देश के विपक्षी शासित राज्यों में जब राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं, ऐसे में अरुणाचल प्रदेश में 2015 में हुए घटनाक्रम पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर नज़र डालना ज़रूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2016 में सुनाए गए अपने फ़ैसले में राज्यपाल की भूमिका को बहुत स्पष्ट कर दिया था। लेकिन इसके बावजूद तमाम विपक्ष शासित राज्यों के राज्यपाल सबक़ लेने को तैयार नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट के उस फ़ैसले के बारे में बताने से पहले पहले जानते हैं कि वो पूरा घटनाक्रम क्या था, जिस पर फ़ैसला आया था।
क्या हुआ था अरुणाचल में
2014 में जब बीजेपी केंद्र की सत्ता में आ गई तो उसने विपक्षी शासित राज्यों की सरकार पलटने का सिलसिला शुरू किया। और वो ऑपरेशन लोटस अभी तक जारी है। झारखंड का घटनाक्रम सबसे ताजा उदाहरण है। महाराष्ट्र में जो हुआ, वो भी ज्यादा पुरानी बात नहीं है। आप किसी भी विपक्ष शासित राज्य पर नज़र दौड़ाइए, वहाँ के मुख्यमंत्रियों के लिए वहाँ के राज्यपालों ने सरकार चलाना मुश्किल कर रखा है।
तो, 2015 में अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस की चुनी हुई सरकार थी। उसके कुछ विधायकों ने विद्रोह किया और बीजेपी ने फौरन बिसात बिछा दी। केंद्र ने राज्यपाल की सलाह पर नबाम तुकी की सरकार को बर्खास्त कर दिया। राज्यपाल जेपी राजखोवा ने फौरन बीजेपी के पसंद वाले कलिकोपुल को सीएम की शपथ दिला दी। कांग्रेस ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की बेंच गठित की और उसके सामने मामला भेज दिया गया। इस बेंच में जस्टिस जे.एस. खेहर, दीपक मिश्रा, एम.बी. लोकुर, पी.सी. घोष और एन.वी. रमण थे। उन्होंने राज्यपाल द्वारा दूसरे सीएम को दिलाई गई शपथ को असंवैधानिक करार दिया। इसके बाद नबाम तुकी यानी कांग्रेस की सरकार फिर वापस आ गई। लेकिन फ्लोर टेस्ट में नबाम तुकी की सरकार गिर गई और फिर से बीजेपी की सरकार आ गई। इस तरह सुप्रीम कोर्ट के फैसले को 'राजनीतिक पटकनी' दी गई।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
बेशक अरुणाचल प्रदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को राजनीतिक रूप से पलट दिया गया लेकिन उस फैसले में राज्यपाल की भूमिका को लेकर कही गई बातों को देश की कोई अदालत आज भी खारिज नहीं कर सकती। वो फैसला देश के सभी राज्यपालों की भूमिका को समझने के लिए एक नजीर है।
अरुणाचल प्रदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना था कि क्या राज्यपाल के पास कैबिनेट के परामर्श के बिना विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने की पावर है। दूसरा क्या विधानसभा अध्यक्ष विधायकों को अयोग्य ठहरा सकते हैं, जबकि उनके निष्कासन का प्रस्ताव सदन के सामने लंबित था?
जस्टिस खेहर के नेतृत्व में संवैधानिक बेंच ने राज्यपाल के फैसले को खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि स्पीकर के कार्यों में हस्तक्षेप करना राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। वो न तो स्पीकर के मार्गदर्शक हैं और न ही संरक्षक की भूमिका में हैं। सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट को आगे बढ़ाने के अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल जे पी राजखोवा के फैसले को असंवैधानिक करार दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा-
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अध्यक्ष के कार्यों में हस्तक्षेप करना राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं है, क्योंकि राज्यपाल न तो मार्गदर्शक हैं और न ही अध्यक्ष के सलाहकार हैं। विधानसभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को हटाने में उनकी कोई भूमिका नहीं है ... राज्यपाल और अध्यक्ष के पास स्वतंत्र संवैधानिक जिम्मेदारियां हैं। अदालत ने कहा कि जब तक विधानसभा में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत बहुमत वाली सरकार चल रही , तब तक उसके आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट, जुलाई 2016 में अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल के संदर्भ में
सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में यह भी कहा था -
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यह राज्यपाल के दायरे में नहीं है कि वह खुद को किसी राजनीतिक घेरे में उलझाए। राज्यपाल को व्यक्तिगत रूप से राजनीतिक दलों के भीतर किसी भी तरह की असहमति, कलह, असहमति, असंतोष या मतभेद से दूर रहना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट, जुलाई 2016 में अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल के संदर्भ में
अदालत ने इसे और साफ करते हुए फैसले में लिखा था-
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एक राजनीतिक दल के भीतर की गतिविधियाँ, उसके रैंकों के भीतर अशांति, या अशांति की पुष्टि करना, राज्यपाल की चिंता से परे है। राज्यपाल को किसी भी राजनीतिक खरीद-फरोख्त, और यहां तक कि अस्वाभाविक राजनीतिक जोड़-तोड़ से भी दूर रहना चाहिए, भले ही उनकी नैतिकता की डिग्री कुछ भी हो।
-सुप्रीम कोर्ट, जुलाई 2016 में अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल के संदर्भ में
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 163 का जिक्र करते हुए कहा कि राज्य के राज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह से काम करने की जरूरत है। अरुणाचल के स्पीकर नबाम रेबिया ने तर्क दिया था कि भले ही राज्यपाल के पास विवेकाधिकार है, लेकिन इसे 'संवैधानिक' विवेक के रूप में समझा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि राज्यपाल व्यापक विवेकाधीन शक्तियों का आनंद नहीं ले सकता और हमेशा संवैधानिक मानकों के अधीन काम करना होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर विचार किया कि क्या राज्यपाल को अपने विवेक से या मंत्रिमंडल की सलाह से अपने विवेकाधिकार वाली पावर का प्रयोग करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल के विवेक का विस्तार अनुच्छेद 174 के तहत दी गई शक्तियों तक नहीं है। इसलिए, वह सदन को बुलाने, इसके विधायी एजेंडे को तय करने या सलाह के बिना विधान सभा को संबोधित करने में सक्षम नहीं है। बहुत स्पष्ट है कि राज्यपाल को उस राज्य की सरकार के हिसाब से ही काम करना चाहिए। अनावश्यक दखलन्दाजी का अधिकार उसके पास नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के इतने स्पष्ट आदेश के बावजूद न तो बीजेपी ने कोई सबक सीखा और न ही उसके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों ने कोई सबक सीखा। झारखंड, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल के बाद अब पंजाब के राज्यपाल की कहानी सामने आ रही है। जिस पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार प्रचंड बहुमत लेकर आई हो, वहां के राज्यपाल पर राज्य सरकार को परेशान करने का आरोप लग रहा है। दिल्ली में उपराज्यपाल भी इसी भूमिका में हैं, जहां केजरीवाल सरकार असंख्य जांच का सामना कर रही है। खासकर दिल्ली के संदर्भ में एलजी की तमाम जांचों को खारिज नहीं किया जा सकता है, लेकिन ऐसे में एलजी का आचरण ऐसा नहीं होना चाहिए वो केंद्र सरकार या किसी पार्टी विशेष के लिए एजेंट की भूमिका निभा रहे हैं। इसी संदर्भ में आप के तेज तर्रार सांसद संजय सिंह ने एलजी की भूमिका पर वाजिब सवाल उठाए हैं। यहां फिर स्पष्ट किया जा रहा है कि केजरीवाल सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों के संदर्भ में जांच तो जरूरी है लेकिन एलजी को यह बेहतर पता होगा कि उन्हें ऐसे मामलों में किस तरह पेश आना है।