विरोधाभासों के कारण सैकड़ों वर्षों से भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखा जाता रहा जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है। यहाँ तवज्जो पाने के लिए बीता हुआ कल और वर्तमान आपस में संघर्षरत रहे हैं। 2020 तक भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा युवाओं वाला देश हो जाएगा, लेकिन इसके साथ ही 60 से ज़्यादा उम्र की जनसंख्या के मामले में भी भारत दूसरे नंबर पर होगा। आज़ादी के बाद देश को सत्तर साल हो गये हैं, लेकिन इसके नेता एक किशोर की भाषा की तरह बोलते हैं। राष्ट्र व्यस्क हो गया है, लेकिन इसके नेता एक बुरे नौसिखिये की तरह आपस में लड़ते हैं। वे सर्वसम्मति से नहीं, आक्रामकता से जीतना चाहते हैं। इस दौर का कोई भी नेता न तो सौहार्द्रपूर्ण भारत की बात करता है और न ही सकारात्मक एजेंडे की। उनके विचार शासन-प्रणाली के सिद्धांतों पर नहीं, बल्कि जाति, समुदाय, आरक्षण, मंदिर और चुनाव से पहले मुफ़्त में बाँटी जानी वाली चीजों की घोषणाओं पर टिकी है। 90 करोड़ मतदाताओं के साथ दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत अब परस्पर विरोधी विचारों के बीच प्रतिस्पर्धा का मंच नहीं रहा।
नेताओं के बीच अब वैचारिक स्तर पर संघर्ष वैसा नहीं रहा जो यादगार बन जाये। आक्रामक चुनावी लड़ाई में ‘आँख के बदले आँख’ की तर्ज पर अब ‘गाली के बदले गाली’ का प्रयोग हो रहा है।
सभी दलों के नेता घृणा उगलने वाले अपशब्दों में से भी ऐसे शब्द ढूंढ रहे हैं जो विरोधियों को समाज के नाम पर एक कलंक साबित कर सके। कांग्रेस नेता प्रधानमंत्री मोदी को मसूद अज़हर, ओसामा, दाउद और आईएसआई के मिश्रण के रूप में बता रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष बीजेपी के नारे पर कटाक्ष करते हुए कह रहे हैं कि ‘चौकीदार चोर है’। इसके कुछ सप्ताह बाद मेरठ में अपनी पहली चुनावी रैली में मोदी ने भी कुछ इसी तरह जवाब देते हुए एसपी-आरजेडी-बीएसपी के गठबंधन को ‘सराब’ (शराब) बता दिया। तीनों दलों के नाम के पहले अक्षर को जोड़कर उन्होंने मतदाताओं को यह बताने की कोशिश की कि यह गठबंधन उनके लिए फ़ायदेमंद नहीं होगा।
विचारधारा की बात क्यों नहीं
जब से 17वें लोकसभा चुनावों की उलटी गिनती शुरू हुई है तब से ही सभी राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और छोटे दल एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतिस्पर्धा में जुट गये हैं। न तो ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ता और न ही राष्ट्रीय स्तर के नेता मुद्दों और विचारधारा की चर्चा करते हैं। बमुश्किल ही कोई पार्टी या नेता होगा जिसने ऐसे ओछे नये नैरेटिव को नहीं अपनाया होगा। अच्छाई की जगह बुराई और भोंडापन ही अब प्रचलन में है। विरोधियों को कलंकित बताने के लिए अपशब्दों और ऐसे ही विशेषणों वाले शब्दों को इज़ाद करने के लिए फ्रीलांस गीतकार, स्थानीय शिक्षाविदों और मनोरंजन करने वालों को जोड़ा गया है। चुनावी आचार संहिता को पालन करने वाला बिना लड़ाई लड़े ही चुनाव हार रहा है। संवाद ख़त्म हो रहा हैै और यह उस ख़राब दौर में पहुँच गया है जहाँ राजनीतिक विरोधी एक-दूसरे से सामाजिक संबंध भी तोड़ रहे हैं। इसकी जगह वे ट्विटर, इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक और वॉट्सऐप पर आपसी मामले निपटा रहे हैं।
महिलाओं के प्रति द्वेष क्यों
महिला-द्वेष भी राजनीतिक दलों के नेताओं में एक समान है। लोगों की नज़र में आने के लिए महिलाओं को निशाना बनाना उनके लिए आसान है। जिस वक़्त एक महिला राजनीति में आती है या किसी नेता या विचारधारा के ख़िलाफ़ बोलती है, उसे घिनौने व्यक्तिगत हमले का शिकार बनाया जाता है। प्रियंका गाँधी के रंग को लेकर मज़ाक उड़ाया गया। जब फ़िल्म स्टार उर्मिला मातोंडकर सीधे राजनीति में आयीं तो उनके चरित्र को लेकर उन्हें बहुत बुरे तरीक़े से ट्रोल किया गया। अनुभवी राजनेता जया प्रदा को भी नहीं छोड़ा गया। राजनीति के खिलाड़ी पार्टी में बड़े पद पाने के लिए अपशब्दों और ऐसे ही विशेषण वाले शब्दों की कलाकारी पर निर्भर हो गये हैं।
अपशब्दों का अर्धशतक या शतक बनाने पर नेताओं को ‘बहादुरी पुरस्कार’ मिलता है और उनके राजनीतिक आका ऐसे लोगों पर विशेष ध्यान देते हैं। अधिक मतदाताओं को लुभाने के लिए नहीं, बल्कि अपने आकाओं के विरोधी नेता को बदनाम और शर्मिंदा करने के लिए उन्हें पुरस्कार मिलता है।
कोलकाता से लेकर कालीकट और चंडीगढ़ से चेन्नई तक लोगों को लुभाने के लिए नेता अपनी पार्टी को ऐसे ऑफ़र देते हैं जैसे रेहड़ी वाले सब्ज़ियाँ बेच रहे हों। ऐसे चुनावी रणबांकुरों के भाषण और भावार्थ साफ़ तौर पर दिखाते हैं कि विचारधारा का उनको बिलकुल ज्ञान नहीं है। उनके शब्द न तो विरासत में मिली भाषा के इर्द-गिर्द रहते हैं और न ही वह अपनी उपलब्धियाँ गिनाते हैं। भविष्य के भारत के विकास का ख़ाका जैसे शब्द उनके शब्दकोश से ग़ायब हैं। जब से 2019 लोकसभा चुनाव का प्रचार अभियान शुरू हुआ है, नरेंद्र मोदी और राहुल गाँधी दोनों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ व्यक्तिगत हमले किये हैं। विडम्बना यह है कि दोनों नेताओं के पास यह अवसर है कि वे सुपरपावर के रूप में भारत के विकास के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के बारे में बात करें। मोदी ने अपने कई वायदे पूरे किये हैं। वह जायज़ रूप से दावा कर सकते हैं कि कांग्रेस के छह दशकों के शासन की अपेक्षा उनकी सरकार ने पाँच साल में कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपेक्षा से बढ़िया काम किया है। इसके बावजूद वह इस बात पर यक़ीन करते हैं कि चुनाव ज़ुबानी जंग से जीते जाते हैं, न कि विकास के आँकड़ों को सबूत के रूप में पेश कर।
कांग्रेस उपलब्धियाँ क्यों नहीं गिनाती
हालाँकि पिछली यूपीए सरकार की ख़राब रिपोर्ट कांग्रेस के लिए एक परेशानी है, लेकिन पार्टी अध्यक्ष यह भुना सकते हैं कि उनकी पार्टी के कार्यकाल में ही भारत एक आधुनिक देश बना। वह इस पर भी ज़ोर दे सकते हैं कि उनकी दादी और उनके पिता ने समावेशी भारत के विचार को बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। हालाँकि मोदी के ख़िलाफ़ राहुल का ज़ोरदार तरीक़े से व्यक्तिगत हमला लगातार जारी है। दोनों नेताओं के व्यवहार और बॉडी लैंग्वेज़ से लगता है कि वे शिष्टता को ख़त्म करने की राह पर अग्रसर हैं।
चुनावी बहस इतने निचले स्तर तक कैसे गिर गयी क्या यह इसलिए है कि जनसांख्यिकी बदलाव हुए हैं। क्या मनगढ़ंत तारीफ़ के लिए ‘न्यू इंडिया’ मुक़ाबला-और-अपमान की संस्कृति का समर्थन करता है
जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, ई.एम.एस. नंबूदरिपाद, राम मनोहर लोहिया, इंदिरा गाँधी, दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, ज्योति बसु, चंद्रशेखर, पी.वी नरसिम्हा राव आदि का भारत अपने ख़राब समय में भी सौहार्द्रपूर्ण लोकाचार निभाता था और इस तरह राष्ट्रीय एकजुटता बनी रहती थी।
वे लोग एक-दूसरे की राजनीतिक विचारधारा पर सवाल उठाते थे, लेकिन उनकी ईमानदारी पर कभी भी संदेह नहीं जताते थे। कुछ समाज विज्ञानियों का मानना है कि भारतीय राजनेताओं की अप्रत्याशित आक्रामकता आज यह दिखाती है कि देश की जनसंख्या की प्रकृति बदली है। देश की 65 फ़ीसदी आबादी 35 वर्ष से कम उम्र ही है। ऐसे में युवा नेतृत्व इस तरह से लोगों तक पहुँच रहा है जो उन्हें तुरंत जोड़े और फ़ायदा कराना सुनिश्चित कराये। एक दूसरा कारण यह हो सकता है कि राजनीति में नए-नए प्रवेश करने वाले नेताओं की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि अपने पूर्ववर्ती नेताओं से अलग है। पहले के समय में वैसे नेता अधिक थे जो या तो शहरी उच्च वर्ग से थे या किसान थे जो काफ़ी सभ्य रूप से पले-बढ़े थे। राजनीतिक संघर्ष से उन वंचितों और दलितों की जीत हुई जिन्हें उनके अधिकार नहीं दिये जाते रहे थे।
इसके अलावा राजनीतिक विरोधियों के बीच सामाजिक जुड़ाव पिछले दशक में क़रीब-क़रीब ख़त्म हो गया। पहले वे संसद या विधानसभाओं के अंदर लड़ते थे, लेकिन शाम ढलने के बाद एक साथ एक मेज़ पर खाना खाते थे। आजकल राष्ट्रीय स्तर के नेता या मुख्यमंत्रियों के अनौपचारिक डिनर या लंच की बात कहीं सुनने को नहीं मिलती। यदि ऐसा हो भी जाए तो उनको संदेह की नज़र से देखा जाने लगता है।
किसी प्रचलित विचार को रचनात्मक रूप से विरोध करने वालों की जगह अब दबाव में पुराने ढर्रे पर चलने वाले नेताओं ने ले ली है। एक देश के रूप में भारत की एकता और विविधता की जो विशेष पहचान है वह ख़तरे में है। यदि राजनीतिक दल शासन-प्रणाली के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक स्वीकार्य न्यूनतम एजेंडा सुनिश्चित नहीं कर सकते तो उन्हें कम से कम एक सभ्य संवाद के लिए एक संहिता तो इज़ाद करनी ही चाहिए। लोकतंत्र संवाद के ज़रिये ही बचा रह सकता है, एक-दूसरे पर दोष मढ़कर नहीं।
(संडे स्टैंडर्ड से साभार)