देश के कई अन्य राज्यों की तरह ओडिशा में नाटक और रंगमंच की बहुत पुरानी परंपरा है। इतना समृद्ध कि भारतीय रंगमंच ने विश्व स्तर पर यदि रंगमंच का निर्यात किया है तो उसमें बड़ी भूमिका ओडिशा की है। चूंकि ओडिशा के कई जिलों में पहले तेलगु राजा भी हुआ करते थे इसलिए तेलगु रंगमंच वाले भी निर्यात पर दावा कर सकते हैं। मैं बात कर रहा हूं छाया - पुतली (जिसे अंग्रेजी में शायडो पपेट कहते हैं) नाटकों की।
आज इंडोनेशिया में जिस छाया- पुतली नाटकों की काफी लोकप्रियता है वो ओडिशा से ही गया है। दो सहस्राब्दियां पहले ओडिशा से कई व्यापारी नाव से समुद्र यात्रा करते हुए बाली-जावा- सुमात्रा आदि देशों और जगहों में व्यापार के लिए जाते थे और जैसा कि अन्य देशों और जगहों पर भी होता रहा है, व्यापारी जब अपने घर से दूर देश में जाते हैं तो साथ में अपनी कुछ परंपरा भी लेकर जाते हैं। छाया - पुतली इसी तरह इंडोनेशिया पहुंचा।
बहरहाल, पुराने जमाने की बात को फिलहाल छोड़ें और आज के यानी आधुनिक रंगमंच की बात करें तो कुछ खास चीजें रेखांकित की जा सकती हैं। एक तो ये कि भारत की आजादी के बाद देश के कुछ हिस्सों में जो आधुनिक रंग-आंदोलन शुरू हुआ वो ओडिशा को उस तरह प्रभावित नहीं कर सका जिस तरह हिंदी भाषी राज्यों- महाराष्ट्र, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में हुआ। अविभाजित बंगाल में तो आधुनिक किस्म के नाट्य लेखन की शुरुआत तो पहले ही हो चुकी थी और रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने उसकी एक सशक्त आधारशिला आजादी के पूर्व ही रख दी थी और आजादी के बाद बादल सरकार और अन्य रंगकर्मियों -लेखकों ने उस पर आधुनिक रंगमंच का एक विशाल भवन निर्मित किया। फिर हिंदी में धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, मराठी में विजय तेंदुलकर, कन्नड़ मे गिरीश कर्नाड जैसे नाटककारों की वजह से आधुनिक रंगमंच का दायरा और फैला। हालांकि ओडिशा में विजय मिश्र जैसे नाटककार हुए जिनके नाटक आधुनिक संवेदना के निकट थे। लेकिन उनका प्रभाव ओडिशा के समकालीन रंगमंच पर ही कम ही है। बाहर के राज्यों में तो विजय मिश्र अनजाना नाम है।
कौन से कारण हैं?
ओडिशा में लोकनाटकों की भी लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। यहां के गंजम जिले में `प्रह्लाद नाटक’ रात रात भर होते थे। जैसे कर्नाटक के `यक्षगान’। लेकिन यक्षगान को अखिल भारतीय स्वीकृति मिल गई है भले ही वो ज्यादातर कर्नाटक में ही होते हों। मगर `प्रह्लाद नाटक’ का रिवाज मोटे तौर पर गंजम जिले तक ही सीमित रहा।
फिर ओडिशा के भद्रक जिले में `मुगल तमाशा’ का रिवाज रहा। हालांकि ये दो ढाई साल ही पुराना है लेकिन समुद्र तटीय ओडिशा में इसकी लोकप्रियता थी। मिसाल के लिए कालाहांडी जैसे जिले में भी लोकनाटकों की धूम रही। लेकिन जैसा कि अक्सर होता है जब लोक नाटकों की परंपरा को थोड़ा आधुनिक नहीं बनाया जाता है तो वह अपनी चौहद्दी से बाहर नहीं निकल पाती। गिरीश कर्नाड जैसे नाटककारों ने लोक से भी बहुत कुछ लिया। किंतु ओडिशा में ऐसा कुछ नहीं हुआ।
ऐसा नहीं कि ओडिशा में आधुनिक नाटकों का मंचन नहीं होता। वो होता है। लेकिन भुवनेश्वर जैसे शहर में जो आधुनिक नाटक होते हैं वे ज्यादातर दूसरी भाषाओ में लिखित नाटकों के ओडिया अनुवाद होते हैं।
और उनकी संख्या भी पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र या कर्नाटक जैसे राज्यों की तुलना में कम ही होती है। भुवनेश्वर के वरिष्ठ रंगकर्मी अभिन्न राउतराय ओडिया में लगातार आधुनिक नाटक करते हैं। उन्होंने ओडिया नाटककार विजय मिश्र के भी नाटक किए हैं। साथ ही उन्होंने मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, विजय तेंदुलकर, मानव कौल के भी नाटक किए हैं। वैसे रंगमंच की दुनिया सार्वदेशिक होती है और इंग्लैंड जैसे देश के रंगकर्मियों की वजह से रूसी नाटककार चेखव के नाटक पूरी दुनिया में फैले। लेकिन स्थानीयता की संस्कृति भी सभी देशों मे दिखती है। ओडिशा में ये अनुपात में कम है। मगर आधुनिक रंगमंच के प्रसंग में ऐसा है। लोक नाटक काफी होते हैं।
ओडिशा में जन्मे और राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त निर्देशक सत्यव्रत राउत ने अभी अभी भुवनेश्वर में `स्पेस’ नाम से एक थिएटर ग्रूप और संस्थान बनाया है। उन्होंने यहां अभिनेताओं के प्रशिक्षण के लिए छह महीने का पाठ्यक्रम भी चलाना शुरू किया है। लगभग दस-बारह प्रशिक्षु इन दिनों उनके यहां प्रशिक्षण भी ले रहे हैं। वे राज्य के अलग अलग हिस्सों से हैं। ओडिया के एक वरिष्ठ रंगकर्मी और निर्देशक दर्प नारायण सेठी आजकल वहां अभिनय आदि का प्रशिक्षण भी दे रहे हैं। अभी ये पहला बैच है। सत्यव्रत अपने आवास पर ही एक प्रदर्शनस्थल भी विकसित कर रहे हैं और संभावना है कि अगले छह-सात महीने में ये पूरा हो जाए। ये जब पूरा हो जाएगा तो भुवनेश्वर- कटक में आधुनिक ओडिया रंगमंच को गति मिलेगी क्योंकि भुवनेश्वर -कटक (जो ओडिशा के जुड़वा बड़े शहर हैं) में ऑडिटोरियम की भी कमी है। रबीन्द्र मंडप और भुंज मंडप यहां के बड़े प्रेक्षागृह हैं। पर उनका भी आधुनिकीकरण होना बाकी है।
नाटकों की संस्कृति ज्यादा फैले इसके लिए ये भी जरूरी है कि रंगमंच के कलाकारों के मिलने बैठने की कोई जगह हो। दिल्ली में श्री राम सेंटर और मुंबई में पृथ्वी थिएटर ऐसे जगह हैं। कोलकाता में तो कई जगहें हैं। पर भुवनेश्वर - कटक में ऐसी कोई जगह नहीं। पारंपरिक या लोकरंगमंच किसी गांव में विकसित होता है लेकिन शहरी रंगमंच के लिए जो वातावरण चाहिए उसके लिए चाय- दुकान या कैफे भी चाहिए। हालांकि `ओडिशा नाट्य संघ’ एक अत्यंत सक्रिय नाट्य संगठन है और राज्य सरकार के सहयोग से ये हर साल नाटकों का समारोह भी करता है जिसमें हिंदी नाटक भी होते हैं। ओडिशा में जात्रा नाटक भी होते हैं जो आर्थिक रूप से स्वावलंबी भी होते हैं और अभिनेताओं को वेतन- पैसा भी देते हैं। पर चूंकि ये व्यावसासिक होते हैं इसलिए इनका सौंदर्यशास्त्र कुछ अलग किस्म का होता है।
रोबिन दास, चित्तरंजन त्रिपाठी, सत्यव्रत राउत जैसे मूल ओडिया के रंगकर्मी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जगह बना चुके हैं। किंतु ये याद रखना होगा कि इनकी ख्याति इसलिए भी बढ़ी क्योंकि ये राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक रहे। बेहतर होगा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय भुवनेश्वर में भी एक केंद्र खोले जैसे उसने बंगलुरू, वाराणसी और अगरतला में खोले हैं। ऐसे समय में जब फिल्म या वेबसीरिज आदि बनने में काफी बढ़ोतरी हुई है ओडिशा के युवा भी अभिनय और परिकल्पना आदि का प्रशिक्षण लेने के लिए ज्यादा उत्सुक हो रहे हैं। वैसे यहां की राज्य सरकार भी अपना नाट्य विद्यालय खोल सकती है जैसा कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारों ने किया है। पर इसके लिए आधुनिक रंगमंच के लिए उत्साही लोगों की तरफ से मांग होनी चाहिए।