सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फ़ैसले में कहा है कि सरकार से अलग राय प्रकट करना राजद्रोह नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने फ़ारूक़ अब्दुल्ला के ख़िलाफ़ दायर याचिका की सुनवाई करते हुए यह निर्णय सुनाया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता यह साबित करने में नाकाम रहे कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370 ख़त्म किए जाने के बाद भारत के ख़िलाफ़ चीन या पाकिस्तान से किसी तरह की मदद ली थी। याचिकाकर्ता पर 50 हज़ार रुपए का ज़ुर्माना लगाया गया।
सर्वोच्च अदालत ने कहा कि सरकार से असहमत होना या उससे अलग राय रखना या उन्हें व्यक्त करना राजद्रोह नहीं माना जा सकता है।
क्या है मामला?
याचिकाकर्ता रजत शर्मा और नेह श्रीवास्तव ने 2019 में अनुच्छेद 370 ख़त्म किए जाने के ख़िलाफ़ फ़ारूक अब्दुल्ला के दिए गए बयान पर अदालत में याचिका दायर की थी। उन्होंने कहा था कि नेशनल कॉन्फ्रेंस का यह नेता देशद्रोही है और उसे सांसद के रूप में काम करते रहते देने का मतलब देशद्रोह और भारत-विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने के समान होगा। उन्होंने यह भी कहा कि यह देश की एकता के ख़िलाफ़ है।
बता दें कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं। केंद्र सरकार ने 5 अगस्त, 2019, को अनुच्छेद 370 ख़त्म करते समय उन्हें एहतियाती तौर पर नज़रबंद कर दिया था। वे कई महीने बाद रिहा किए गए।
क्या कहा था दिल्ली की अदालत ने?
इसके पहले दिल्ली सत्र न्यायालय के जज जस्टिस धर्मेंद्र राणा ने कहा था, “किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार की अंतरात्मा की आवाज़ के रक्षक होते हैं। उन्हें जेल में सिर्फ इस आधार पर नहीं डाला जा सकता है कि वे सरकार की नीतियों से इत्तेफाक़ नहीं रखते...राजद्रोह सरकारों की घायल अहं की तुष्टि के लिये नहीं लगाया जा सकता है। एक जाग्रत और मज़बूती से अपनी बातों को रखने वाला नागरिक समाज एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है।”
जज ने निहारेन्दु दत्त मजुमदार बनाम एम्परर एआईआर मामले के फ़ैसले के हवाले से कहा, “विचारों की भिन्नता, अलग-अलग राय, असहमति यहाँ तक अनुपात से अधिक असहमति भी सरकार की नीतियों में वैचारिकता बढ़ाती है।”
न्यायाधीश राणा ने कहा कि यहाँ तक कि हमारे पूर्वजों ने बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक सम्मानजनक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी और अलग-अलग विचारों को सम्मान दिया। उन्होंने कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत असहमति का अधिकार दृढ़ता से निहित है।
इसके भी पहले सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह के मामले में जज ने 1962 के केदार नाथ मामले का हवाला देते हुए कहा कि ‘सिर्फ शब्दों से ही नहीं, बल्कि उन शब्दों के कारण वास्तव में हिंसा या उसके लिए उकसावा देने का मामला साबित होना चाहिए।’