मैनपुरी लोकसभा सीट पर उपचुनाव के लिए चुनावी दंगल शुरू हो चुका है। मुलायम सिंह की विरासत को बचाने के लिए अखिलेश यादव ने अपनी पत्नी डिंपल यादव को चुनाव मैदान में उतारा है। बीजेपी इस सीट पर आजमगढ़ और रामपुर की तरह कमल खिलाने की पुरजोर कोशिश कर रही है। इस चुनाव में अखिलेश यादव के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं। एक तरफ जहां माना जा रहा है कि चाचा शिवपाल की मदद के बगैर अखिलेश अपनी पत्नी डिंपल को नहीं जिता पाएंगे वहीं चुनावी दंगल में बीएसपी की गैरमौजूदगी मुकाबले को रोचक बना रही है।
सवाल उठ रहा है कि क्या बीएसपी की गैरमौजूदगी सपा को नुकसान पहुंचा कर बीजेपी को कमल खिलाने में मदद करेगी?
मैनपुरी में कितनी मजबूत है बसपा?
मैनपुरी के उपचुनाव में बसपा की गैरमौजूदगी में उसका वोट किस तरफ जाएगा, इसका नतीजों पर गहरा असर पड़ेगा। इस लोकसभा सीट पर बीएसपी कभी जीत नहीं पाई लेकिन अलग-अलग लोकसभा चुनाव में उसे 14 से 31% वोट मिलते रहे हैं। यह माना जाए कि इस सीट पर बीएसपी का करीब 15% वोट पक्का है। लोकसभा के उपचुनाव में इतने वोट नतीजों को निश्चित रूप से प्रभावित करेंगे।
गौरतलब है कि 2019 में सपा-बसपा गठबंधन में मैनपुरी सीट मुलायम सिंह यादव सिर्फ 95 हजार वोटों से जीते थे। उन्हें पिछली बार के मुकाबले करीब 11% कम वोट मिले थे। गठबंधन के बावजूद बीजेपी के उम्मीदवार प्रेम सिंह शाक्य ने उन्हें पूरे लोकसभा क्षेत्र में कड़ी टक्कर दी थी। 2019 में मुलायम सिंह को 5,24,926 और प्रेम सिंह शाक्य को 4,30,537 वोट मिले थे। मुलायम सिंह को 53.75% और प्रेम सिंह शाक्य को 44.09% मिले थे।
मायावती ने की बीजेपी की मदद?
मायावती पर आरोप है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के बाद हुए दो लोकसभा उपचुनाव में उन्होंने सपा को नुकसान पहुंचा कर बीजेपी को जिताने में मदद की है। गौरतलब है कि मायावती ने आजमगढ़ में दो बार के विधायक रहे अपने पुराने भरोसेमंद नेता गुड्डू जमाली को लोकसभा उपचुनाव में उतारा था। उन्हें करीब ढाई लाख वोट मिले और समाजवादी पार्टी अपनी सबसे मजबूत समझी जाने वाली ये लोकसभा सीट हार गई थी। रामपुर में मायावती ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था।
उपचुनाव में यह सीट भी समाजवादी पार्टी हार गई थी। राजनीतिक हलकों में यह धारणा बन चुकी है कि आजमगढ़ में मायावती ने उम्मीदवार उतारकर बीजेपी की मदद की तो रामपुर में उम्मीदवार नहीं उतार कर। इसी तरह हाल ही में लखीमपुर खीरी की गोला गोकर्णनाथ सीट पर हुए विधानसभा उपचुनाव में भी मायावती ने उम्मीदवार नहीं उतारा था। यहां भी समाजवादी पार्टी बुरी तरह हारी है।
क्या संदेश दे रही हैं मायावती?
राजनीति में सारा खेल संदेशों का है। राजनेता अपने फैसलों से राजनीतिक संदेश देते हैं। सवाल उठता है कि आखिर मायावती उपचुनाव में कहीं उम्मीदवार उतारती हैं और कहीं नहीं। माना जाता है कि उनके हर कदम से बीजेपी को फायदा होता है और समाजवादी पार्टी को नुकसान। तो फिर मायावती संदेश क्या देना चाहती हैं इसे समझने के लिए उनके हाल ही में दिए गए एक बयान को देखना होगा। गोला गोकर्णनाथ विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में हार के बाद मायावती ने समाजवादी पार्टी पर हमला बोला था।
मायावती ने ट्वीट करके कहा था, 'यूपी के खीरी का गोला गोकर्णनाथ विधानसभा उपचुनाव भाजपा की जीत से ज्यादा सपा की 34,298 वोटों से करारी हार के लिए काफी चर्चाओं में है। बीएसपी जब अधिकांशतः उपचुनाव नहीं लड़ती है और यहां भी चुनाव मैदान में नहीं थी, तो अब सपा अपनी इस हार के लिए कौन सा नया बहाना बनाएगी?'
मायावती के मन में क्या है?
मैनपुरी में मायावती क्या चाहती हैं, इसे समझने के लिए उनके दूसरे ट्वीट को देखना होगा। अपने अगले ट्वीट में मायावती ने कहा था, 'अब अगले महीने मैनपुरी लोकसभा व रामपुर विधानसभा के लिए उपचुनाव में, आजमगढ़ की तरह ही, सपा के सामने अपनी इन पुरानी सीटों को बचाने की चुनौती है। देखना होगा कि क्या सपा ये सीटें भाजपा को हराकर पुनः जीत पाएगी या फिर वह भाजपा को हराने में सक्षम नहीं है, यह पुनः साबित होगा।'
जाहिर है कि मायावती यही संदेश देना चाहती हैं कि अखिलेश यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी बीजेपी से मुकाबला करने में सक्षम नहीं है। ऐसा करके वह भविष्य में अपने पुराने जिताऊ दलित-मुस्लिम गठजोड़ को फिर से मजबूत करना चाहती हैं। मायावती ने जिस बैठक में मैनपुरी के उपचुनाव में उम्मीदवार नहीं उतारने का फैसला किया था। उसमें उन्होंने अपने नेताओं से यह भी कहा था कि वे अगले संदेश का इंतजार करें।
क्या होगा मायावती का अगला संदेश?
बसपा के कार्यकर्ताओं के बीच मायावती का अगला संदेश क्या होगा, इसे लेकर कई तरह के कयास हैं। गौरतलब है कि बीएसपी के पास अपना मजबूत वोट बैंक है। मायावती जब चाहे इस वोट बैंक को किसी दूसरी पार्टी में ट्रांसफर कराने की क्षमता रखती हैं। कयास लग रहे हैं कि मायावती बीजेपी को अपना वोट ट्रांसफर कराने का संदेश दे सकती हैं।
अगर ऐसा होता है तो यहां डिंपल की हार सुनिश्चित हो जाएगी। मायावती कई बार सार्वजनिक रूप से अपना वोट बीजेपी को ट्रांसफर करने की बात कहती रही हैं। 2006 में हुए स्थानीय निकाय के चुनाव में मायावती ने कहा था कि बीएसपी की मौजूदगी की वजह से कट्टरपंथी मुसलमान जीत जाते हैं। मुसलमान न जीतें, इसलिए बसपा कार्यकर्ता बीजेपी को वोट दें। इसे लेकर मायावती की तीखी आलोचना भी हुई थी। विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद मायावती अपने पुराने दलित-मुस्लिम गठजोड़ को जिंदा करने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं।
मैनपुरी में कितना है बसपा का असर?
1996 से लेकर 2014 तक हुए लोकसभा के सभी चुनाव और उपचुनाव में बीएसपी को 14 से लेकर 31% तक वोट मिले हैं। साल 1996 में बीएसपी के भगवत दास शाक्य को 16% वोट मिले थे। वह तीसरे स्थान पर आए थे। लेकिन 2004 में बीएसपी के अशोक शाक्य ने मुलायम सिंह को टक्कर दी थी। मुलायम सिंह यादव को जहां 63.6% वोट मिले थे वहीं बीएसपी के अशोक शाक्य 17.03% वोट हासिल करके उनसे हारे थे। बीजेपी के बलराम सिंह यादव तीसरे स्थान पर रहे थे। उसी साल हुए उपचुनाव में बीएसपी के अशोक शाक्य ने सपा के धर्मेंद्र यादव को टक्कर दी थी। धर्मेंद्र यादव को 62.64% वोट मिले थे तो अशोक शाक्य को 30.39% वोट मिले थे। इस चुनाव में बीजेपी के रामबाबू कुशवाहा 14,540 वोटों पर सिमट कर रह गए थे।
2009 में मिले सबसे ज्यादा वोट
साल 2009 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को मैनपुरी में सबसे ज्यादा वोट मिले थे। बीएसपी के विनय शाक्य को मुलायम सिंह के खिलाफ 31.5% वोट मिले थे। मुलायम सिंह यादव 56.4% वोट लेकर जीते थे। 2014 में बीएसपी का ग्राफ गिरा था। तब बीएसपी की उम्मीदवार संघमित्रा मौर्य को सिर्फ 14.29% वोट मिले थे। जबकि बीजेपी के शत्रुघ्न सिंह चौहान को 23.14% वोट मिले थे। उसी साल हुए उपचुनाव में बीएसपी ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था। इसका फायदा समाजवादी पार्टी के तेजप्रताप सिंह यादव को हुआ था। उन्हें उपचुनाव में मुलायम सिंह से भी ज्यादा 66.64% वोट मिले थे।
2019 में सपा-बसपा गठबंधन से मुलायम सिंह यादव चुनाव जीते थे। लेकिन तब उन्हें 2014 के मुकाबले करीब 70 हजार कम वोट मिले थे। वोट प्रतिशत की बात करें तो मुलायम सिंह को लगभग 11% वोट कम मिले थे। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना था कि अगर बसपा से गठबंधन न होता तो मुलायम सिंह मैनपुरी से हार जाते।
मैनपुरी लोकसभा सीट पर पिछले दो दशकों के चुनावी आंकड़े बताते हैं कि बसपा यहां कमजोर नहीं है। उसकी गैरमौजूदगी चुनावी नतीजों को प्रभावित करेगी। अगर मायावती समाजवादी पार्टी को नुकसान पहुंचाने पर उतर आएं तो उनके एक इशारे से मैनपुरी में डिंपल यादव चुनाव हार सकती हैं।
इससे अखिलेश यादव की प्रतिष्ठा धूल में मिल सकती है। इससे मायावती ये साबित करने में कामयाब हो सकती हैं कि अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत संभालने के लायक नहीं हैं। सबकी निगाहें इस पर टिकी हैं कि चुनाव में मायावती क्या रूख़ अपनाती हैं।