शैलेश लोढ़ा अब रंगमंच पर, जानें कैसा रहा उनका अभिनय

07:41 pm Jan 20, 2025 | रवीन्द्र त्रिपाठी

शैलेश लोढ़ा हिंदी मनोरंजन जगत में एक जानेमाने नाम हैं। कुछ सीरियलों और हास्य कवि सम्मेलनों में भी वे लगातार आते रहते हैं। पर उनके बारे में ताजा ख़बर ये है कि उन्होंने हिंदी रंगमंच पर भी क़दम रख दिया है और पिछले रविवार को दिल्ली के श्री राम सेंटर में उन्होंने `डैड्स गर्लफ्रेंड’ नाम के नाटक में धांसू काम किया। कह सकते हैं कि मजमा लूट लिया। इस नाटक का निर्देशन अतुल सत्य कौशिक ने किया जो हिंदी रंगमंच में परिचित नाम है। अतुल वैसे तो दिल्ली के रहनेवाले हैं पर इन दिनों मुंबई चले गए हैं और वहां के व्यावसायिक हिंदी थिएटर में उनकी धाक जम गई है। उनके नाटकों  में ज़्यादातर वे चर्चित लोग होते हैं जो सेलिब्रिटी होने का दावा करते हैं। इसी क्रम में उन्होंने शैलेश लोढ़ा से भी अभिनय करवा लिया।

`डैड्स गर्लफ्रेंड’ (इसका हिंदी नाम `पिता की प्रेमिका’ होगा) एक कॉमेडी है और दर्शकों को दबाके हंसाता है। लेकिन इसमें एक संदेश भी है। पर उसकी बात बाद में करेंगे। पहले जान लीजिए कि इसमें होता क्या है। लोढ़ा ने इसमें अनिमेष ऐसे व्यक्ति का किरदार निभाया है जो बरसों से अमेरिका में रह रहा है और वहां कवि के रूप में मशहूर है। उसके वहाँ काफी प्रशंसक हैं। पत्नी नहीं है लेकिन दीया नाम की एक बेटी है जो अब बड़ी होकर आर्किटेक्ट बन चुनी है, मुंबई में रहती है और एक असफल रंगकर्मी- अभिनेता कनव से शादी कर चुकी है। एक दिन अमेरिका में रह रहे अनिमेष को लगता है कि बहुत हुआ अमेरिका में, अब भारत अपनी बेटी दिया से मिलने मुंबई जाया जाए। वो मुंबई आता भी है, बेटी के यहाँ ठहरता भी है। लेकिन इसी दौरान एक नवोदित लेखिका से अनिमेष की मुलाकात होती है और फिर दोनों प्रेम में पड़ जाते हैं। फिर बेटी और दामाद क्या करें? कैसे इस हालत के संभालें?

चार पात्रों के इस नाटक को अतुल ने लिखा भी है और हर पात्र को इस तरह ढाला है कि मामला कॉमिकल भी रहे और नाटक में तनाव भी बना रहे। लेखक के सामने ये चुनौती तो रही ही होगी कि दृश्य को ऐसे लिखा जाए कि दर्शक हर दृश्य में हंसता भी रहे और उसको ये उत्सुकता भी बनी रहे कि आगे क्या होगा और बेटी- दामाद क्या करेंगे? यानी इस अजीब की प्रेम कहानी का अंत क्या होगा? क्या अनिमेष अपनी युवा प्रेमिका के साथ अपनी जिंदगी की दूसरी पारी खेलेगा या लोकलाज जैसे दबाव के कारण ये साहस जुटा नहीं पाएगा? यहीं पर ये नाटक एक संदेश और एक समझ की तरफ़ जाता है। वो क्या है?

वो ये है कि आखिर तक पहुंचते-पहुंचते ये नाटक उस समस्या की ओर चला जाता है कि प्रौढ़ उम्र का वो पुरुष क्या करे जो विधुर हो चुका है। क्या वो अपना `बुढ़ापा’ स्वीकार कर ले और अपने बचे जीवन में किसी रोमांटिक संभावना को नकार दे? यहां हमें आज उन स्थितियों के बारे में भी सोचना चाहिए जो न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में पैदा हो रही है। 

कई बार लोग जीवन के दूसरे चरण में या तो विधुर हो जाते हैं या तलाकशुदा। कई स्त्रियां या तो विधवा हो जाती हैं या मध्य जीवन में पति से उनका अलगाव भी हो जाता है। बच्चे शादीशुदा होकर अपनी जिंदगी गुजारने लगते हैं। महानगरों में संयुक्त परिवार भी अब कम होते जा रहे हैं। अकेलापन भी बढ़ रहा है। इससे कैसे निपटें? 

पारंपरिक जीवन मूल्य कहते हैं कि प्रौढ़ हो जाने के बाद अगर जीवन संगिनी या जीवन संगी नहीं तो भजन कीर्तन में मन लगाओ, पोतो- पोतियों संग खेलो। लेकिन महानगरीय जीवन में पोते-पोतियाँ भी कम ही हो रही हैं क्योंकि परिवार पर आर्थिक दबाव बहुत रहता है। और पुरानी सामाजिक मान्यताएँ भी ऐसी हैं कि आप पचास के हो चुके या चुकी हैं तो आपको वैरागी जैसा जीवन बिताने के अलावा कोई चाह नहीं रखनी चाहिए। लेकिन मान्यता कुछ भी हो मनुष्य का मन मानता नहीं। चाहे औरत हो या पुरुष कई तरह की चाहतें अपने मन के भीतर संजोए रखते हैं। 2016 में अलंकृता श्रीवास्तव की एक फिल्म आई थी `लिपिस्टिक अंडर बुर्का’। ये फिल्म उन चार औरतों की कहानी है जो सामाजिक ढर्रे से अलग जाकर अपनी इच्छाएँ पूरा करना चाहती हैं। लेकिन सामाजिक दबाव उन पर है।

`डैड्स गर्लफ्रेंड’ भी कुछ उसी मसले से जुड़ी हैं। बस दो फर्क हैं। एक तो यहाँ कोई प्रौढ़ औरत नहीं बल्कि प्रौढ़ पुरुष है। दूसरे ये कि बात हल्के-फुल्के ढंग से कही गई है यानी कॉमेडी है। मगर हँसते-हँसते भी दर्शक तक अंत में बात पहुँच ही जाती है कि प्रौढ़ होने पर मनुष्य की चाहतें बरकरार रहती हैं और बेटे-बेटियों-दामादों को इस नज़रिए से भी सोचना चाहिए कि उनके अकेले पिता (या माता) क्या करें? क्या उनके जीवन में किसी तलाश या इच्छा अनुचित है?

शैलेश लोढ़ा का काम तो बांधनेवाला है ही। वे अपनी भी कुछ कविताएँ सुना डालते हैं। इसलिए उनकी पुरानी छवि भी बरकरार रहती है और नया अभिनेता वाला रूप भी सामने आता है। बाक़ी के कलाकार भी अपनी अपनी भूमिकाओं में काफी असरदार हैं।

अनिमेष की बेटी और दामाद के किरदार के रूप में अनुमेहा जैन और अमन वाजपेयी हैं और वे भी खूब हंसाते हैं। अनिमेष की प्रेमिका की भूमिका निभानेवाली मेघा माथुर भी प्रभावित करती हैं विशेषकर इस कारण कि जिस अवनी नाम के चरित्र को वे निभाती है उसमें गरिमा बचाए रखना एक चुनौती है। दर्शक को ये नहीं लगना चाहिए कि वो अपनी उम्र से काफी बड़े पुरुष को अपने जाल में फँसा रही है और ये भी नहीं दिखना चाहिए कि वो बिल्कुल भोली-भाली है। ये चरित्र कहीं बीच का है और वो उसे नाजुक संतुलन के साथ साधती हैं।

निर्देशक ने बीच बीच में कुछ गाने भी रखे हैं जो पार्श्व में बजते हैं और जजबात को गहराई देते हैं। नाटक में पारिवारिक रिश्ते, पीढ़ियों के बीच मतभेद, रंगमंच के कलाकारों का संघर्ष जैसे मुद्दे भी उभरते हैं। फिल्म और टीवी के कलाकार राकेश बेदी की आवाज का जो इस्तेमाल हुआ है वो खास तरह की हंसी पैदा करता है।