उनके चेहरे पर दर्द की एक तीखी लाइन उभरी जब वह बताने लगे ‘हर रिफ्यूजी (शरणार्थी) की तरह मैं भी लुटे-पिटे हाल में बॉम्बे पहुँचा था। यह सन उन्चास का नवम्बर था। कराची के कुछ दोस्त जो हमसे पहले यहाँ आ गए थे, उन्होंने इन्हें हाथों-हाथ लिया। दोस्तों के भी लेकिन सीमित हाथ थे। आख़िर थे तो वे भी रिफ्यूजी।’ कुछ ही महीनों में उन्हें मरीन ड्राइव की ‘वीर नरीमन रोड’ की शानदार 'क्लॉथ मर्चेंट एंड टेलर शॉप’ में पाँच सौ रुपये महीना पर 'चीफ़ क़टर' की नौकरी मिल गयी। आहिस्ता से अपनी दाहिनी आँख मार कर हंगल साहब मुझसे कहते हैं, ‘ये एक अच्छी ख़ासी इनकम थी यार!’
उन्होंने 'इप्टा' को तलाशा, विभाजन के बाद जिसे पुनर्संगठित करने की कोशिशें हो रही थीं। हंगल साहब ने एक्टिंग शुरू की और मुझे कई लोगों ने बताया कि “'इप्टा' खड़ा करने में अपना तन-मन-धन सब झोंक दिया।” उनसे जुड़े छोटे-बड़े एक्टर और बड़े-छोटे डायरेक्टर, सभी का कहना था कि टेलरिंग की दुकान से उनकी तनख़्वाह 500 रुपये थी तो वह 300 रुपये 'इप्टा' को देते थे। उनका वेतन हज़ार रुपये हुआ तो 'इप्टा' को दी जाने वाली रक़म बढ़कर 600 हो गयी। फ़िल्मों में स्टार कैरेक्टर आर्टिस्ट बन जाने के बाद भी उनकी आमदनी का पुख़्ता पार्टनर 'इप्टा' होता था।
‘क्या इसीलिये आपके यहाँ छापा मारने वाले इनकम टैक्स ऑफिसर ने जब आपका बैंक बैलेंस देखा तो झेंप गया’ मैं पूछता हूँ।
वह जवाब देते हैं, “उस बेचारे की शर्मिंदगी का तो तब कोई ठिकाना नहीं रहा जब उसने मेरे फ़्लैट की किराये की रसीदें देखीं। वह तो यह मान कर चल रहा था कि हर फ़िल्म में इम्पोर्टेन्ट रोल में दिखते हैं, कितने भी फटीचर क्यों न हों, कम से कम फ़्लैट तो अपना होगा ही! मेरे एक हाथ में बैंक पासबुक थी तो दूसरे में इप्टा' सहित दूसरे चैरिटी संगठनों को भुगतान की पावती (रसीद)।”
‘हंगल साहब आपको अपने अंतिम दौर के लिए तो कुछ बचा कर रखना पड़ेगा !’ मैं बिन माँगा कंसल्टेंट बन जाता हूँ।
वह ठहाका लगाते हैं।
‘क्यों आप सब दोस्त हैं न!’ उनके चेहरे पर आभा खिल जाती है।
(दस साल बाद- सन 2012, मैं सचमुच अख़बारों में पढ़ता हूँ- आख़िरी दौर में उनके इलाज के लिए उनके दोस्तों को फ़ंड की अपील जारी करनी पड़ी थी। दोस्तों के लाख जतन उन्हें बचा न सके।)
बात करते-करते वह फिर सन 51-52 की स्मृतियों में लौट पड़ते हैं।
कुछ साल बीतते-बीतते 'इप्टा' ने जड़ें जमा ली थीं। गीतकार शैलेन्द्र लौटे। सलिल चौधरी और कनु घोष लौट आये। आगे चलकर शैलेन्द्र, प्रेम धवन और शील जी के अनेक गीतों को इन लोगों ने ‘इप्टा’ के लिए स्वरबद्ध किया। पहला बड़ा नाटक आचार्य आत्रेय के तेलगु नाटक का एडेप्टेशन 'बाबू' था। निर्देशक आरएम सिंह।
हंगल साहब नाटकों, निर्देशकों और अभिनेताओं के नाम उँगलियों पर गिनाते चले जा रहे हैं। कुछ के निर्देशक वह स्वयं भी थे। इतिहास की पुरानी यादें उन्हें खुशगवार बना रही थीं। उनके चेहरे पर उनकी शर्ट का रंग हावी होता जा रहा है। वह गिनते ही रहते हैं।
मैं उनसे 'आख़िरी शमा' के बारे में पूछता हूँ। वह ठहरते हैं।
यह नाटक ग़ालिब की पुण्य तिथि के सौ साला जश्न के आग़ाज़ के रूप में ‘इप्टा’ ने तैयार किया था। इसके निर्देशक एमएस सथ्यू थे और स्क्रिप्ट क़ैफ़ी आज़मी की थी। यह मूलतः 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था। ग़ालिब इस बग़ावत की गवाही का निशां थे। इसकी पहली प्रस्तुति दिल्ली स्थित लाल क़िले के दीवान-ए-आम में हुई। यह 15 फ़रवरी 1969 की शाम थी। बलराज साहनी इसमें ग़ालिब की भूमिका निभा रहे थे। हंगल साहब ने प्रसिद्ध शायर ज़ौक़ का रोल किया था। कोई डायलॉग याद है पूछने पर मुस्कराते हैं।
‘क्यों नहीं! नाटक में इस्तेमाल हुआ ज़ौक़ का एक शेर सुनिए-तू भला है तो बुरा हो नहीं सकता, ऐ ज़ौक़
है बुरा वो ही कि जो तुझको बुरा जानता है।
और अगर तू ही बुरा है तो वो सच कहता है
क्यों बुरा कहने से तू उसको बुरा मानता है।।’
राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने इस नाटक का उद्घाटन किया था।
हंगल साहब के गुज़र जाने के अरसा बाद मैंने निर्देशक एमएस सथ्यू से एके हंगल की भूमिका की बाबत पूछा। वह धीरे से हँसे।
‘वो बड़ा भीतरी में काम करने वाले एक्टर थे। चाहे ज़ौक़ के घर के सीन हों या दीवान-ए-आम में मुशायरे के समय की बैठकी के। ज़ौक़ के होने, उसके दरबारी शायर और बादशाह के उस्ताद शायर होने का जो ग़ुरूर था, वो हंगल साहब के चेहरे पर साफ़ झलकता था। बलराज जी तो ग़ालिब के रोल में सुपर्व थे ही, बाक़ी हंगल साहब भी अपने रोल में किसी से उन्नीस नहीं पड़ते थे।’
फ़िल्म 'गर्म हवा' में कराची से आये एक सिंधी शरणार्थी व्यापारी के रूप में एके हंगल को कास्ट करने के पीछे क्या था -पूछने पर सथ्यू जवाब देते हैं “हंगल साहब कराची से आये थे, यह तो मुझे मालूम था ही, उनका लुक भी सिंधी जैसा है। फिर 'गर्म हवा' का वह जो कैरेक्टर है, वह रेफ्यूजी होने बावजूद उस तरह का लुटेरा नहीं है। बेशक मिर्ज़ा उसके कम्पटीटर हैं लेकिन भीतर कहीं एक ह्यूमेन भी है जो उसे मिर्ज़ा के प्रति सिम्पेथेटिक रखता है। टीम में इस कॉन्ट्रडिक्शन को ऐसी ख़ूबसूरती से निभा पाने वाली हंगल साहब के अलावा मेरे पास दूसरी चॉइस थी ही कहाँ।”
हंगल साहब अभी 'फ़िफ़्टीज़' के अपने स्वप्निल संसार से बाहर नहीं निकलते। वह जारी रहते हैं। मुंबई आकर टेलरिंग की नौकरी के बाद का पूरा वक़्त उन्होंने दो ही चीज़ों पर ख़र्च किया- 'इप्टा' के संगठन को विकसित करने में और अपने एक्टर का विकास करने में। मुंबई के हंगल का एक्टर हर दिन 'यथार्थवाद' के स्कूल की एक-एक सीढ़ियाँ चढ़ता जा रहा था।
‘आपका उस्ताद कौन था’
पूछने पर वह बेखटके बलराज साहनी का नाम लेते हैं। वह बताते हैं कि बहुत से निर्देशकों से बहुत कुछ सीखा ‘पर बलराज जी अल्टीमेट टीचर थे। थिएटर हो या फ़िल्म, बलराज जी बहुतों के टीचर थे।’ वह मुस्कराते हैं और बलराज साहनी की 'मसल थ्योरी' का ज़िक्र छेड़ देते हैं।
"अपने उस्ताद की उस ख़तरनाक ट्रेनिंग को कभी नहीं भूल सकता।"
नाटक में उन्हें रोते हुए एकदम से हतप्रभ रह जाने का अभिनय करना था। वह ठीक से रोते तो हतप्रभ नहीं रह पाते और हतप्रभ हो जाते तो रोना नहीं आता। बलराज साहनी बड़ी देर से उनको समझा रहे थे लेकिन सब बेकार था। अचानक एक ज़ोरदार तमाचा उनके गाल पर पड़ा। यह ताक़त के साथ मारा गया बलराज जी का झापड़ था। गाल पर उँगलियाँ छप गयीं। रोते हुए हुए इन्होंने आँखों ही आँखों में ‘उस्ताद’ से इस झापड़ का सबब पूछ लिया।
बलराज साहनी ने आहिस्ता से इनका कन्धा दबाकर कहा- ‘यह थी मसल थ्योरी। तुम रो भी पड़े और हक्के बक्के भी रह गए। इस सीन में एक्ज़ेक्टली यही चाहिए।’
फ़िल्म शोले में ए के हंगल।
'शोले'
'शोले' में इमाम की शानदार भूमिका को निभा पाने का रहस्य पूछता हूँ। वह अपने नाती (सचिन) की हत्या के बाद पहुँचे उसके शव वाले वाले दृश्य का ज़िक्र करते हैं।
"मैंने फ़िल्म के स्क्रिप्ट राइटर जावेद अख़्तर से पूछा कि इमाम की आइडिओलॉजी क्या है वह कुछ देर सोचने के बाद बोले- ‘यह तो मुझे भी नहीं मालूम हंगल साहब, बाक़ी आपको उसकी आइडिओलॉजी से क्या लेना-देना’ मैंने कहा- ‘है। अगर जो वो फ़ण्डामेंटालिस्ट विचारों का है तो हिंदू गब्बर द्वारा की गयी इस नाती की हत्या को कम्युनल एंगिल से देखेगा और इस पर उसका रिएक्शन अलग होगा। अगर जो वह फ़ण्डामेंटालिस्ट नहीं है तो वह इसे सिम्पली एक क्रिमिनल एक्ट मानेगा और तब उसके रिएक्शन डिफरेंट होंगे। जावेद कुछ देर सोचने के बाद बोले चलिए इमाम की आइडिओलॉजी का झमेला मैं इमाम के ऊपर ही छोड़ता हूँ।"
“‘इतना सन्नाटा क्यूँ है भाई’ संवाद वाला दृश्य पहले ही टेक में ओके हो गया। ‘रमेश (सिप्पी) मुझसे पूछने लगे कि आपका वो दोनों हाथ फैलाकर कुछ ढूँढ़ने वाले इम्प्रोवाइजेशन का आइडिया क्या था कहाँ से लिया’ मैंने कहा- ‘कहीं से नहीं। शूट से पहले मैंने सोचना शुरू किया कि इंसान के पास सबसे बड़ी नियामत क्या है मन ने कहा आँखें। अगर आँख खो जाये तो उसका जैसे सब कुछ लुट जाता है। मैं उस सीन में बेचैन सा अपनी उन्हीं खोई हुई दो आँखों की तलाश करते हुए एंट्री लेता हूँ और बरबस बोल पड़ता हूँ-इतना सन्नाटा क्यों है भाई”
मशहूर फ़िल्म निर्देशक रमेश तलवार ने बचपन से हंगल साहब को अभिनय करते देखा है। बाद में वह नाटकों में उनके सह अभिनेता बने, 'शतरंज के मोहरे' और 'तन्हाई' आदि नाटकों के निर्देशक बने। “उन दिनों मैं यश चोपड़ा जी का चीफ़ असिस्टेंट डायरेक्टर था। ‘दाग़' में वकील की भूमिका हंगल साहब को दिए जाने का फ़ैसला मेरा ही था और यश जी ने इस पर सहमति दे दी थी। बाद में मैंने अपनी फ़िल्म ‘साहिबा’ में राखी और रेखा के पिता की भूमिका उन्हीं को सौंपी थी।” उनके बारे में बात करते-करते तलवार भावुक हो जाते हैं। "वो हमारे बुज़ुर्ग भी थे और दोस्त भी। जब हमें ज़रूरत होती, हम उनके पास पहुँच जाते। वो हमारे सर पर अपना हाथ रख देते और हमारी मुश्किलें आसान हो जातीं।"
मेरे पूछने पर कि उनकी कोई नेगेटिविटी बताइये, तलवार कहते हैं "उनमें एक ही नेगेटिविटी थी कि वह उसूलों के पक्के थे। आज के ज़माने में उसूलों से बड़ी नेगेटिविटी क्या होगी कोई धरना हो, प्रदर्शन हो, वो सबसे आगे-आगे चलते। वो हम सब के लीडर थे।"
डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म मेकर मसूद अख़्तर नाटकों और फ़िल्मों के सीनियर एक्टर भी हैं, 'इप्टा' की मुंबई इकाई के सेक्रेटरी भी। पूछने पर कहते हैं-
"हंगल साहब प्योर पर्फ़ेक्शनिस्ट थे। अगर ब्लॉकिंग में आप छै फ़ुट की दूरी पर खड़े होते हैं और किसी दिन रिहर्सल में ग़लती से तीन फ़ुट पर खड़े हो गए तो वह रुक कर पूछने लगेंगे-आपको तो वहाँ खड़ा होना था, आप यहाँ कैसे आ गए इसी तरह मान लीजिये डायलॉग है- ‘तुम कहाँ जा रहे हो' और आपने कहीं कह दिया- ‘तुम जा कहाँ रहे हो’ बस वह काम छोड़ कर खड़े हो जाते। आपका डायलॉग तो यह है कि तुम कहाँ जा रहे हो”
'वागले की दुनिया' वाले अंजन श्रीवास्तव कहते हैं "इप्टा लीडरशिप में उन्होंने मुझ जैसे कइयों को डेवेलप किया। वह कहते- अकेले एक्टर बनने से काम नहीं चलेगा, तुममें हुनर है इसलिए ऑर्गेनाइज़ेशन का काम भी संभालना होगा।"
सुलभा आर्य ने अपनी 64 बरस की उम्र तक उनके साथ काम किया। 'इप्टा' में जब वह आईं तो 17 बरस की थीं। 'इप्टा' और हंगल साहब के साथ घटे जीवन के इन सक्रिय 47 सालों को याद करते-करते वह भावुक हो पड़ती हैं। "अभिनय की एक-एक बारीकियाँ मैंने हंगल साहब से सीखीं और जानीं। वह एक्टिंग को बड़ी डिटेलिंग में नापते थे। मैंने 'शतरंज के मोहरे' नाटक में उनकी बेटी का रोल किया है, 'होरी' में उनकी पत्नी धनिया की भूमिका की, 'आख़िरी सवाल' में उनकी बहू बनी। मैं उनसे कहा करती थी- हंगल साहब अब तो बस आपकी माँ का रोल करना बच गया है, वो भी हो जायेगा...।" लंबी साँस खींच कर बोलती हैं- "…वो ख़्वाहिश पूरी न हो सकी। हंगल साहब हम लोगों को छोड़कर चले गए। उनके साथ हम 'इप्टा' वालों की बॉन्डिंग थी। वह न हमसे उम्र का फ़र्क़ मानते थे न जेंडर का।”
‘शौक़ीन’
फ़िल्म ‘शौक़ीन’ में उनकी भूमिका अलग तरह की थी। बासु चटर्जी की यह फ़िल्म तीन दिल फेंक बुड्ढों की आशिक़ मिजाज़ी की कहानी कहती है। फ़िल्म में उनके साथ बाक़ी दो बुड्ढे -अशोक कुमार और उत्पल दत्त थे। यह फ़िल्म इन तीन महान अभिनेताओं की जुगलबंदी के अनूठे तमाशे के लिए भी हमेशा याद की जाती रहेगी। इसके लेखक हिंदी के मशहूर कथाकार शानी थे। फ़िल्म मैंने भी देख रखी थी। शानी जी मेरे पड़ोसी थे, उनके साथ मेरी नियमित बैठकी होती थी। नाक-भौं सिकोड़ते हुए मैंने इसे 'परवर्टेड' बुड्ढों की कहानी डिक्लियर कर दिया। शानी जी उखड़ गए- "यार तुम युवाओं की दिक़्क़त यह है कि लड़की पटाने का लाइसेंस तुम लोग सिर्फ़ अपने पास रखना चाहते हो। भाई यह तो एक मनोवृत्ति है। यह जवान की भी हो सकती है और बुढ्ढे की भी। बुड्ढे की है तो सोसायटी चलन में यह एब्सर्ड है। अरे एब्सर्ड बुड्ढे नहीं, चलन एब्सर्ड है। मैंने इसी चलन के ख़िलाफ़ कहानी लिखी है।”
हंगल साहब किसी प्रोग्राम में मुंबई से बाहर थे। होटल से प्रोग्राम के वेन्यू तक इन्हें होटल की रिसेप्शनिस्ट को लेकर जाना था। लड़की ने जब इनकी शक्ल देखी तो हड़बड़ा गयी। उसने 'शौक़ीन' देख रखी थी। उसने अपने बॉस से “ऐसे 'लफंगे'’ के साथ जाने से साफ़ इंकार कर दिया।
हंगल साहब को मालूम हुआ तो वह लड़की के पास चल कर गए और बोले "देखिये मैडम, आपको न जाना हो तो मत जाइए, पर ख़ुदा के लिये मुझे लफंगा मत मानिये। मैं बेशक़ किसी फ़िल्म में लफंगा हो सकता हूँ, निजी ज़िंदगी में निहायत शरीफ आदमी हूँ मैं।”
"लेकिन निजी ज़िंदगी में, टाइम पास के लिए अक्सर वह शैतानिया करते रहते थे। आख़िर तक वह ख़ुद को बूढ़ा मानने को तैयार नहीं थे…।” 'इप्टा' लखनऊ की सीनियर पदाधिकारी वेदा राकेश मुस्कराते हुए उन्हें याद करती हैं “...उन्होंने कभी अपने को रिटायर्ड नहीं माना। वो कभी भी जवान छोकरों की तरह मस्ती और शैतानी कर सकते थे। एक बार वह लखनऊ में थे। दूर कुछ महिलाएँ खड़ी थीं, वह उन्हें देखे ही जा रहे थे। मैंने टोका- हंगल साहब, यह क्या शैतानी हो रही है मुस्करा कर बोले- भाई मैं कलाकार हूँ। डेढ़ हज़ार किलोमीटर दूर बॉम्बे से आकर मैं ही लखनऊ की ख़ूबसूरती को नहीं निहारूँगा तो भला लखनऊ वालियाँ मेरे बारे में क्या सोचेंगी- कहकर वह ज़ोर से हँसे थे। वैसे वो सभी महिलाओं को बड़ी इज़्ज़त देते थे। हम इप्टावालियाँ तो जैसे उनके अपने परिवार की लड़कियों की तरह थे।"
एके हंगल वास्तव में जवान और मस्तजीवी थे। वह सचमुच 'शैतान' थे। उनके हँसी-ठठ्ठे, उनकी क़िस्सागोइयाँ और यारबासी के दम पर 3 दिन हमारे कब और कैसे बीत गए, हम नहीं जानते। फ़िल्म और रंगमंच के अभिनेता और अभिनेत्रियों के साथ की उनके द्वारा कही गई क़िस्सागोइयाँ लिखने के लिए संस्मरण के अलग से पन्ने भरने पड़ेंगे। हमारी डबल कैम यूनिट थी और 8 लोग क्र्यू में थे। हम या तो युवा थे या अधेड़। हंगल साहब इन 3 दिनों में सभी के दोस्त बन चुके थे। मैं इन तीन दिनों में शुक्लाजी से अनिल हो गया था। दोनों कैमरामैन और साउंड रेकॉर्डिस्ट को तो वह नाम से पुकारते ही थे, ज़्यादातर सहायकों के नाम भी उन्हें कंठस्थ हो गए थे। इन तीन दिनों में वह बूढ़ा सब का 'यार' बन चुका था। आप सब, मुझे पढ़ने वाले, सिर्फ़ एके हंगल को जानते थे। इस अवतार किशन हंगल को जानते थे आप
मुझे याद है, हमारे सहायक और स्पॉट बॉय सालों-साल मुझसे उनका हाल-चाल पूछते रहते। ऐसा इससे पहले या इसके बाद, कभी नहीं हुआ।