15 अगस्त: 'लाल क़िला ट्रायल', जिसने हिला दी अंग्रेजी हुक़ूमत की नींव 

07:08 am Aug 15, 2020 | जाहिद ख़ान - सत्य हिन्दी

हमारे देश की स्वतंत्रता में यूं तो असंख्य भारतीयों और अनेक तूफानी घटनाओं का योगदान है, लेकिन इन घटनाओं में से कुछ घटनाएँ ऐसी हैं, जो आगे चलकर आज़ादी में निर्णायक साबित हुई हैं। ‘लाल किला ट्रायल’ ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना है। इस घटना का मुल्क़ की आज़ादी में अहम योगदान है। मुक़दमे का महत्व इसलिए भी है कि इसने हमारी आज़ादी के संघर्ष को अंजाम तक पहुँचाया। 

हिंदुस्तान के इतिहास में ‘लाल किला ट्रायल’ के नाम से प्रसिद्ध आज़ाद हिन्द फ़ौज के इस ऐतिहासिक मुक़दमे के दौरान उठे नारे ‘लाल किले से आई आवाज-सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़’ ने उस समय मुल्क़ की आज़ादी के हक़ के लिये लड़ रहे लाखों नौजवानों को एक सूत्र में बाँध दिया था। वकील भूलाभाई देसाई इस मुक़दमे के दौरान जब लाल किले में बहस करते, तो सड़कों पर हज़ारों नौजवान नारे लगा रहे होते। पूरे देश में देशभक्ति का एक ज्वार सा उठता। 

कांग्रेस की डिफेंन्स टीम

5 नवम्बर, 1945 से 31 दिसम्बर, 1945 यानी 57 दिन तक चला यह मुक़दमा हिन्दुस्तान की आज़ादी के संघर्ष में टर्निंग पाईंट था। यह मुक़दमा कई मोर्चों पर हिन्दुस्तानी एकता को मज़बूत करने वाला साबित हुआ। मेजर जनरल शाहनवाज़ को मुसलिम लीग और लेफ़्टिनेंट कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लन को अकाली दल ने अपनी ओर से मुक़दमा लड़ने की पेशकश की, लेकिन इन वतनपरस्त सिपाहियों ने कांग्रेस द्वारा बनाई गई डिफेन्स टीम को ही अपनी पैरवी करने की मंजूरी दी। मजहबी जज्बात से ऊपर उठकर सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़ ने जो फ़ैसला लिया, वह काबिले तारीफ था।

कांग्रेस की डिफेंस टीम में सर तेज बहादुर सप्रू के नेतृत्व में मुल्क के उस समय के कई नामी-गिरामी वकील भूलाभाई देसाई, सर दिलीप सिंह, आसफ़ अली, जवाहरलाल नेहरू, बख्शी सर टेकचंद, कैलाशनाथ काटजू, जुगलकिशोर खन्ना, सुल्तान यार खान, राय बहादुर बद्रीदास, पी.एस. सेन, रघुनंदन सरन आदि शामिल थे। 

संयुक्त ट्रायल्स

सर तेज बहादुर सप्रू की अस्वस्थता की वजह से वकील भूलाभाई देसाई ने आज़ाद हिन्द फ़ौज के तीनों वीर सिपाहियों की संयुक्त ट्रायल्स लड़ी। मुक़दमा लड़ने से पहले भूलाभाई देसाई ने उन समस्त अभिलेखों का अध्ययन किया, जिनमें आईएनए के जन्म, गठन, विघटन एंव पुनर्जन्म तथा वीरतापूर्ण उपलब्धियाों का उल्लेख था। उनमें आज़ाद हिंद की अस्थाई सरकार, शक्तिशाली देशों से मान्यता, आईएनए का नेतृत्व एवं अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़ आईएनए के युद्धबंदियों की उस समय की स्थिति का विवरण दिया था।

जैसे-जैसे भूलाभाई देसाई को अस्थाई सरकार बनाने के संबंध में सबूत मिलते जाते थे, वैसे-वैसे वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की दूरदर्शिता और उनकी अद्भुत संगठन शक्ति को देखकर चकित हो जाते थे। क्रांतिकारी युद्ध में कार्यरत रहते हुए भी नेताजी ने छोटी से छोटी बात पर भी गहन विचार किया था। इन तथ्यों के आधार पर ही भूलाभाई देसाई ने मुक़दमे में बचाव की तैयारी की। 

अभियोग की कार्यवाही मीडिया और जनता दोनों के लिए खुली हुई थी। जैसे-जैसे आज़ाद हिंद फ़ौज के बहादुरी के किस्से देशवासियों को मालूम चलते थे, उनका जोश बढ़ता जाता था। इस मुक़दमे के जरिये ही उन्हें मालूम चला कि आज़ाद हिंद फ़ौज ने भारत-बर्मा सीमा पर अंग्रेज हुक़ूमत के ख़िलाफ़ कई जगहों पर जंग लड़ी थी और एक वक़्त तो 14 अप्रैल 1944 को कर्नल एस. ए. मलिक की लीडरशिप में आज़ाद हिंद फ़ौज की एक टुकड़ी ने मणिपुर के मोरांग में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा तक लहरा दिया था। आज़ाद हिंद सरकार की ओर से कर्नल मलिक ने ढाई महीने तक मोरांग को मुख्यालय बनाकर इस प्रदेश पर शासन किया।  

राष्ट्रवाद का माहौल

मुक़दमे के दौरान पूरे मुल्क़ में राष्ट्रवाद का माहौल पैदा हो गया। लोग अपने देश के लिये मर मिटने को तैयार हो गये। सारे मुल्क़ में सरकार के ख़िलाफ़ धरने-प्रदर्शन हुये, हिन्दू-मुसलिम एकता की सभाएं हुईं। अंग्रेज हुकूमत ने सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़ पर ब्रिटिश सम्राट के ख़िलाफ़ बग़ावत करने का इल्जाम लगाया। लेकिन भूलाभाई देसाई की शानदार दलीलों ने इस मुक़दमे को आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाहियों के हक़ में कर दिया। अदालत के सामने उन्होंने दो दिन तक लगातार अपनी दलीलें रखीं। 

भूलाभाई ने मुकदमे की शुरूआत इस बात से की, ‘इस समय न्यायालय के समक्ष, किसी परतंत्र जाति द्वारा अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करने का अधिकार कसौटी पर है।’ भूलाभाई देसाई की पहली दलील थी, 'जापान से पराजय के बाद अंग्रेजी सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल हंट ने जब खुद आज़ाद हिन्द फ़ौज के जवानों को जापानी सेना के सुपुर्द कर दिया और उनसे कहा आज से आप हमारे मुलाजिम नहीं और मैं अंग्रेजी सरकार की ओर से आप लोगों को जापान सरकार को सौंपता हूं, आप लोग जिस प्रकार अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार रहे, उसी प्रकार अब जापानी सरकार के प्रति वफादार रहें। यदि आप ऐसा नहीं करेगें, तो आप दण्ड के भागी होगें। कर्नल हंट का जापानी सेना के सम्मुख समर्पण और भारतीय सेना को जापानियों को सौंपने के बाद, इन जवानों पर अंग्रेजी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत करने का मुकदमा नहीं बनता।'

भूला भाई देसाई की दलीलें

इसके अलावा भूलाभाई देसाई की दूसरी अहम दलील थी, ‘अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़, हर आदमी को अपनी आज़ादी हासिल करने के लिये लड़ाई लड़ने का अधिकार है। आज़ाद हिन्द फ़ौज एक आज़ाद और अपनी इच्छा से शामिल हुये लोगों की फ़ौज थी और उनकी निष्ठा अपने देश से थी। जिसको आज़ाद कराने के लिये नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने देश से बाहर एक अस्थाई सरकार बनाई थी और उसका अपना एक संविधान था। इस सरकार को विश्व के नौ देशों की मान्यता प्राप्त थी।’ 

अपनी दलील को साबित करने के लिये उन्होंने मशहूर क़ानूनविद बीटन के कथन को उद्धत किया, 'अपने मुल्क़ की आज़ादी को हासिल करने के लिये, हर ग़ुलाम कौम को लड़ने का अधिकार है। क्योंकि, अगर उनसे यह हक़ छीन लिया जाये, तो इसका मतलब यह होगा कि एक बार यदि कोई कौम ग़ुलाम हो जाये, तो वह हमेशा ग़ुलाम होगी।’’ 

इस ट्रायल ने पूरी दुनिया में आज़ादी के लिये लड़ रहे लाखों लोगों के अधिकारों को जागृत किया। सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज़ के अलावा आज़ाद हिन्द फ़ौज के अनेक फ़ौजी जो जगह-जगह गिरफ़्तार हुये थे और जिन पर मुक़दमे चल रहे थे, वे सब रिहा हो गये।

अंतरराष्ट्रीय चर्चा

3 जनवरी, 1946 को आज़ाद हिन्द फ़ौज के जांबाज सिपाहियों की रिहाई पर ‘राईटर्स एसोसियेशन ऑफ़ अमेरिका’ तथा ब्रिटेन के अनेक पत्रकारों ने मुक़दमे के विषय में जमकर लिखा। इस तरह यह मुक़दमा अंतरराष्ट्रीय रूप से चर्चित हो गया।

मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए अंग्रेजी सरकार के कमाण्डर-इन-चीफ सर क्लॉड अक्लनिक ने इन जवानों की उम्र क़ैद सज़ा माफ़ कर दी।

अंग्रेजी हुक़ूमत पर दबाव

हिंदुस्तान में बदली हुई हवा का रुख भाँपकर, उन्होंने जान लिया कि यदि इन फ़ौजियों को सज़ा दी गई, तो पूरी हिन्दुस्तानी फ़ौज में बग़ावत हो जायेगी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कई नीतियों से नाइत्तफाकी  रखते थे, उन्होंने भी आज़ाद हिंद फ़ौज के साल 1945 में भारत आगमन पर टिप्पणी करते हुए कहा था, 'यद्यपि आईएनए इस समय अपने लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रही, परंतु फिर भी उनकी अनेक उपलब्धियां हैं, जिनके लिए वे गर्व कर सकते हैं। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि, उनके एक स्थान पर एक झंडे के नीचे एकत्र होने की है।' उन्होंने कहा, 

'भारत की सभी जातियों एवं धर्मों के व्यक्ति धार्मिक एवं जातीय भेदभाव भूलकर एक हो गए और उनमें संगठित होने की भावना जाग्रत हुई, यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसका अनुसरण हम सबको करना चाहिए।’


महात्मा गांधी

नौसेना विद्रोह

आई.एन.ए. के आगमन एवं लाल किले में चलाए गए अभियोग का असर मुल्क़ में सशस्त्र सेना के हिंदुस्तानी अफ़सरों और फ़ौजियों पर पड़ा।

लाल किला ट्रायल के प्रभाव से ही नौसेना और वायु सेना में विद्रोह हुआ और कई जगह अनेक टोलियों में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह की हवा फैल गई। कामगार, आम राजनैतिक हड़ताल पर चले गये तथा आम जीवन अस्त-व्यस्त हो गया।

ज़ाहिर है कि इस पूरे घटनाक्रम से हिंदुस्तान में ब्रिटिश राज की नींव हिल गई। जवाहरलाल नेहरू ने इस ऐतिहासिक मुक़दमे पर मोतीराम द्वारा संपादित किताब ‘टू हिस्टॉरिक ट्रायल्स इन रेड फोर्ट’ की प्रस्तावना में लिखा है,

'क़ानूनी मुद्दे अत्यंत महत्वपूर्ण थे, परन्तु क़ानून से परे इसमें ऐसा कुछ था, जो गहरा तथा अधिक महत्वपूर्ण था। ऐसा कुछ जिसने भारतीय मस्तिकों की अर्ध चेतन गहराईयों को झकझोर दिया।'


जवाहर लाल नेहरू, प्रथम प्रधानमंत्री

अंग्रेजों को लगने लगा कि हिन्दुस्तानी फ़ौजों की पूरी हमदर्दी आज़ाद हिन्द फ़ौज के साथ है। उन्हें हिन्दुस्तानी फ़ौजों की वफ़ादारी पर शक होने लगा। वे समझ गये कि जिस देश का सिपाही आज़ादी के लिये आमादा हो जाये, उसे ज़्यादा दिन ग़ुलाम बनाये नहीं रखा जा सकता।

लंदन में ब्रिटिश सरकार ने अविलंब हिंदुस्तान छोड़ने का फ़ैसला कर लिया। ब्रिटिश सरकार की ओर से एक कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया। जिसका काम भारत से ब्रिटिश शासन हटाने की योजना तैयार करना था। बहरहाल, हिन्दुस्तानी तारीख की इस घटना ‘लाल किला ट्रायल’ के 18 महीने बाद यानी 15 अगस्त, 1947 को हमारा मुल्क़ आज़ाद हो गया।