अखिलेश की रणनीति से बीजेपी में बेचैनी क्यों है? 

07:22 am Jan 25, 2022 | प्रीति सिंह

उत्तर प्रदेश चुनाव में जीत के लिए बिसात बिछाने की विभिन्न दलों की कवायद चरम पर है। तमाम दिग्गज नेता इस दल से उस दल की तरफ़ पलायन करने में लगे हैं। ऐसे में राज्य के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (सपा) में नेताओं के शामिल होने में कुछ अस्वाभाविक नहीं नज़र आता। वहीं अगर सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो सपा जाति से जमात के दल की ओर बढ़ती नज़र आ रही है। सपा के गुलदस्ते में तमाम ऐसे नेता शामिल हो चुके हैं, जिनकी समाज के पिछड़े तबक़े में अच्छी खासी पैठ है।

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का गठन ऐसे समय में हुआ था, जब देश में मंडलवादी राजनीति चरम पर थी। पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने चौधरी चरण सिंह के साथ किसान राजनीति शुरू की थी। लेकिन 4 अक्टूबर, 1992 को समाजवादी पार्टी की स्थापना के वक़्त अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) एक राजनीतिक शक्ति के रूप में आ चुका था और ऐसे में मुलायम सिंह यादव पिछड़ी जातियों (बीसी) के नेता के रूप में राष्ट्रीय पटल पर स्थापित हुए। 

वह ऐसा दौर था, जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पिछड़ी जातियों के उभार को सूंघ चुकी थी और उत्तर प्रदेश में ही नहीं, पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले गोविंदाचार्य देश भर में पिछड़ी जातियों को आरएसएस-भाजपा से जोड़ने में जुट गए थे। भाजपा ने राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी, कलराज मिश्र को दरकिनार कर लोधी-राजपूत जाति के नेता कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश में पार्टी का चेहरा बना दिया था।

कल्याण सिंह के हाशिये पर जाने के साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा हाशिये पर चली गई। सपा और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की ताक़त बढ़ती गई। मंडल व कमंडल की लड़ाई में मंडल विजेता बनकर उभरा। राजनीति, प्रशासन से लेकर संपदा तक से वंचित हाशिये की जातियों ने राज्य में कभी सपा और कभी बसपा के रूप में अपनी सरकार देखी।

वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक रंगमंच के राष्ट्रीय पटल पर ओबीसी में आने वाली घांची (तेली) जाति के नरेंद्र मोदी के आने से उत्तर प्रदेश की राजनीति ही बदल गई। मोदी को उत्तर प्रदेश ने अपना नेता मान लिया और 2014 व 2019 का लोकसभा चुनाव व 2017 का विधानसभा चुनाव मुख्य रूप से मोदी के चेहरे पर ही लड़ा गया और बीजेपी को अपार सफलता देखने को मिली। 

2019 के लोकसभा चुनाव में दलित-पिछड़े गठजोड़ की सपा-बसपा की कवायदें भी बुरी तरह से धराशायी हुईं। इसकी एक साफ़ वजह यह नज़र आती है कि आरएसएस-बीजेपी के आक्रामक प्रचार ने सपा और बसपा को जाति विशेष के दायरे में बांध दिया और यह प्रचारित किया गया कि सपा यादवों और बसपा जाटवों का दल है। इस प्रचार में बीजेपीको स्पष्ट रूप से सफलता मिली।

सपा ने अपने संविधान की धारा-2 में उल्लेख किया है, “महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों एवं पिछड़ों के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत में पार्टी का विश्वास है। समतापूर्ण समाज की स्थापना के लिए पार्टी इसे ज़रूरी समझती है।” पार्टी के संविधान में स्पष्ट उल्लेख के बावजूद ऐसा नहीं है कि सपा के ऊपर जाति विशेष दल का होने का आरोप केवल हवा-हवाई था। मुलायम सिंह के दौर में ही सपा में बेनी प्रसाद वर्मा सहित तमाम बड़े समाजवादी नेता हाशिये पर जा चुके थे। पार्टी में दूसरा स्थान मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव ने ले लिया और वह सुपर सीएम बनकर उभरे, जिनके पास मुख्यमंत्री के बाद सर्वाधिक ताक़त थी। 

इसके अलावा पार्टी ने एक वह दौर भी देखा, जब सपा में पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह के साथ खाने की टेबल पर बैठने के लिए उनके पुत्र व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, विधायक व यूपी के सबसे ताक़तवर मंत्री शिवपाल यादव, पार्टी महासचिव व सांसद रामगोपाल यादव, सांसद डिंपल यादव, सांसद धर्मेंद्र यादव, सांसद तेज प्रताप यादव, ज़िला पंचायत अध्यक्ष अंशुल यादव, ज़िला सहकारी बैंक, इटावा की राज्य प्रतिनिधि सरला यादव, ज़िला पंचायत अध्यक्ष संध्या यादव, ब्लॉक प्रमुख अरविंद यादव, ज़िला पंचायत सदस्य शीला यादव एक साथ आते थे। यानी परिवार के खाने की मेज पर संसद से लेकर विधानसभा और स्थानीय निकाय सज गया। सपा पर प्रशासनिक नियुक्तियों और भर्तियों में यादव जाति के लोगों को संरक्षण देने के आरोपों को इन आँकड़ों ने विशेष धार दिया। सपा जमात से जाति और जाति से परिवार तक सिमटती गई।

इस बीच हिंदुत्व पर जाति का लेप लगाकर मैदान में उतरी बीजेपी को जबरदस्त मौक़ा मिल गया कि वह खुद को पिछड़ी जातियों के हितैषी के रूप में प्रस्तुत करे।

उत्तर प्रदेश में पार्टी ने किसी को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं किया, लेकिन उसने बाल संघी रहे केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी अध्यक्ष बनाकर ओबीसी चेहरे के रूप में पेश किया। अनुप्रिया पटेल के ‘अपना दल’ और ओम प्रकाश राजभर के ‘सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी’ के साथ गठबंधन बनाया। बसपा से स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे बड़े चेहरे को मैदान में लाई। और इसके साथ ही राज्य में पिछड़ी जातियों के दल के रूप में बीजेपी ने अपना विकल्प पेश कर दिया।

लगातार 3 चुनावों में बुरी तरह मात खाई सपा ने बीजेपी की इस राजनीति को पकड़ा। ऐसा नहीं कि सपा के पास तमाम पिछड़ी जातियों के नेता नहीं थे। कुर्मी जाति के नेता नरेश उत्तम सहित रामजीलाल सुमन, रमेश प्रजापति, राजपाल कश्यप, रामआसरे विश्वकर्मा, जगपाल दास गुर्जर, श्यामलाल पाल, मिठाई लाल भारती, हरिश्चंद्र प्रजापति, विनय पाल, सुधाकर कश्यप आदि शामिल हैं, जो स्थानीय रूप से जनता में अच्छी पकड़ रखते हैं। लेकिन ये नेता चर्चा में नहीं रहते। ऐसा लगता है कि पार्टी में मुलायम सिंह परिवार ही सर्वेसर्वा है।

जाति विशेष या परिवार विशेष का दल होने का ठप्पा हटाने के लिए सपा ने इस बीच तमाम कवायदें कीं। इसमें मीडिया के सामने अपने परिवार या यादव जाति के नेताओं को सामने न लाना, प्रदेश अध्यक्ष सहित अन्य तमाम नेताओं के अधिकार देना शामिल है। चुनाव के पहले व्यापक जनाधार वाले पिछड़ी जातियों के नेताओं को दल में शामिल करने की मंशा इसी कवायद का हिस्सा नज़र आती है। 

पाल समाज के बसपा नेता त्रिभुवन दत्त, कैप्टन इंदर सिंह पाल, प्रभु दयाल चौहान, राकेश राजपूत, बीके सैनी, अशोक सैनी, राजाराम चौहान आदि जैसे तमाम स्थानीय नेताओं को पार्टी में शामिल किया। वहीं बसपा प्रमुख मायावती के दाहिने हाथ रहे लालजी वर्मा और बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे रामअचल राजभर को चुनाव के बहुत पहले सपा के गुलदस्ते का हिस्सा बना लिया। साथ ही मौजूदा बीजेपी सरकार के मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी को सपा ने अपने दल में ले लिया।

इन नेताओं के सपा में शामिल होने से पिछड़ी जातियों में एक संदेश गया है कि सपा अब जाति विशेष की पार्टी नहीं रही। पार्टी इस कवायद में सफल नज़र आ रही है कि वह जाति की नहीं, जमात की पार्टी है। राज्य के तमाम ओबीसी नेताओं ने सपा को जमात का दल होने की अवधारणा लाने में अहम भूमिका निभाई है। बीजेपी खेमे में बेचैनी की यह बड़ी वजह है, क्योंकि उसकी सफलता के पीछे इन उपेक्षित पिछड़ी जातियों की अहम भूमिका रही है।