हिंदी बल्कि कहना चाहिए कि हिंदुस्तानी उपन्यास के विकास क्रम में 'काला जल' की दस्तावेज़ी अहमियत पहले संस्करण (प्रकाशन काल: 1965) से ही स्थापित हो गई थी।
यह शानी की वह महान रचना है जिसने उन्हें युवावस्था में ही महानता के निकट कर दिया था। प्रेमचंद-यशपाल का युग था और तब उपन्यास 'काला जल' और इसके रचयिता 'शानी' का होना एक ऐतिहासिक घटना हो गई थी। इस उपन्यास की जगह आज भी हिंदी के 10 सर्वश्रेष्ठ कालजयी उपन्यासों में पूरी तरह महफूज है।
अब तक इसके बेशुमार रिकॉर्ड संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं और इस लिहाज से यह सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली साहित्यिक किताबों की पहली कतार में है।
निम्न-मध्यवर्गीय मुसलिम मन की पड़ताल
दुनिया भर में फ़िक्शन में ढेरों साहित्यकारों ने मुसलिम मन की पड़ताल करने की कोशिश की है। लेकिन शानी ने 'काला जल' के जरिए मुसलिम निम्न-मध्यवर्गीय समाज का जो अद्वितीय और अत्यंत प्रामाणिक खाका भाषाई सौंदर्यशास्त्र के समस्त शिखरों को छूकर खींचा है, वह विश्व साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है।
'काला जल' उपन्यास नहीं एक महान दस्तावेज़ है। किसी महान लेखक का और क्या हासिल हो सकता है कि महज एक कृति उसे किवदंती बना दे और सायास होकर भी वह उस सरीखी दूसरी रचना संभव न कर पाए। कोई दूसरा रचनाकार भी न कर पाए!
इसीलिए कहा जाता है कि 'काला जल' शानी का कीर्ति स्तंभ भी है और समाधि-लेख भी। इसे उन्होंने 1959 के आसपास लिखना शुरू किया था और 1961 तक अंजाम दे दिया। इस अवधि तक शानी बाकी सब भूलकर 'काला जल' को सुपुर्द-ए-कलम करते रहे। प्रख्यात समालोचक डॉ धनंजय वर्मा इसकी रचना-प्रक्रिया के चश्मदीद गवाह हैं।
यह उपन्यास उन्हीं को समर्पित है। बकौल डॉ धनंजय वर्मा इस उपन्यास को लिखते वक्त शानी की कैफियत यह थी: "... जब भी देखो... शानी एक तनाव में, व्यग्रता में, एक हौलदिली और हाय-हाय में ... जैसे सर पर पहाड़ आ गिरा हो।... सुबह पहुंचा हूं तो उपन्यास के अध्याय सुन रहा हूं, दोपहर मिले हैं तो पात्रों की स्थितियों पर बहस हो रही है, रात पहुंचा हूं तो कोई अनुच्छेद शानी की परेशानी का बायस बना हुआ है... कलम रख, चश्मा उतार, एक हथेली पर चेहरा टिकाए सोच रहा है या लिखे हुए को दो-दो तीन-तीन बार जोर जोर से पढ़कर तोला जा रहा है...।"
छपने का इंतजार
जिस उपन्यास 'काला जल' को आगे जाकर एक महान ऐतिहासिक मुकाम हासिल करना था-उसकी रचना प्रक्रिया की कई दिलचस्प कहानियाँ हैं, तो उसके प्रकाशन के किस्से भी कम ग़ौरतलब नहीं। इसकी हस्तलिखित पांडुलिपि 372 पेज की थी। बदनसीबी इस उपन्यास के पात्रों की ही नियति नहीं थी, बल्कि इसके प्रकाशन की भी थी। पूरे चार साल 'काला जल' की पांडुलिपि छपने के लिए कभी इधर-कभी उधर भटकती फिरती रही। राजकमल प्रकाशन के पास दो वर्ष बंधक रहने के बाद अंततः 1965 में (राजेंद्र यादव के) अक्षर प्रकाशन से इसका संस्करण आया। आलोचकों और पाठकों के बीच यह एक बड़ी बेचैन साहित्यिक घटना बन गया।
मुसलिम मन की गहरी परतों को इससे पहले किसी कलम ने इस मानिंद नहीं खोला था। कहीं भी किसी भी भाषा में। व्यापक हिंदी समाज में खलबली-सी मची कि नॉवेल की रेंज इतनी दूर भी जा सकती है!
कई भाषाओ में अनुवाद
कई भाषाओं में 'काला जल' के अनुवाद हुए और विश्व स्तर पर चर्चा। रूसी व लिथवानी में भी अनुवाद हुए। रूसी शब्द-संसार में बहुत कम दूसरी भाषाओं के लेखन का खुला स्वागत किया जाता है, लेकिन जिनका किया गया उनमें 'काला जल' आज भी अव्वल दर्जा रखता है। रूस की यात्रा से लौटकर भीष्म साहनी और पंजाबी उपन्यासकार गुरदयाल सिंह ने भी इसकी पुष्टि की। 12 जुलाई, 1970 के क्रॉनिकल (अंग्रेजी अखबार) में इसके रूसी अनुवाद की खबर छपी। रूसी-हिंदी के विद्वान डब्लू. ए. चर्नीशोव ने इसका अनुवाद किया है और अनुवाद में 'काला जल' शीर्षक ही रखा गया है।
अंग्रेजी में इसके कई अनुवाद हुए लेकिन सबसे बेहतर अनुवाद (1986 में) जयरतन का 'डार्क वाटर्स'माना जाता है। हैदर जाफरी सैयद ने इसका उर्दू अनुवाद किया तो मंदुर सुकुमारन ने मलयालम में किया। अन्य कई भाषाओं में 'काला जल' अनुदित हुआ और अब तक अनुवादों के संस्करण भी निरंतर आ रहे हैं। मतलब शानी और इस उपन्यास की व्यापकता का आकाश अनंत है।
वस्तुतः 'काला जल' एक बंधे-ठहरे जीवन की अनेक त्रासदियों से भरी महागाथा है। इस उपन्यास में दरपेश हाशिए के मुसलिम समाज के अहम सवालों के जवाब अभी भी नदारद हैं। अदब से भी और सियासत से भी।
क्या कहा था शानी ने
खुद शानी ने 'काला जल' की रचना- भूमि की बाबत लिखा है: ‘भारत की अल्पसंख्यक जाति मुसलिम अपने आप में मुझे समस्या लगती है, अतः उसके बारे में सचेतन रूप से या वैसे भी लिखना मेरी विवशता है। मेरा बड़ा उपन्यास 'काला जल' इसी दिशा में एक प्रयास है-एक विशाल कैनवस पर लिखित, दरअसल, यह उपन्यास 'अतीत-वर्तमान-भविष्य- संबंध का एक बड़ा नाटक है जिसका रंगमंच मध्यमवर्गीय मुसलिम परिवार है।’समकालीन भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलिम समाज की दशा-दिशा देखें तो लोग काले उस जल में अभी भी ठहरे हुए दिखेंगे। अपनी नियति के ख़िलाफ़ जूझते-संघर्ष करते हुए।
राही मासूम रज़ा, असगर वजाहत, आलमशाह ख़ान, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतेशाम और नासिरा शर्मा की (हिंदी) कृतियों में मुसलिम अंतरधाराओं की साहित्यिक विवेचना मिलती है। लेकिन 'काला जल' मुसलिम संस्कृति के जिन अनछुए पहलुओं के बीच जाता है-वैसा काम अन्यत्र नहीं हुआ।
यशपाल की तारीफ़
'काला जल' के प्रशंसकों में महान लेखक यशपाल भी शुमार थे और इसे पढ़कर उन्होंने 14 सितंबर, 1966 में शानी को अंतर्देशीय पत्र लिखकर इसकी खुली तारीफ की थी। यशपाल ने यहां तक लिखा कि: ‘काला जल के लिए आपके सामने सादर सिर झुकाता हूं...!’ बुजुर्ग वार यशपाल की इन पंक्तियों को पढ़ते वक्त शानी की उम्र बमुश्किल 30 साल के आसपास होगी।शानी का सफ़रनामा!
16 मई 1933 को जगदलपुर में जन्म लेने वाले शानी का मूल नाम गुलशेर ख़ान था। उन्होंने मध्य प्रदेश सूचना एवं प्रकाशन संचनालय में शुरुआती नौकरी की। 1972 में वह मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के सचिव नियुक्त हुए। 'साक्षात्कार' पत्रिका के संस्थापक- संपादक बने। 1978 में परिषद से सेवा मुक्त होने के बाद दिल्ली की राह ली। यहां कुछ समय नवभारत टाइम्स के ‘रवि वार्ता’ का संपादन किया।1980 में साहित्य अकादमी की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' के संस्थापक-संपादक बने। उन्हें बेहद निर्मम और निष्पक्ष संपादक माना जाता था। 'काला जल' के अतिरिक्त कई अन्य उपन्यास, कहानियां और रिपोर्ताज लिखे। वैचारिक लेखन भी किया। 10 फरवरी, 1995 में उनका जिस्मानी अंत गुर्दों की बीमारी के चलते हुआ।