देश के जाने-माने समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर समाजवादी आंदोलन के समर्पित योद्धा हैं। वे डॉ लोहिया को विचारते और गांधी को जीते हुए, समतामूलक समाज की संरचना को समर्पित हैं। रघु ठाकुर कई किताबें लिख चुके हैं, जो काफी चर्चित और लोकप्रिय रही हैं। वर्ष 2024 के अंत में रघु ठाकुर की एक नई किताब 'समस्या और समाधान' प्रकाशित गयी है। इस किताब को 'वीएल मीडिया सॉल्यूशन' नामक प्रकाशन ने मूर्त रूप दिया है।
216 पेजों की 'समस्या और समाधान' नामक यह किताब 6 खंडों में विभाजित है। रघु ठाकुर के पुराने लेखों (जो आज भी बहुत प्रासंगिक है) को एकत्रित करके 'समस्या और समाधान' नामक किताब की शक्ल के रूप में पेश किया गया है। किताब महात्मा गांधी को समर्पित की गयी है। 'समस्या और समाधान' नामक यह किताब लोकप्रियता हासिल करते हुए खूब सराही जा रही है।
ऐसे में यह जानना दिलचस्प हो जाता है कि, किताब क्या कहती है और किताब के माध्यम से लेखक क्या सन्देश, नैतिक बल देना चाहते हैं। तो चलिए जरा अपनी आंखों का रुख़ किताब के पन्नों की तरफ करते हैं और देखते हैं कि, किताब का अंदाज-ए-बयां क्या है।
किताब के शुरुआती दो पन्नों को वरिष्ठ पत्रकार और समीक्षक जयराम शुक्ल ने अपने शब्दों में भूमिका के रूप में पेश किया है। किताब की भूमिका में शुक्ल बयां करते हैं कि रघु ठाकुर हमारे समय के ऐसे विलक्षण विचारक और नेतृत्वकर्ता है, जिनके आचरण में कोई आवरण नहीं। उनके विचारों की दीपशिखा अनावृत है। 21 वीं सदी में गांधी का आचरण और लोहिया का विचार किसी मनुष्य की आकृति में जीवंत होगा तो उसका स्वरूप रघु ठाकुर जैसा होगा। आगे वे लिखते हैं कि, रघु जी विधानसभा और संसद के कभी सदस्य नहीं रहे, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों और संविधान का जो मर्म उनमें है वह संभवतः अधिसंख्य सांसदों और विधायकों में नहीं है।
जयराम शुक्ल, इसके आगे किताब के संबंध में जिक्र करते हैं कि, किताब 'समस्या और समाधान' में 39 लेख संग्रहीत हैं। जो विषय के चरित्रानुसार कानून, न्यायपालिका, समाजवाद और पूंजीवाद, गांधी, लोहिया, शिक्षा और भाषा, नारी, किसान के नाम से दिए गए हैं। किताब के ये सभी लेख एक स्वतंत्र विमर्श खड़ा करते हैं।
आगे किताब के संपादक शिवा श्रीवास्तव किताब में अपनी ओर से लिखते हैं कि, रघु ठाकुर के लेखों को पुस्तक के रूप में लाने का विचार मेरे मन में दो-तीन वर्षों से चल रहा था। तब कई चुनौतियों के बाद यह किताब आप सब के बीच आ पायी है। किताब का बीज प्रोफेसर जयंत सिंह तोमर द्वारा डाला गया। जयंत ने एक दिन चर्चा में मुझसे यह कहा कि, मैं रघु भाईसाहब के लेखों का संकलन करना प्रारंभ करूं। तब से ही यह क्रम आरंभ हुआ। ऐसे में आज यह किताब रूपी दस्तावेज आपके समक्ष है।
किताब में 11 से 13 पेज के बीच रघु ठाकुर अपना हाल-ए-दिल बयां करते हैं। वह किताब को पाठकों के हवाले करते हुए उल्लेख करते हैं कि, किताब के संपादक 'शिवा श्रीवास्तव' ने मेरे विभिन्न लेखों को किताब का रूप देने के लिए जब मुझसे सहमति मांगी, तब मैं चिंता में पड़ गया। मेरी चिंता यह थी कि, क्या मेरे पुराने लेखों से देश या समाज को कुछ रास्ता मिल सकेगा और इन समस्याओं के समाधान के चिंतन से समाज का भला होगा?
रघु आगे लिखते हैं कि यह चिंता मैंने अपने कुछ साथियों से जाहिर की, तब उन्होंने मुझे भरोसा दिया कि, आपके लेख आज भी उतने ही प्रासंगिक है, जितने पहले थे। मैंने खुद इन लेखों का पुनः पढ़ा तब मेरी भी यह राय बनी की लेख भले पुराने हैं, पर लेखों की विषयवस्तु, ताजगी और उपयोगिता बरकरार है। ऐसे में समाज को एक नई राह देने के किताब प्रकाशित की जानी चाहिए। ऐसे में यह किताब आप सब के बीच आज मूर्त रूप ले पाई है।
किताब को आंखों से देखने और पढ़ने की इस यात्रा में जब हम किताब के पहले खंड पर पहुंचते हैं, तब पहले खंड का शीर्षक हमें 'कानून और न्यापालिका' दर्ज मिलता है। यह खंड 19 से 45 पेज के बीच अपने आप को समेटे हुए है। ये खंड देश के कानून और न्यायपालिका की खामियों को उजागर करते हुए हमारे सम्मुख लाता है।
इस खंड का एक लेख धारा 144 के दुरुपयोग पर आधारित है। लेख में उल्लेख किया गया कि, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बोलने की आजादी दबाने के लिए धारा 144 लगाना सत्ता का दुरुपयोग है। वहीं, इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाना पूर्णतः गलत है। इंटरनेट नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है।
इस खंड में आगे हैदराबाद की डॉ प्रियंका रेड्डी के साथ दुष्कर्म और हत्या की बर्बर घटना का ज़िक्र करते हुए व्यक्त किया गया कि, इस बलात्कार का पोर्न वीडियो 80 लाख लोगों ने देखने का प्रयास किया। नारी के विरूद्ध इस तरह की बर्बरता रोकने के लिए फास्ट ट्रक कोर्ट, मीडिया में नारी की नंग्नता पर प्रतिबंध की अपरिहार्यता है। वहीं, बलात्कार, हत्या और डकैती जैसे अपराधों में सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम हो, यह नितांत प्रयोजनीय है।
इसके आगे खंड में संवैधानिक अधिष्ठानों के प्रति पनपते अविश्वास, कानून व्यवस्था के कुप्रबंध पर चिंता जाहिर करते हुए लिखा गया कि, कई मर्तबा न्यायपालिका की पारदर्शिता लंगड़ा जाती है। ऐसे में न्यायपालिका की पारदर्शिता को सुदृढ़ बनाने की दरकार है, ताकि न्यायपालिका के एतबार में इज़ाफ़ा हो।
किताब के पेज 53 से 69 के मध्य खंड दो संजीदगी से संजोया गया है। इस खंड का नाम 'समाजवाद एवं पूंजीवाद' है। खंड में मुख़्तलिफ़ पहलुओं पर चर्चा करते हुए बुराई रूपी अंधकार पर अच्छाई रूपी प्रकाश डालने की ओर गौर फ़रमाया गया है, ताकि अच्छाई रूपी प्रकाश से गरीबी, भुखमरी विषमता, अन्याय व अपराध के अंधकार को जलाकर खाक किया जा सके।
फिर, इसके उपरांत खंड में पेश किया गया कि, भारतीय लोक कला और शिल्प कला में समाजवाद समाया हुआ है। लोक शिल्प, लोक नृत्य और लोक कला प्राचीन समाजवाद के पर्याय हैं।
इसके अनंतर खंड में पूंजीवाद की विकृतियों को सामने लाते हुए यह बताया गया कि, पूंजीवाद आम आदमी केन्द्रित ना होकर पूंजीपति केन्द्रित होता है। वहीं, पूंजीवाद और सत्ता आज के दौर के दो पहलू बन गये हैं, यह बतलाते हुए आगाह किया गया कि, आवश्यकता पूंजीवाद को आम आदमी केंद्रित बनाने की नहीं है, बल्कि विषमता को मिटाकर समता का समाज निर्मित करने की है। समाज के लिए गांधी और लोहिया का यही स्वप्न था।
किताब का तीसरा खंड 75 से पेज 100 के बीच गुथा गया है। इस खंड का शीर्षक 'गांधी और लोहिया' है। यह खंड गांधी और लोहिया के प्रखर विचारों को बयां करता है। इस खंड में हम सब के समक्ष यह विचार लाया गया कि, गांधी को पूजने के बजाय अमल करना चाहिए। गांधी के कर्म को जीवन में उतारना चाहिए। महात्मा गांधी ऐसी दुनिया का सृजन करना चाहते थे, जिसमें हथियार वह हिंसा रूपी भय की कोई आवश्यकता ना हो। मगर, जिस तरह से रायपुर धर्म संसद आयोजन में कालीचरण साधु नामक भगवाधारी ने गांधी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग किया उससे यह समझ आता कि, समाज में नकली साधु बनकर अपराधी गांधी को एक बार और मारना चाहते हैं, जो नामुमकिन है।
खंड में आगे वर्णन किया गया कि, डॉ राम मनोहर लोहिया केंद्र, राज्य, जिला व ग्राम के आधार पर शासन का ढांचा खड़ा करना चाहते थे, मगर ये हो ना सका। लोहिया लघु इकाई तकनीक के पक्षधर भी थे, जिसमें कम पूंजी से ज्यादा रोजगार पैदा हो। लेकिन, भारतीय संविधान में इस विचार को कोई जगह नहीं मिल पाई।
खंड यह भी कहता है कि, भारतीय संविधान में महात्मा गांधी और डॉक्टर लोहिया की मूल प्रतिबद्धताओं का समावेश नहीं हो सका। हालांकि, आज भी यह प्रतिबद्धताएं यथार्थ परक सैद्धांतिक और भारतीय परिस्थितियों के सर्वदा अनुकूल हैं।
खंड में यह भी समाहित है कि, संविधान में रोजगार को मूल अधिकार बनाने के बारे में भी प्रावधान नहीं जुड़ सका। डॉक्टर लोहिया बेरोजगारी की दुस्साध्य दशा समझते हुए रोजगार को मूल अधिकार बनाने के हिमायती थे।
किताब का खंड चार 107 से 140 पेजों के बीच समाविष्ट है। इस खंड का नामकरण 'शिक्षा और भाषा' के रूप में है। खंड में कहा गया है कि, निजी शिक्षण संस्थाओं को अनुमति और फलने -फूलने की सहूलियत देकर एक ऐसी चित्ताकर्षक चुनौती सामने खड़ी कर दी है कि सरकारी शिक्षा और शिक्षण संस्थाएं पंगु जैसी बन गयी हैं। वहीं खंड में नई शिक्षा नीति के विविधतापूर्ण पहलुओं की परख करते हुए सरकार से अपील की गयी कि, सबको सम्पूर्ण निःशुल्क समान, अनिवार्य और योग्यतानुसार शिक्षा व्यवस्था का कानून बनाया जाये। विदेशी विश्वविद्यालयों के ऊपर रोक लगाए, क्योंकि ये विश्वविद्यालय शिक्षा, रोजगार और सभ्यता के वाहक होते हैं और पूंजी के मालिकों के अनुसार ही नागरिक गढ़ते हैं।
खंड में आगे सम्मिलित किया गया कि, भाषा की राजनीति से हिंदी भाषा की गरिमा को ठेस पहुंच रही हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए राष्ट्र भाषा की जरूरत को समझाते हुए, यह अपील भी की गई कि, भारत सरकार क्षेत्रीय भाषाओं के प्रवर्द्धन और संरक्षण के साथ-साथ राष्ट्रभाषा बनाने के लिए अपने कर्तव्य का निर्वहन करे।
पुस्तक का पांचवां खंड 149 पेज से 172 के बीच उल्लिखित है। इस खंड का विषय 'नारी' है। इस खंड में पितृसत्तात्मक समाज में नारी का संघर्ष और बढ़ती ताक़त का बखान किया गया है। इसके साथ खंड में हनी ट्रैप कांड का जिक्र करते हुए वर्णित किया गया कि, इस कांड के बाद जिम्मेदार लोग चुप्पी सादे हुए हैं। वहीं, हमारा समाज कितना पुरुषवादी है, इसे हनी ट्रैप कांड के पश्चात मीडिया के समाचारों ने प्रमाणित कर दिया।
इसके साथ-साथ खंड में लोहिया की दृष्टि को ध्यान में रखकर महिला आरक्षण पर प्रकाश डालते हुए व्यक्त किया गया कि, दशकों से महिला आरक्षण बिल राजनीतिक खेलों का शिकार होता रहा है। जबकि, महिला आरक्षण पर फैसला के बजाए इसे सियासी रंग दे दिया जाता है।
इस किताब का छठवां और आखिरी खंड 179 पेज से 213 पेज तक समन्वित है। इस खंड में विविध विषय संकलित किए गये हैं। खंड में पर्यावरण, समाज, आदिवासी, ज़मीन पर आधारित लेख प्रविष्ट हैं। इन लेखों के जरिए समाज, शासन और नीतियों में फैली अव्यवस्थाओं को सुधारात्मक दृष्टिकोण देते हुए तर्क संगत क्रियान्वयन पर जोर दिया गया है।
अन्ततः 'समस्या और समाधान' नामक इस गौरवशाली किताब को लेकर मैं यही कहना चाहता हूं कि रघु ठाकुर की यह किताब देश में कानून व्यवस्था की आचारभ्रष्टता और गंभीर मुद्दों की पड़ताल करते हुए समाधान का नया रास्ता सुझाती है। साथ-साथ यह भी वाकिफ़ कराती है कि, गांधी और लोहिया के मार्ग पर चलकर ही एक समतामूलक, चरित्रवान और श्रेष्ठ समाज का प्रणयन किया जा सकता है।