हाथरस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का आदेश सरकारों और प्रशासनिक अधिकारियों को झकझोरने वाला है। कोर्ट का यह सवाल क्या पूरी व्यवस्था को हिलाने के लिए काफ़ी नहीं है कि क्या आर्थिक-सामाजिक हैसियत की वजह से पीड़ित परिवार के अधिकार रौंदे गए क्या इसी वजह से उनकी प्रताड़ना हुई और क्या एक सम्मानजनक अंतिम संस्कार तक नहीं हो पाया क्या वजह है कि कोर्ट को शांति के दूत महात्मा गाँधी से लेकर महान कवि ऑस्कर वाइल्ड तक का ज़िक्र करना पड़ रहा है हाईकोर्ट को क्यों संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर उच्च न्यायालयों की व्याख्या का हवाला देना पड़ रहा है क्या यह सिर्फ़ इसलिए है कि अदालत ने मामले का स्वत: संज्ञान लिया व उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किया है या फिर समस्या इससे कहीं बड़ी है
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में सबसे पहले महात्मा गाँधी का ज़िक्र किया और ग़रीबों के प्रति उनके विचारों पर ज़ोर दिया। एक अक्टूबर के इस आदेश में कहा गया है, "कल गाँधी जयंती है और हमें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के विचार याद आ रहे हैं जिनका दिल ग़रीबों और दलितों के लिए धड़कता था। हम उनके कथन को रखते हैं-
'तुम्हें एक जंतर देता हूँ। जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहं तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी आजमाओ-
जो सबसे ग़रीब और कमज़ोर आदमी तुमने देखा हो उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो क़दम उठाने का तुम विचार कर रहे हो वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुँचेगा क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है
तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहं समाप्त होता जा रहा है।"
जस्टिस राजन रॉय और जस्टिस जसप्रीत सिंह की खंडपीठ मामले की सुनवाई कर रही थी। महात्मा गाँधी के इन शब्दों का ज़िक्र हाईकोर्ट ने हाथरस मामले में किया है। वही मामला जिसमें कथित तौर पर 19 साल की एक युवती का गैंगरेप हुआ, उसकी जीभ काट ली गई थी और आख़िर में अस्पताल में उसकी मौत हो गई। पुलिस ने परिवार वालों की ग़ैर मौजूदगी में रातोरात उसका अंतिम संस्कार कर दिया। घर वाले तड़पते रहे कि उन्हें कम से कम चेहरा दिखा दिए जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। इसके बाद देश भर में उत्तर प्रदेश पुलिस की किरकिरी हुई। इस पूरे मामले में परिवार की ओर से कई आरोप लगाए गए। गैंगरेप की रिपोर्ट दर्ज करने से लेकर इलाज कराने तक में भी। अभी भी आरोप लग रहे हैं कि परिवार पर दबाव डाला जा रहा है। इस बढ़ते दबाव के बीच ही हाईकोर्ट ने इस मामले में दखल दी और परिवार के ग़रीब व दलित होने के साथ ही सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार का ज़िक्र किया।
इस मामले में हाईकोर्ट ने परमानंद कटारा बनाम केंद्र सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1995 के एक फ़ैसले का हवाला दिया। उस फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार की व्याख्या की थी।
हाईकोर्ट के आदेश के अनुसार, उस फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट याचिकाकर्ता के इस तर्क से सहमत था कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमापूर्ण और न्यायपूर्ण व्यवहार का अधिकार न केवल एक जीवित व्यक्ति को, बल्कि उसकी मृत्यु के बाद उसके शरीर को भी उपलब्ध है।
हाईकोर्ट ने कहा कि यह क़ानूनी स्थिति होने के नाते मृतक पीड़िता अपनी मृत्यु के बाद सम्मानजनक, सभ्य और गरिमामय अंतिम संस्कार की हकदार थी जिसे उसके परिवार के सदस्यों द्वारा रीति-रिवाजों और परंपराओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना था। आदेश में यह भी कहा गया है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार वह परिवार सनातन/हिंदू परंपराओं का अनुयायी है लेकिन कथित तौर पर इसकी अनुमति नहीं दी गई।
आदेश में कोर्ट ने कहा है,
'यदि यह सच पाया जाता है, तो यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 25 के तहत आधारभूत मानव और मौलिक अधिकारों के घोर उल्लंघन का मामला होगा, जो कि हमारे देश के क़ानून के लिए बिल्कुल अस्वीकार्य है।'
हाईकोर्ट ने 2009 के अपने ही कोर्ट के एक फ़ैसले का हवाला दिया है। मुजीब भाई बनाम राज्य सरकार के मामले में तब कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 21 के तहत जीने का अधिकार सीमित अर्थ में एक मृत व्यक्ति तक भी है। कोर्ट ने कहा था कि व्यक्ति को सम्मान के साथ जीने और अपने शरीर को सम्मान के साथ व्यवहार करने का अधिकार है। उस फ़ैसले के अनुसार, जीवित होने पर वह अपनी जिस परंपरा, संस्कृति और उस धर्म को मानने का हकदार होता वही अधिकार उसके शरीर को भी हो।
इसी बीच कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि ऑस्कर वाइल्ड के कथन का उल्लेख करना उचित होगा जिन्होंने कहा था कि-
“
मौत बहुत सुंदर होनी चाहिए। नरम भूरे रंग की धरती पर लेटना, सिर के ऊपर घास का होना और मौन को सुनना। कोई बीता हुआ कल नहीं, और कोई आने वाला कल नहीं। शांति के लिए समय को भूल जाना, जीवन को भूल जाना।
ऑस्कर वाइल्ड के इस कथन को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रखा
परिवार का भी अधिकार
अदालत ने अपने आदेश में कहा है, 'हमारे सामने यह मामला भी है जिसमें मृतक पीड़िता और परिवार के सदस्यों को अनुच्छेद 25 के तहत मिलने वाले अधिकार शामिल हैं।' कोर्ट ने परिवार द्वारा पालन की जाने वाली धार्मिक परंपराओं के अनुसार अंतिम संस्कार का ज़िक्र किया है। कोर्ट ने विनीत रुइया बनाम पश्चिम बंगाल सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के प्रधान सचिव और अन्य के मामले में सितंबर 2020 को दिए गए कोलकात्ता हाईकोर्ट के एक फ़ैसले का ज़िक्र भी किया।
कोर्ट ने प्रदीप गांधी बनाम महाराष्ट्र सरकार केस के मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट के एक फ़ैसले का भी उल्लेख किया है। उस मामले में संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीवन के अधिकार के एक पक्ष के रूप में सम्मान के साथ अंतिम संस्कार पर ज़ोर दिया गया था।
देखिए वीडियो, योगी सरकार ने कैसे साबित किया कि गैंगरेप नहीं हुआ
ग़रीब और दलित
कोर्ट ने ग़रीबों और दलितों के साथ किए जाने वाले दोयम दर्जे के व्यवहार की ओर ध्यान दिलाया। अदालत ने आदेश में कहा कि देश और राज्य के नागरिकों और उसमें भी ख़ासकर मृतक पीड़िता के परिवारों जैसे ग़रीब और दलित सर्वोपरि हैं। आदेश में कहा गया है कि कोर्ट की यह बाध्यकारी ज़िम्मेदारी है कि संविधान के तहत मिले उनके अधिकारों की हर क़ीमत पर रक्षा करे और राज्य राजनीतिक या प्रशासनिक कारणों से अपनी सीमित शक्तियों को लांघ कर नागरिकों और ख़ासकर ग़रीबों व दलितों के अधिकारों को न रौंदे।
देर रात को जल्दबाज़ी में अंतिम संस्कार करने और दूसरी तरह की ज़्यादती की आ रही रिपोर्टों पर अदालत ने नाराज़गी जताई। कोर्ट ने कहा,
“
हम इस बात की जाँच करना चाहेंगे कि क्या राज्य के अधिकारियों द्वारा मृतक के परिवार की आर्थिक और सामाजिक हैसियत का फ़ायदा उठाकर उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया गया है और उनका उत्पीड़न किया गया है
लखनऊ बेंच का आदेश
अदालत ने कहा है कि क्योंकि लखनऊ में शासन और पुलिस महानिदेशक में उच्च पुलिस अधिकारियों ने रात में दाह संस्कार करने को उचित ठहराया है इसलिए हमने मामले का संज्ञान लिया है।
जस्टिस राजन रॉय और जस्टिस जसप्रीत सिंह की खंडपीठ ने मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए कोर्ट के वरिष्ठ रजिस्ट्रार को 'गरिमामय अंतिम संस्कार के अधिकार' के शीर्षक से एक जनहित याचिका दायर करने के निर्देश दिए हैं।
याचिका में अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) के माध्यम से उत्तर प्रदेश राज्य, यूपी के पुलिस महानिदेशक लखनऊ, यूपी के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, क़ानून और व्यवस्था, लखनऊ, ज़िला मजिस्ट्रेट हाथरस और पुलिस अधीक्षक हाथरस को पार्टी बनाने के लिए कहा गया है।
इस मामले को 12 अक्टूबर को सुनवाई होगी। इस तारीख़ पर अपर मुख्य सचिव/प्रमुख सचिव (गृह), यूपी के पुलिस महानिदेशक, लखनऊ, यूपी के अपर महानिदेशक, क़ानून और व्यवस्था, ज़िला मजिस्ट्रेट हाथरस, पुलिस अधीक्षक हाथरस को कोर्ट में उपस्थित होना होगा। उन्हें पूरे मामले में सफ़ाई देनी होगी।