भारत की जनसंख्या को लेकर एक ऐसा आँकड़ा आया है जिससे सवाल उठता है कि कहीं भारत में भी चीन की तरह ही युवाओं की अपेक्षा बुजुर्गों की आबादी ज़्यादा तो नहीं हो जाएगी एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 50 वर्षों में जनसंख्या में 14 साल से कम उम्र के बच्चों का प्रतिशत कम हुआ है, जबकि 60 से ज़्यादा उम्र के लोगों का प्रतिशत बढ़ा है।
भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा जारी नमूना पंजीकरण प्रणाली सांख्यिकीय रिपोर्ट 2018 के आँकड़ों के अनुसार, जनसंख्या में 14 साल से कम उम्र के बच्चों का प्रतिशत जहाँ 1971 में 41.2 फ़ीसदी था वहीं 2018 में यह 25.9 फ़ीसदी रह गया है। जबकि 60 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों का प्रतिशत इसी दौरान 5.3 फ़ीसदी से बढ़कर 8.1 फ़ीसदी हो गया है। कहा जा रहा है कि ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि स्वास्थ्य सुविधाएँ बेहतर होने से जीवन प्रत्याशा यानी लाइफ़ एक्सपेक्टेंसी दर सुधरी है।
जनसंख्या के संदर्भ में एक और आँकड़े पर ग़ौर किया जा सकता है। नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफ़एचएस) 2015-16 के मुताबिक़ देश का मौजूदा टोटल फ़र्टिलिटी रेट यानी टीएफ़आर 2.3 से नीचे है। यानी देश के दंपति औसतन क़रीब 2.3 बच्चों को जन्म देते हैं। यह दर भी तेज़ी से कम हो रही है। आम तौर पर माना जाता है कि जनसंख्या को स्थिर करने के लिए यह दर 2.1 होनी चाहिए और भारत में यह स्थिति कुछ ही वर्षों में ख़ुद ब ख़ुद आने वाली है।
इस हिसाब से कहा जा सकता है कि भारत की जनसंख्या वृद्धि दर क़रीब-क़रीब संतुलन में आने वाली है। यानी भारत की जनसंख्या विस्फोट जैसी स्थिति नहीं है और जल्द ही यह जनसंख्या स्थिर होने वाली है।
अब यदि इन दोनों आँकड़ों को मिलाकर देखा जाए तो कहा जा सकता है कि फ़िलहाल जिसे युवाओं का देश कहा जाता है यानी जहाँ युवा जनसंख्या काफ़ी ज़्यादा है वहाँ युवाओं की जनसंख्या कम होती जाएगी और ज़्यादा उम्र और बुजुर्गों की संख्या ज़्यादा होती जाएगी।
युवा जनसंख्या के कम होने का असर
वैसे, जिस देश में बुजुर्गों की जनसंख्या ज़्यादा हो जाती है और युवाओं की जनसंख्या कम हो जाती है वहाँ एक अलग तरह की समस्या होने लगती है। चीन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अब वहाँ बूढ़े लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है और इस बुज़ुर्ग पीढ़ी को सहारा देने के लिए नौजवान आबादी की कमी हो रही है। इसका असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता दिख रहा है, क्योंकि श्रम शक्ति युवा पीढ़ी ही होती है। युवाओं के कम होने का मतलब होता है कि उत्पादन पर असर पड़ने लगता है। यही वजह है कि चीन अब युवा आबादी चाहता है। इसी कारण चीन ने क़रीब 40 वर्षों से लागू वन चाइल्ड पॉलिसी को 2015 में ख़त्म करने का फ़ैसला लिया और 2016 में उस क़ानून को ख़त्म कर दिया।
वन चाइल्ड पॉलिसी का असर जनसंख्या पर ज़बरदस्त पड़ा है। चीन में प्रति दंपति बच्चों का औसत 1.18 बच्चे हैं जो कि वैश्विक औसत 2.5 से काफ़ी कम है। हालाँकि एक बच्चा की नीति के कारण पुरुष और महिला आबादी के बीच एक घातक असंतुलन भी पैदा हो गया है। चीन की जनसंख्या क़रीब 1 अरब 40 करोड़ है। इसमें महिलाओं से 3 करोड़ 40 लाख पुरुष ज़्यादा हैं। अब इसको ख़त्म करने का प्रयास किया जा रहा और अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है।
इसके लिए चीनी अधिकारियों ने दंपतियों से कहा है कि दो बच्चों को पालना उनकी देशभक्ति का कर्तव्य है। उन्होंने टैक्स ब्रेक और हाउसिंग सब्सिडी दी है। उन्होंने शिक्षा को सस्ता किया है और पैतृक अवकाश लंबा करने की पेशकश की है। उन्होंने गर्भपात या तलाक़ लेने के लिए इसे और अधिक कठिन बनाने की कोशिश की है।
हालाँकि, भारत की स्थिति फ़िलहाल चीन जैसी बिल्कुल ही नहीं है। भारत इस मामले में अच्छी स्थिति में है। नमूना पंजीकरण प्रणाली सांख्यिकीय रिपोर्ट 2018 के आँकड़ों के अनुसार, 0-4 वर्ष की आयु के बच्चों की संख्या 8%, 5-9 वर्ष के लोगों की संख्या 8.6% और 10-14 वर्ष के लोगों की संख्या 9.3% होने का अनुमान लगाया गया था। 15-19 वर्षों के बीच के लोगों की संख्या 10.2%, 20-24 वर्ष के बीच 10.8%, 25-29 वर्ष के बीच 10.1%, 30-34 आयु के बीच 8.4%, 35-39 वर्ष के बीच 7.3%, 40-44 साल के बीच 6.2% और 45-49 साल के लोगों की संख्या 5.3% थी। 50-54 आयु वर्ग के लिए 4.2% और 55 -59 वर्षों के बीच की आबादी 3.5% थी।
हालाँकि पिछले 50 साल के रुझान दिखाते हैं कि भारत में धीरे-धीरे जनसंख्या में 14 साल से कम उम्र के बच्चों का प्रतिशत काफ़ी कम हुआ है और बुजुर्गों में यह प्रतिशत बढ़ा है। यानी यही रुझान रहा तो आगे काफ़ी लंबे दौर में ज़्यादा उम्र की आबादी ज़्यादा होने की संभावना तो है ही।