि योगी सरकार, जिसे लोगों के लिए चुना गया था, उनकी परेशानियों को कम करने के लिए चुना गया था उसका लक्ष्य मानो अपनी धार्मिक पहचान को रीचार्ज करना भर रह गया है। ऐसा लग रहा है कि यह सरकार एक धार्मिक आयोजन को राजनैतिक आयोजन की तरह इस्तेमाल कर रही है। यह सरकार महाकुंभ के माध्यम से अपने राजनैतिक हित और वर्चस्व को स्थापित करने की पूरी कोशिश है।
हर जरूरतमंद को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाना, गाँव से लेकर शहरों तक बेहाल पड़ी शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करना ज़रूरी है, जिससे उत्तर प्रदेश भारत में अपना उचित स्थान बना सके।
महिला सुरक्षा के खोखले जुमलों और भाषणों से बाहर आकर महिलाओं की सुरक्षा हर हाल में सुनिश्चित करना, बलात्कार के ख़िलाफ़ जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाना, बढ़ती महंगाई और भीषण बेरोजगारी से बेहाल जनता को ग़रीबी से मुक्त करने के उपाय धरातल पर उतारना, कुपोषण को ख़त्म करना, धर्म विशेष पर हो रहे हमलों से सतर्क रहना और राज्य को किसी भी हालत में सिर्फ़ एक धर्म की सरकार के रूप में स्थापित होने से रोकना, क़ानून-व्यवस्था को धार्मिक और जातीय पहचान से मुक्त रखना, विपक्ष की राजनैतिक आलोचनाओं को, प्रेस द्वारा की गई नीतिगत आलोचना को आतंकवादी हमलों जैसा न लेना। सभी जानते हैं यह सब बहुत ही कठिन है और एक मजबूत सरकार ही इस दिशा में काम कर सकती है।
अख़बारों की खबरों के अनुसार योगी सरकार की योजना यह भी है कि विधानसभा के ‘शीतकालीन सत्र’ का आयोजन भी कुंभस्थल से ही किया जाए। विधायिका के दोनों सदनों के सभी सदस्यों के लिए पूरे सत्र का आयोजन करना, इसमें असीमित संसाधन और ऊर्जा खर्च होगी। आमजनों को होने वाली तकलीफ़ कई गुना बढ़ जाएगी, जिसे सुनने वाला कोई नहीं होगा। हर कोई धर्म और आस्था के नाम पर तकलीफ़ों को जायज़ ठहरा देंगे। लेकिन सरकार को मालूम होना चाहिए कि कुंभ स्नान के लिए सिर्फ़ 20-25 साल के लोग नहीं बल्कि बड़ी संख्या में वो लोग आते हैं जिनकी उम्र घर से बाहर निकलने लायक़ भी नहीं रहती, जो लोग इस उम्र के पड़ाव में हैं कि वे आराम करें, जो उम्र से संबंधित बीमारियों से भी ग्रस्त हैं लेकिन उनकी आस्था उन्हें कुंभ में खींच लाती है। ये ऐसे लोग भी हैं जो आलीशान टेंटों का खर्चा भी नहीं वहन कर सकते। उन्हें इस भीषण सर्दी में ख़ुद का ही सहारा है। यदि सरकार अपने ‘ग्रैंड’ रवैये में बदलाव नहीं करती तो इन लोगों को सबसे ज़्यादा परेशानी होगी।
इस धार्मिक आयोजन में हजारों करोड़ रुपए लुटाने वाली सरकार यह आशा कर रही है कि इस उत्सव को करने से कई गुना ज़्यादा रेवन्यू भी आयेगा। शायद आ भी जाए।
यह आज की बात नहीं है। 7वीं शताब्दी में भारत आया चीनी यात्री भी इसे धार्मिक के साथ-साथ आर्थिक आयोजन की संज्ञा देता है। परेशानी इन बातों से नहीं, परेशानी इससे है कि सरकार अपने प्रदेश में चल रहे तमाम अन्य समानांतर दुखकुंभों के बारे में सचेत है या नहीं? यदि पुलिस थानों में बलात्कार होते रहेंगे, दलितों को पीट-पीट कर मारा जाता रहेगा, और प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था ICU में बनी रहेगी तो किसी भी धार्मिक आयोजन की विराटता से इसे पाटा नहीं जा सकेगा। जनता के लिए चुनी गई सरकार हर धर्म के लिए है, हर जाति के प्रति जिम्मेदार है उसमें कोई ‘किंतु-परंतु’ नहीं लगाया जा सकता है। सरकार को अपना कामकाज सरकारी दफ्तरों से करना चाहिए जिससे तमाम मामलों में बदहाल प्रदेश की व्यवस्था और भी ज़्यादा बुरी अवस्था को ना प्राप्त हो जाए।