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मायावती के वोटर लाभार्थी बन गए, अगड़ी जाति की राजनीति लौटेगी?

मायावती के वोटर लाभार्थी बन गए, अगड़ी जाति की राजनीति लौटेगी?

यूपी में बीजेपी की जीत का असर क्या होगा? कांशीराम और मायावती ने जिन्हें आत्मसम्मान व सामाजिक न्याय जैसी अस्मिता दी थी, क्या वे अब 'लाभार्थी' बन गए? यदि ऐसा है तो अब कैसी राजनीति होगी?

उत्तर प्रदेश में बीजेपी की भारी जीत और मायावती की बीएसपी के पतन के बाद सबसे बड़ा सवाल तो सामाजिक न्याय की लड़ाई और दलित वोटों पर होगा। मायावती की तुलना अब यूपी में कांग्रेस से होने लगी है। बीएसपी का वोट घटकर 12 प्रतिशत तक आ गया है। उनका ज़्यादातर वोट खिसक कर बीजेपी के पास चला गया तो साफ़ है कि अब दलित वोट और उनके सामाजिक न्याय की लड़ाई सीधे कमजोर हो जायेगी।

चुनाव में बीएसपी का वोट खुद मायावती ने नहीं मांगा तो लगा कि शायद ये वोट सरकार के ख़िलाफ़ भी जा सकता है लेकिन चुनाव के अंतिम चरण आते-आते जिस तरह से गृहमंत्री अमित शाह ने बीएसपी की वकालत की उससे साफ़ हो गया कि दोनों की अंदर खाने मिलीभगत थी और बहन जी ने अपना वोट बैंक बीजेपी में जाने दिया। यही वजह रही कि बीजेपी का यूपी में वोट बैंक दो प्रतिशत तक बढ़ गया। जाहिर है अब ये वोट बैंक मायावती का नहीं रहेगा।

कौन बने लाभार्थी?

बीजेपी ने पिछले दो साल से जब लोग बेरोजगारी और पलायन से परेशान थे तब लोगों को घर और मुफ्त अनाज देकर मायावती के वोट बैंक को लाभार्थी बना दिया। ये वही वोट बैंक है जिसे कांशीराम और उनके साथ मायावती ने आत्मसम्मान और सामाजिक न्याय जैसी अस्मिता दी थी लेकिन ये लाभार्थी बनकर अब बीजेपी के साथ चले गये। 

सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हाथरस में जब दलित के बलात्कार और रात में जलाने पर भी मायावती नहीं बोली थीं तो लगा कि उन्होने ग़लती कर दी और चुनाव में साबित हो गया कि उनके वोटर को लगने लगा है कि सब नेता अपनी अपनी देखते हैं तो वो भी जो मिल रहा है या दे रहा है उसे ही क्यों न चुनें। इतना ही नहीं, बीएसपी का विकल्प बनने का सपना देख रहे आज़ाद पार्टी के चंद्रशेखर रावण के सफाये से भी बात साफ़ हो गयी कि दलित वोट पर अब मायावती या रावण की नहीं बीजेपी की पकड़ है।

जाति की राजनीति का सफाया

उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की लड़ाई का नारा केवल दलित के लिए नहीं बल्कि पिछड़े वर्ग के लिए भी था। चुनाव में अखिलेश यादव ने यह दिखाने की कोशिश की कि यादव मुसलिम के साथ-साथ सारा ओबीसी वोट बैंक भी उसके पास आने वाला है। लेकिन चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया है कि बीजेपी को ओबीसी के नेता के बिना भी वोट मिलते हैं। बीजेपी के ओबीसी उपमुख्यमंत्री भी हार गये।

अब क्या होगा?

अब सबसे बड़ा सवाल यही कि क्या बीजेपी को लगने लगेगा कि वो बिना मुसलिम, ओबीसी या दलित नेताओं के भी चुनाव जीत सकती है? जिस तरह से अखिलेश ने यादव-मुसलिम वोटबैंक बनाया था तो क्या चुनाव के बाद उनको वोट देने वाले यादव मुसलिम इलाक़ों को नुक़सान होगा? चुनाव में बीजेपी के साथ पूरा ब्राह्मण और अगड़ी जाति खड़ी रही। तो क्या यूपी में फिर से अगड़ी जाति की राजनीति वापस लौट आयेगी? और जाहिर है अगर ऐसा होगा तो वर्ग संघर्ष बढ़ेगा।

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