आज़मगढ़ में अखिलेश को क्यों चुनौती दे रही हैं मायावती?

09:09 am Mar 29, 2022 | यूसुफ़ अंसारी

मायावती ने 2022 के विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार का स्वाद चखने के बाद अब 2024 के लोकसभा चुनाव के साथ ही 2027 के विधानसभा चुनाव में बसपा को बीजेपी का विकल्प बनाने की कोशिशें शुरु कर दी हैं। विधानसभा चुनाव में हार के कारणों की समीक्षा के बाद मायावती ने हार की हताशा और निराशा से बाहर निकलकर नए सिरे से पार्टी मे जोश भरने की क़वायद शुरु कर दी है।

मायावती ने शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को आज़मगढ़ से लोकसभा का उम्मीदवर घोषित कर दिया है। ऐसा करके उन्होंने सीधे अखिलेश यादव के सामने चुनौती पेश कर दी है।

सपा का मज़बूत गढ़ है आज़मगढ़ 

दरअसल आज़मगढ़ सपा का मज़बूत गढ़ माना जाता है। 2014 में यहां से मुलायम सिंह यादव लोकसभा का चुनाव जीते थे तो 2019 में अखिलश यादव यहीं से जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। इस बार विधानसभा की सभी दस सीटें सपा ने जीती हैं। पिछले चुनाव में सपा ने पांच और बसपा ने चार जीती थीं।

बीजेपी अपनी भयंकर लहर के बावजूद सिर्फ एक सीट ही जीत पाई थी। अखिलेश के इस्तीफे से खाली हुई इस लोकसभा सीट को बीजेपी हर क़ीमत पर जीतना चहेगी। वहीं अखिलेश के सामने अपनी और अपने पिता की इस सीट पर क़ब्ज़ा बरकरार रखना एक बड़ी चुनौती है।

ऐसे में मायावती अखिलेश को उन्हीं के गढ़ में पटखनी देकर बसपा का पुनर्जीवित करने की रणनीति पर काम कर रहीं हैं।

गुड्डू जमाली की घर वापसी

मायावती ने पिछली विधानसभा में बसपा के विधानमंडल दल के नेता रहे शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली की घर वापसी कराके एक तीर से कई निशान साधने की कोशिश की है। दरअसल चुनाव से ऐन पहले जमाली ने बसपा छोड़ दी थी। उन्होंने कहा था कि वह पार्टी के प्रति पूरी निष्ठा और ईमानदारी से काम करते हैं। इसके बावजूद बसपा प्रमुख मायावती उनसे संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए वह पार्टी पर बोझ बनकर नहीं रहना चाहते। हालांकि पहले उन्होंने सपा से टिकट मांगा था। नहीं मिलने पर फिर बसपा में वापसी की कोशिश की थी। लेकिन तब उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली थी। हारकर जमाली ने विधानसभा चुनाव मुबारकपुर सीट से एआइएमआइएम से लड़ा। एआईएमआईएम के वो अकेले उम्मीदवार थे जिनकी ज़मानत बची थी।

गुड्डू जमाली के ज़रिए अखिलेश को चुनौती

मायावती ने गुड्डू जमाली को आज़मगढ़ लोकसभा के उपचुनाव के लिए बसपा का उम्मीदवार घोषित करके अखिलेश यादव की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। बता दें कि यह सीट सपा प्रमुख अखिलेश यादव के इस्तीफे से खाली हुई है। छह माह के भीतर ही यहां उपचुनाव होना है। अभी तक सपा और बीजेपी ने यहां अपना प्रत्याशी घोषित नहीं किया है।  

गुड्डू जमानी मुबारकपुर सीट से लगातार दो बार बसपा के टिकट पर विधायक रह चुके हैं। पिछली विधानसभा में बसपा में वह विधानमंडल दल के नेता थे। ऐसे में मायावती ने यहां गुड्डू पर दांव खेलकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव को चुनौती दी है। ग़ौरतलब है कि 2014 में मुलायम सिंह यादव आज़मगढ़ से लोकसभा का चुनाव जीते थे और 2019 में अखिलेश यादव जीते थे। 

गुड्डू जमाली।

अगर मायावती अपनी सोशल इंजीनियरिंग के सहारे बसपा को यहां लोकसभा का उपचुनाव जिताने में कामयाब हो जाती हैं तो ये जीत उनके भविष्य के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हो सकती है।

क्या है आज़मगढ़ का गणित?

बात अगर जातीय समीकरण की करें तो आज़मगढ़ में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 24 फीसदी है। इसके अलावा 26 फीसदी यादव और 20 प्रतिशत दलित हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की लहर के बावजूद उसे सिर्फ एक सीट मिली थी। पांच सीटों पर सपा ने क़ब्‍जा जमाया था जबकि बहुजन समाज पार्टी के खाते में चार सीटें गई थीं। इस बार बीजेपी को एक सीट भी नहीं मिल पाई। सभी 10 विधानसभा सीटें सपा ने जीती हैं।

हाल में अहमदाबाद बम ब्लास्ट मामले में जिन 38 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई, उनमें पांच आतंकी आज़मगढ़ के हैं। बीजेपी ने सपा पर आतंकियों से हमदर्दी रखने के आरोप लगाए थे। इसके बावजूद उसे इस ज़िले में कोई फायदा नहीं हुआ।

बीजेपी इसे लोकसभा के उपचुनाव में भी मुद्दा बनाएगी। ऐसे में यहां कांटे का मुक़ाबला होना तय है। हालांकि ऊपरी तौर पर फिलहाल प्रदेश मौजूदा राजनीतिक हालात को देखते हुए त्रिकोणीय मुक़ाबले में बीजेपी को फायदा होता दिख रहा है।

लोकसभा चुनाव में आज़मगढ़ का इतिहास

यादव बहुल आज़मगढ़ में आज़ादी के बाद हुए तीसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के राम हरक यादव की जीत के साथ ही यादवों का दबदबा क़यम होना शुरू हो गया था। ये दबदबा आज तक क़ायम है। आज़ादी के बाद आज़मगढ़ लोकसभा में कुल 19 बार चुनाव हुए। 17 आम चुनाव और 2 उपचुनाव। कुल 17 आम चुनावों में 13 बार यादव सांसद चुने गए। इंद्रजीत यादव यहां से चार बार लोकसभा का चुनाव जीते। दो बार कांग्रेस के टिकट पर, एक बार जनता पार्टी से और एक बार जनता दल से। 

इसी तरह रमाकांत यादव भी चार बार यहां से सांसद रहे। दो बार समाजवादी पार्टी से, एक बार बसपा से और एक बार बीजेपी से। इस सीट पर सपा और बसपा का बराबर का दबदबा रहा है। दोनों ही पार्टियां चार-चार बार यहां लोकसभा चुनाव जीती हैं। बीजेपी सिर्फ़ एक बार 2009 में जीत पाई थी।

आज़मगढ़ लोक सभा और मुसलमान

आज़मगढ़ में यादवों के बाद मुसलमान ही सबसे बड़ी आबादी हैं। यहां मुसलमान राजनीतिक तौर पर भी मज़बूत हैं और आर्थिक तौर पर भी। आज़ादी के बाद अब तक यहां से तीन बार मुसलमान जीत कर लोकसभा में पहुंचे हैं। एक बार कांग्रेस के टिकट पर और दो बार बसपा के टिकट पर। ख़ास बात ये रही है जब-जब यहां उपचुनाव हुए तो मुसलमान प्रत्याशी ही जीता है। पहली बार 1978 में हुए उपचुनाव में कांग्रेस की मोहसिना क़िदवई जीती थी। वो इस सीट से जीतने वाली पहली मुसलमान थी। 

1977 में यहां से जनता पार्टी के रामनरेश यादव जीते थे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था। उनके इस्तीफे से खाली होने पर यहां 1978 में उप चुनाव हुए थे। 1998 में बसपा के अबरार अहमद यहां से जीतने वाले दूसरे मुसलमान थे। बाद में 2008 में वो उपचुनाव जीत कर आज़मगढ़ के तीसरे मुस्लिम सांसद के रूप में लोकसभा पहुंचे थे। साल 2004 में यहां से बसपा के ही रमाकांत यादव जीते थे। लेकिन 2007 में उनके बसपा और लोकसभा से इस्तीफे से खाली होने पर यहां 2008 में उपचुनाव हुआ था। रमाकांत यादव इससे पहले 1999 में यहां से सपा से जीते थे और 2009 में बीजेपी से।

क्या है बसपा की उम्मीद?

मायावती ने शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को लोकसभा चुनाव का उम्मीदवार बनाकर पुराना रिकॉर्ड दोहराने की कोशिश की है। गुड्डू 2014 में भी यहां से मुलायम सिंह यादव के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं। तब वो 2,66,528 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे थे। 2019 में सपा और बसपा का गठबंधन था लिहाज़ा तब यहां बसपा का उम्मीदवार नहीं था। 

गुड्डू जमाली ख़ुद मज़बूत उम्मीदवार हैं। राजनीतिक तौर पर भी और आर्थिक तौर पर भी। विधानसभा चुनाव में वो पूर्वांचल के सबसे अमीर प्रत्याशी थे। उन्होंने 195 करोड़ की संपत्ति घोषित की थी। ओवैसी की पार्टी से चुनाव लड़कर उन्होंने 36,460 वोट हासिल किए हैं।

मायावती जानती हैं कि मुसलमानों के बसपा में वापिस लौटने पर दलित भी वापिस आ जाएगा। दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे बसपा पहले भी यहां चार बार जीत चुकी है। लिहाज़ा वो यहां कमजोर नहीं है। अगर वो यहां पुराने समीकरण बहाल करने में कामयाब हुई तो बाज़ी पलट सकती है।

दरअसल उत्तर प्रदेश की राजनीति में अब मायावती के पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा है। पाने के लिए सब कुछ है। उपचुनाव के लिए सबसे पहले उम्मीदवार उतारकर मायावती ने ये साबित कर दिया है कि वो इसे बहुत गंभीरता से ले रहीं हैं।अगर उपचुनाव के नतीजे उनके हक़ में रहे तो वो एक बार फिर सूबे की राजनीति में दमदार तरीके से वापसी कर सकती हैं।  इस लिहाज़ से देखें तो उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का राजनीतिक भविष्य तय करने के लिहाज़ से आज़मगढ़ उपचुनाव महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।