`हैमलेट’ शेक्सपीयर का एक ऐसा नाटक है जो पिछले सवा चार सौ बरसों से (ये माना जाता है कि ये सन् 1600 से 1601 के बीच लिखा गया) दुनिया भर के नाट्य प्रेमियों के दिल में बसा हुआ है। अमूमन हर रंगमंच निर्देशक मन में ये इच्छा रखता है कि कम से कम एक बार इसे निर्देशित कर दे और हर महत्त्वाकांक्षी अभिनेता ये ख्वाब पालता है कि जीवन में कम से कम एक मर्तबा हैमलेट का किरदार निभा ले। बहुत कम की ये हसरतें पूरी हो पाती हैं।
ये नाटक प्रतिशोध, प्रेम, परिवार और पति-पत्नी के बीच जटिल संबंध, कृतघ्नता, विश्वासघात, मानसिक उद्वेलन जैसे कई मनोभावों को समेटे हुए है। दुनिया भर के नाट्य निर्देशक इसे अपने तरीके से समझने और दिखाने की कोशिश करते रहे हैं और ये सिलसिला भारत में भी चलता रहा है। कुछ भारतीय नाट्य निर्देशकों ने अलग-अलग भाषाओं में मूल नाटक किया है तो कुछ ने इसे रूपांतरित करके खेला है। इस सूची में ताजा नाम है युवा रंगकर्मी दिव्यांशु कुमार का, जिन्होंने दिल्ली की `क्षितिज’ रंगमंडली के लिए पिछले दिनों श्रीराम सेंटर में इस नाटक को रूपांतरित करके `दार्जिलिंग वेनम’ नाम से किया।
इस नाम की पृष्ठभूमि में सर्प विष की तस्करी है। आजकल कई रेव-पार्टियों में कुछ नशेड़ी सांप के विषों का भी इस्तेमाल करते हैं। इसी को अंग्रेजी में `स्नेक वेनम’ कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे उनको खास तरह का किक मिलता है। इसी कारण सांपों और उनके विषों की तस्करी भी शुरू हो गई है। एक ऐसे ही तस्कर सिंडिकेट चलानेवाले शख्स और उसकी कारगुजारियों को लेकर `हैमलेट’ को रूपांतरित किया गया है और नाम रखा गया है `दार्जिलिंग वेनम’। नाटक की घटनाएं दार्जिलिंग में घटित होती हैं इसीलिए ये नाम रखा गया।
एक तस्कर है कार्सन विल्सन (लक्ष्य गोयल)। कार्सन अपने बड़े भाई हेक्टर विल्सन (आशीष शर्मा) की हत्या कर देता है क्योंकि वो जान गया था कि कार्सन सर्पविष की तस्करी करता है। भाई की हत्या के बाद कार्सन अपनी भाभी ग्लोरिया (भारती शर्मा) से शादी करनेवाला है। हालाँकि ग्लोरिया जानती है कि उसके देवर ने ही उसके पति की हत्या की है। उधर जब हेक्टर का पुत्र हेडन (श्वेतांक दीपक) दार्जिलिंग वापस आता है तो हेक्टर का भूत उसे बताता है कि उसकी (यानी हेक्टर की) हत्या की गई है। अब हेडन अपने पिता की हत्या का बदला लेना चाहता है। इधर, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो का एक अधिकारी इस तस्करी की जांच के लिए दार्जिलिंग पहुंचता है। घटनाएं तेजी से घटती हैं, कई तरह के षडयंत्र होते हैं और अंत में हेडन अपने पिता की हत्या का बदला लेते हुए अंत में खुद भी मारा जाता है।
`दार्जिलिंग वेनम’ दो दृष्टिकोणों से एक बेहतरीन नाटक है। एक तो इसका रूपांतरण मूल नाटक यानी हैमलेट की कथावस्तु के करीब है ही, साथ ही इसमें कुछ नए तत्व भी जोड़े गए हैं। जैसे इसमें नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के अधिकारी और जगदीश नाम के पुलिस कांस्टेबल वाले जो चरित्र हैं वो मूल नाटक से मिलते-जुलते नहीं हैं। लेकिन ये नए चरित्र इस कारण आए हैं कि जब कहानी में सर्पविष की तस्करी जोड़नी है तो इस तरह के किरदार ज़रूरी हो जाते हैं।
वैसे, ये `हैमलेट’ की ताक़त है कि उसे किसी भी देश या समाज के मुताबिक़ ढाला जा सकता है क्योंकि इसमें जो मूल बात है वो सिर्फ डेनमार्क केंद्रित (इस नाटक की घटनाएँ डेनमार्क में घटती हैं) नहीं है। वो वाकये किसी भी देश या समाज या कालखंड मे घट सकते हैं।
दूसरे इसमें अलग-अलग पात्रों के जो अभिनय हैं वे भी उम्दा हैं। हेडन, जो हैमलेट के चरित्र के इर्दगिर्द रचा गया है, की भूमिका निभानेवाले श्वेतांक दीपक शुरू में जब मंच पर प्रवेश करते हैं तो लगता नहीं कि वे अपने किरदार की जटिल भूमिका निभा पाएंगे क्योंकि तब उनके चेहरे पर आने वाले भाव ठीक से उभर नहीं पाते। लेकिन जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है वे अपने हावभाव से, संवादों से और अपनी शारीरिक भाषा से उस मनोभूमि में प्रवेश करते जाते हैं जो हैमलेट की जमीन है, जो होने और न होने’ के बीच फंसा हुआ है, जो मां से नाराज है और जो अपने चाचा को सख्त नापसंद करने लगा है और अपनी प्रेमिका ओश्मा (ईशाना शुक्ला) के लिए जजबाती भी है और उसके पिता से ग़ुस्सा भी करता है। हेडन प्रतिशोध की आग में जलता है और फिर उसी आग में भस्म भी हो जाता है।
विश्वरंगमंच के अत्यंत चुनौतीपूर्ण चरित्रों में एक है हैमलेट और उसे किसी भी भाषा या रूपांतर में निभाना एक चुनौती है। श्वेतांक बहुत हद तक इस चुनौती को निभाने में सफल रहे हैं। बाकी के कलाकारों में लक्ष्य गोयल, भारती शर्मा, आशीष शर्मा, शाहबाज हुसैन, वैभव त्रिपाठी भी प्रभावित करते हैं। पर यहां दो लोगों का नाम विशेष रूप से लेना जरूरी होगा। एक तो कब्र खोदनेवाले प्रभु का चरित्र निभानेवाले हर्ष मलिक। हर्ष शुरू में एक बेवड़ा लगते हैं पर धीरे धीरे वे प्रभु के चरित्र को वहां ले जाते हैं जहां वो `विजडम’ के करीब पहुंच जाता है और जिसमें हास्य भी है और गंभीरता भी। प्रभु हेडन को चेतावनी भी देता है प्रतिशोध को मत पालो क्योंकि ये उसे भी नष्ट कर देता है जो इसे पालता है। आखिर में यही होता है।
जिस अन्य अभिनेता का काम अलग से उल्लेखनीय है वो हैं राजा पांडेय। राजा ने जगदीश नाम के जिस कांस्टेबल का किरदार निभाया है वो आरंभ में एक भ्रष्ट पुलिस वाले का है किंतु आगे चलकर वो अपने सहयोगी की मौत का बदला लेने के लिए तस्करों से भिड़ जाता है और उसमें उसका खून भी हो जाता है। राजा पांडे अपने मामूली से दिखनेवाले पात्र को अपने अभिनय से गैरमामूली बना देते हैं।
अंत में युवा निर्देशक दिव्यांशु कुमार के लिए इतना कि उन्होंने जिस तरह `हैमलेट’ को एक नई भूमि पर रोपा वो बड़ा साहसी काम है। बहुत कम निर्देशक इस नाटक का मुक़ाबला कर पाते हैं और खेत होने से बचे रह पाते हैं क्योंकि `हैमलेट’ करना शेर की सवारी जैसा है। दिव्यांशु न सिर्फ बचे रहे गए बल्कि उन आगामी युवा निर्देशकों के लिए एक खाका भी पेश कर दिया है जो शेक्सपीयर की इस कृति को भविष्य में करना चाहते हैं। हालाँकि इस रूपांतरण में मूल रचना की कुछ चीजें छूट भी गई हैं जैसे इसमें `नाटक के भीतर नाटक’ नहीं है जैसा कि शेक्सपीयर के `हैमलेट’ में है। लेकिन जैसा कि पहले कहा गया, इसमें कुछ नई चीजें जोड़ी भी गई हैं जो इस क्षति की पूर्ति करती हैं। इस प्रस्तुति की वेशभूषा, प्रकाश परिकल्पना और मंच सज्जा भी आकर्षक रही।