क्या भारत के प्रधानमंत्री को उसके धर्म से पहचाना जाना चाहिए?

08:21 am Feb 12, 2023 | वंदिता मिश्रा

“उन्होंने छह बार केदारनाथ के दर्शन किए, काशी में गंगा आरती की, पावागढ़ के महाकाली मंदिर पर 500 वर्ष के उपरांत ध्वजारोहण किया”। 

प्रशंसा के यह शब्द भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए लिखे गए हैं। इन्हे लिखने का काम किया है भारत के शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने। हिन्दी पट्टी के एक प्रख्यात अखबार में शिक्षा मंत्री ने “देश के मानस को बदलते प्रधानमंत्री” नाम से यह लेख लिखा है। भारत जैसा विशाल देश जिसकी जनसंख्या लगभग 140 करोड़ है जिसमें वोट देने वाले नागरिकों की संख्या ही लगभग 95 करोड़ हो चुकी है जहां की धार्मिक विविधता दुनिया के लिए दशकों से मिसाल रही हो वहाँ का शिक्षा मंत्री अपने प्रधानमंत्री के बारे में प्रशंसा के लिए मंदिरों और आरतियों पर निर्भर है। 

यह भारत के जनमत और उसकी विविधता के साथ, सभी धर्मों के अनुयायियों के एकसाथ रहने की प्रवृत्ति का भी अपमान है। शिक्षा मंत्री इससे बेहतर तरीका, शब्द और आयाम चुन सकते थे लेकिन वह इसमें असफल रहे। 

इतने बड़े जनमत ने नरेंद्र मोदी को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में उपयुक्त समझा लेकिन शिक्षा मंत्री को यह तक नहीं समझ आया कि भारत के प्रधानमंत्री की पहचान देश और विदेश में इसलिए नहीं है कि वह हिन्दू धर्म को मानने वाले हैं, उनकी ख्याति इसलिए है क्योंकि वह एक ऐसे देश के प्रधानमंत्री हैं जिसने सफलतापूर्वक पिछले 75 साल एक लोकतंत्र के रूप में स्वयं को बनाए रखा, जबकि न जाने कितने ही देश जिन्होंने भारत के साथ स्वतंत्रता पाई थी वह अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र को सँजो नहीं पाए।


भारत के प्रधानमंत्री की ख्याति इसलिए है क्योंकि पिछले 75 सालों में हुए आर्थिक विकास ने विश्व को भारत की ओर आकर्षित किया है। भारत का निर्वाचन आयोग, भारत का महालेखा परीक्षक और भारत की न्यायपालिका ने मजबूत व स्वतंत्र संस्थानों के रूप में पूरे विश्व में अपनी साख बनाई है, और यह सब पिछले 75 सालों के सतत सुधार का परिणाम है। इसके बावजूद भारत के शिक्षा मंत्री, जिनके मंत्रालय का कार्य भारत की शिक्षा नीति को तय करना है, जिनका काम भारत की उच्च शिक्षा की दिशा को तय करना है, जिनका काम शिक्षा और प्रगतिशीलता के क्षेत्र में एक मिसाल कायम करना है उन्हे भारत के प्रधानमंत्री के बारे में जो बातें लुभा रही हैं वह दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि वह भारत के ‘प्रधानमंत्री पद’ को कमतर आँकती हैं। 

शिक्षा मंत्री लिखते हैं- “प्रधानमंत्री नए शब्द एवं बिम्ब के माध्यम से विमर्श बदल रहे हैं”। प्रधानमंत्री द्वारा उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए प्रचलित शब्द ‘सेवन-सिस्टर्स’ की जगह ‘अष्टलक्ष्मी’ किया जाना और आज़ादी के 75 वर्षों को ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ कहा जाना शिक्षा मंत्री को ‘भारत के मानस को बदलने वाला’ नजर आ रहा है। 

राम मंदिर के शिलान्यास और उज्जैन के ‘महाकाल लोक’ के उद्घाटन से भारत के प्रधानमंत्री का कद नापने की कोशिश भारत के लोकतंत्र के साथ मज़ाक है।


शिक्षा मंत्री को लग रहा है कि भारत का मानस मात्र शब्दों पर टिका हुआ है। जबकि ऐसा नहीं है। लोकतान्त्रिक रूप से विकसित भारत का समाज नए शब्दों को समाहित तो करता है लेकिन समय आने पर उनके ‘कोरेपन’ और ‘खालीपन’ का जवाब भी देता है। वास्तव में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री अन्य प्रधानमंत्रियों की तरह ही लोकतान्त्रिक निरन्तरता के एक उत्पाद हैं जिनके हिस्से में भी अन्य प्रधानमंत्रियों की तरह कुछ लोकतान्त्रिक वर्ष आए हैं। नरेंद्र मोदी को शब्दों से खेलने का वक्त है क्योंकि उन्हे देश चलाने के लिए बना-बनाया संविधान मिला (बनाना नहीं पड़ा), एक व्यवस्थित ब्यूरोक्रेसी मिली (स्थापित नहीं करनी पड़ी), एक सशक्त और संतुलित विदेश नीति मिली, देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए 14 लाख से भी अधिक सैनिक संख्या वाली दुनिया की दूसरी सबसे विशाल सेना विरासत में मिली, जिनकी वजह से वह खुद के लिए वक्त निकाल पाते हैं और संभवतया चैन से सो पाते हैं। 

अब प्रधानमंत्री मोदी अपने समय को नए शब्द गढ़ने और इमारतों के नाम बदलने में लगाते हैं या भारत को बदलने में, यह उन पर निर्भर करता है लेकिन वक्त खत्म हो जाने के बाद जनता के लिए किए गए उनके कार्य ही उन्हे इतिहास में स्थापित करेंगे न कि रोज-रोज बदलते शब्दों के कॉम्बीनेशन!


भारत के एक अन्य प्रधानमंत्री की प्रशंसा पर नजर डाली जाए-

“पंडित जी चाहते थे कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख और पारसी- ये भारत के इतिहास के प्रति समान रूप से गौरव का भाव रखें और पूरे इतिहास को अपना ही इतिहास समझें।..हिन्दू और मुसलमान पीछे की ओर देखना छोड़कर उस राह पर एक साथ चलें, जो सीधे भविष्य की ओर जाती है।“ 

भारत के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा लिखे गए यह शब्द भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के लिए हैं। “सिंहासन खाली करो की जनता आती है” लिखने वाले दिनकर नेहरू के राष्ट्र निर्माण के दृष्टिकोण से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने नेहरू को ‘लोकदेव’ कह डाला। अपनी एक पुस्तक ‘लोकदेव नेहरू’ में दिनकर ने लिखा है कि “पंडित जी धार्मिक विभेद को राष्ट्रीयता की बाधा नहीं मानते थे..उनका विश्वास था कि भाषाओं की भिन्नता से इस देश की एकता नहीं टूटेगी”। 

दिनकर नेहरू के लोकतंत्र संबंधी विचारों को बहुत ही साधारण शब्दों में समझाते हैं। उनके अनुसार, “पंडित जी का विचार था कि प्रजातन्त्र केवल मतदान की प्रक्रिया नहीं है..लोगों के आचरण की पद्धति भी है...जैसे कुछ सिद्धांतों की अवहेलना करने से व्यक्ति का ह्रास होता है, उसी प्रकार नैतिक मूल्यों की अवज्ञा से राष्ट्र का भी पतन हो जाता है”। 

जवाहरलाल नेहरू की प्रशंसा उनके धर्म की मोहताज नहीं थी। इसीलिए दुनिया के तमाम राजनीतिज्ञों ने, चाहे उनका कोई भी धर्म हो, नेहरू की लोकतंत्र संबंधी दृष्टि और वैश्विक दृष्टि की जबरदस्त प्रशंसा की है।


 संयुक्त राज्य अमेरिका के 33वें राष्ट्रपति हैरी ट्रूमन ने कहा था “नेहरू हमारे समय के महानतम व्यक्तियों में से एक थे”। फरवरी, 2022 में, एक संसदीय सत्र में बहस के दौरान सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सियन लूंग ने यह समझाने के लिए कि लोकतंत्र को कैसे काम करना चाहिए, जवाहरलाल नेहरू का नाम लिया। अपने संसदीय भाषण में पीएम ली सियन लूंग ने नेहरू को "महान साहस, अपार संस्कृति और असाधारण क्षमता वाले उत्कृष्ट व्यक्ति" के रूप में पाया।

नेहरू को ‘दिखने’ और ‘दिखाने’ की फिक्र नहीं थी, क्योंकि उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए जमीन पर काम किया था, लाठी खाई थी, जेल गए थे वो किसी जुमले, कैमरे या पत्रकारों के समूह के मोहताज नहीं थे। उन्होंने जिस सादगी से भारत के लिए काम किया उससे भी अधिक सादगी से अपनी मौत के बाद के कार्यक्रमों की रूपरेखा भी तैयार कर दी थी। वो नहीं चाहते थे उनकी मृत्यु के बाद कोई भी अनुष्ठान किया जाए, यहाँ तक कि वह यह चाहते थे कि यदि उनकी मृत्यु भारत के बाहर हो तो उन्हे वहीं जला दिया जाए।


“मुझे गंगा माँ ने बुलाया है” जैसे शब्द विन्यासों से दूर रहने वाले नेहरू को गंगा और यमुना दोनो ही बहुत पसंद थीं। वो चाहते थे कि उनकी राख का एक छोटा हिस्सा गंगा में फेंक दिया जाए। आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भारत से अधिक किसी को प्रेम नहीं कर सके। एक असली क्रांतिकारी राष्ट्रवादी की तरह नेहरू ने अपनी अंतिम इच्छा में लिखा कि “मैं चाहता हूं कि मेरी राख को एक हवाई जहाज से हवा में ऊपर ले जाया जाए और उस ऊंचाई से उन खेतों पर बिखेर दिया जाए जहां भारत के किसान मेहनत करते हैं, ताकि वह भारत की धूल और मिट्टी में मिल जाए और भारत का एक अविभाज्य हिस्सा बन जाए”। 

केन्द्रीय शिक्षा मंत्री जी को भी दोष नहीं दिया जा सकता। आखिरकार किसी की जवाहरलाल नेहरू से क्या तुलना? दिनकर जैसी रचनात्मक आलोचना पाने के लिए सामने व्यक्तित्व भी नेहरू जैसा होना चाहिए। नेहरू बनने के लिए ‘साथ लेकर चलने’ का दृष्टिकोण जरूरी है न कि ‘स्वयंभू’ होने की घोषणा! 300 से अधिक सांसदों को देश ने प्रधानमंत्री के पीछे खड़ा किया लेकिन फिर भी उन्हें ऐसा लगा “आज देश देख रहा है, एक अकेला कितनों पर भारी पड़ रहा….”। इस तरह संसद में खड़े होकर लोकतंत्र का मजाक बनाना ठीक नहीं।

उन्हे इस भ्रम से दूर जाना चाहिए कि वह अकेले विपक्ष से लड़ रहे हैं और अकेले देश को आगे ले जा रहे हैं। अलग अलग राज्यों में तमाम मुख्यमंत्री और अलग अलग दल, सांसद, विधायक और अन्य संवैधानिक और संविधानेत्तर संस्थाएं मिलकर देश को आगे लेकर चल रही हैं। प्रधानमंत्री को बस यह सोचना है किकहीं कुर्सी पर बने रहने का उनका मोह देश को आर्थिक चोट पहुंचाने वालों और सद्भाव मिटाने वालों पर कार्यवाही करने के रास्ते में बाधा न बन जाए।   

लिखना एक बहुत ही जटिल काम है क्योंकि एक बार जो लिख दिया गया उसका आँकलन पीढ़ियों तक होता है। सोच समझ कर लिखे गए साहित्य भी समय द्वारा जाँचे जाते रहते हैं-तुलसीदास जैसे लेखकों का भी लिखा हुआ, आज 500 सालों बाद आलोचना के घेरे में है यह मांग उठ रही है कि रामचरितमानस से विवादास्पद पंक्तियों को हटाया जाए। ऐसे में बिना सोचे समझे लिखे गए प्रशस्ति-पत्रों को कौन बचा सकेगा? केन्द्रीय शिक्षा मंत्री द्वारा लिखा गया ‘शब्दों का ढेर’किसी लेख की श्रेणी में नहीं आना चाहिए। 

वास्तव में यह एक ‘प्रशस्ति-पत्र’ है, और प्रशस्ति-पत्र की अखबार में क्या जगह? प्रधानमंत्री को अगले कैबिनेट फेरबदल में इस बात पर विचार करना चाहिए कि यदि उनका शिक्षा मंत्री ही उनके किए गए कार्यों को ‘प्रशस्ति-पत्र’ में बदल दे रहा है तो क्या अब समय नहीं आ गया है कि मंत्री जी को ही बदल दिया जाए? कम से कम ऐसा तो लिखा जाता जिसे अगर दुनिया पढ़े तो भारत का, भारत के प्रधानमंत्री का और भारत के शिक्षा मंत्री का अपमान तो न हो! एक लोकतान्त्रिक देश के प्रधानमंत्री को एक विशेष सोच से ढक कर दुनिया के सामने खड़ा कर देना न्यायसंगत नहीं मंत्री जी! इससे भारत का मानस नहीं बदलने वाला।

मंत्री जी लगभग आश्वस्त हैं कि देश का 95 करोड़ मतदाता इस बात पर ध्यान नहीं देगा कि जिस जनता के ‘अच्छे दिन’ का वादा किया गया था वह भुला दिया गया है। महंगाई और बेरोजगारी ने युवाओं और मध्यम वर्ग को लाचार बना दिया है।स्वयं शिक्षा मंत्री के अपने मंत्रालय की हालत बहुत बुरी है। लोकसभा में एक प्रश्न का जवाब देते हुए मंत्री जी ने बताया कि केन्द्रीय विद्यालयों, नवोदय विद्यालयों और केन्द्रीय उच्च शिक्षा संस्थानों में 58,000 पद खाली हैं। पेट्रोल-डीजल और गैस सिलिन्डर में मिलने वाली सब्सिडी एक खोखले राष्ट्रवाद के अंदर बंद कर दी गई है। 

विरोध का स्वर जेल का आमंत्रण कार्ड है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बार बार न्यायपालिका की चौखट से प्रमाण पत्र लाने को मजबूर है फिर भी अगर कोई इसे ‘अमृतकाल’ कहना चाहता है तो वह स्वतंत्र है।


प्रधानमंत्री को प्रशस्ति-पत्रों की परंपरा को आगे बढ़कर स्वयं खत्म करना चाहिए। सदन में सीटें थपथपाने से माहौल तो बन सकता है लेकिन पूरे विश्व में सम्मान सिर्फ तब बढ़ेगा जब फिल्मों के ‘प्रतिबंध’ से ध्यान हटाकर रोजगार का ‘प्रबंध’ किया जाएगा और प्रशंसकों की फौज से आगे निकलकर विपक्ष से ‘संबंध’ स्थापित किया जाएगा और देश को तोड़ने और लूटने की इच्छा रखने वाले धर्मांध दलों/व्यक्तियों को सलाखों के पीछे ‘बंद’ किया जाएगा।