लगभग एक ही समय में तीन अलग-अलग घटनाओं ने भारतीय लोकतंत्र की ओर देश और दुनिया का ध्यान खींचा है। एक घटना है भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना का संयुक्त राज्य अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित सैन फ्रांसिस्को में एसोसिएशन ऑफ इंडो-अमेरिकन की ओर से आयोजित कार्यक्रम में बयान। दूसरी घटना है धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग (USCIRF) की ओर से भारत में धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर की गयी ताजा टिप्पणी और भारत की प्रतिक्रिया।
तीसरी घटना नॉम चोमस्की और महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी की ओर से उमर खालिद को तुरंत रिहा करने की मांग है।
तीनों घटनाएं भारत में धार्मिक व राजनीतिक असहिष्णुता, मानवाधिकार हनन की घटनाएं और भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लाचार होने को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती हैं। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना को लगता है कि देश में संविधान और लोकतंत्र की समझ विकसित नहीं हो सकी है। यही कारण है कि सत्ताधारी दल की अपेक्षा न्यायालय से सरकारी योजनाओं के समर्थन की होती है जबकि विपक्ष अपेक्षा करता है कि न्यायालय उनके मनोनुकूल तरीके से व्यवहार करे।
सीजेआई यह भी स्पष्ट करते हैं कि न्यायपालिका अकेले संविधान के प्रति जवाबदेह है किसी और के प्रति नहीं।
न्यायपालिका पर हमले का दर्द
मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना के बयान में वह पीड़ा साफ-साफ महसूस की जा सकती है जो नूपुर शर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद न्यायपालिका पर हमले के लिए चलाए जा रहे अभियान के तौर पर देखने को मिली है। नूपुर के खिलाफ टिप्पणी करने वाले जज जस्टिस जेबी पारदीवाला ने भी वीडियो जारी कर जजों पर की जा रही टिप्पणी को लेकर नाराज़गी का इजहार किया है। उन्होंने सोशल मीडिया के लिए कानून बनाने तक की वकालत कर दी है।
न्यायमूर्तियों को न्यायालय से बाहर क्यों बोलना पड़ रहा है? अगर बोलना पड़ रहा है तो इसकी चिंता करने के लिए विधायिका और कार्यपालिका क्यों नहीं सामने आ रही हैं?
राजनीतिक दलों और खासकर विपक्षी दलों की चुप्पी तो और भी चिंताजनक है। राजनीतिक महकमे में न्यायालय पर हमलों को लेकर चुप्पी का मतलब यह है कि अब तक किसी भी राजनीतिक दल के नेता ने ऐसा कोई सार्वजनिक बयान जारी नहीं किया है कि सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ कोई अभियान न चलाया जाए और सर्वोच्च अदालत का सम्मान किया जाए।
नेताओं की इस चुप्पी को राजनीतिक प्रतिबद्धता दिखाने की होड़ कर रहे कार्यकर्ताओं ने न्यायालय के खिलाफ अपने अनैतिक अभियानों की सफलता का सर्टिफिकेट समझ लिया है। ऐसे लोग न्यायालय पर हमला जारी रखे हुए हैं और कोर्ट से ही पूछ रहे हैं कि भारत से बाहर जाकर मुख्य न्यायाधीश को बोलने की क्या जरूरत आ पड़ी? क्यों उन्होंने ‘घर की इज्जत’ बाहर विदेश जाकर लुटाने का काम किया?
धार्मिक स्वतंत्रा के सवाल पर अमेरिका हमलावर
धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग (USCIRF) की ओर से भारत में धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर की गयी ताजा टिप्पणी और भारत की प्रतिक्रिया भी अलग किस्म की है। चूंकि यह आयोग लगातार भारत में धर्मनिरपेक्ष ढांचे को टूटता देख रहा है और समय-समय पर भारत सरकार को आगाह कर रहा है और भारत भी आरोपों का लगातार जवाब देता रहा है, इसलिए भारत भी इस मुद्दे पर मजबूत प्रतिक्रिया के साथ सामने आया है।
विदेश मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि USCIRF बारंबार लगातार भारत की विश्व में छवि खराब करने की कोशिश कर रहा है। मगर, सवाल यह है कि भारत आरोपों को सहजता से क्यों नहीं ले पा रहा है? क्या विरोध करने मात्र से वे मुद्दे खत्म हो जाएंगे जो देश और देश से बाहर उठाए जा रहे हैं?
हमें यह याद रखना होगा कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने खुलेआम टीवी चैनल पर पैगंबर मोहम्मद का अपमान किया था। प्रतिक्रियास्वरूप इस्लामिक जगत गुस्से में उबलने लगा और उसने भारत सरकार से नाराज़गी का इजहार भी किया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में इस्लामिक देशों ने इतनी मजबूती और एकजुटता के साथ कभी भारत का विरोध नहीं किया था। भारत सरकार ने मौके की नजाकत को समझा भी और नूपुर समेत पार्टी प्रवक्ताओं पर नकेल भी लगायी।
नूपुर को फ्रिंज एलिमेंट बोलना बीजेपी की रणनीति का हिस्सा है। वास्तव में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता और नेता नूपुर के साथ खड़े रहे हैं और जो कार्रवाई की गयी वह दिखावा बनकर रह गयी है।
उमर खालिद की रिहाई की मांग
बुद्धिजीवी नॉम चोमस्की और महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी ने उमर खालिद की अविलंब रिहाई की मांग दोहराई है। चोमस्की ने कहा है कि उमर खालिद को पिछले एक साल से जेल में बंद रखा गया है। उन्हें जमानत नहीं दी जा रही है। उन पर यूएपीए गलत तरीके से लगाया गया है। उनकी गलती संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करना भर है। किसी भी आजाद समाज के लिए ये नागरिकों का बुनियादी विशेषाधिकार है। राजमोहन गांधी भी पुरजोर वकालत कर रहे हैं कि उमर खालिद को रिहा किया जाए।
चोमस्की और राजमोहन गांधी का मानना है कि भारतीय धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने और हिन्दू जातीयता थोपने की कोशिशें की जा रही हैं। इन विद्वानों के इस नजरिए के साथ अगर अमेरिका की धरती से भारत को अस्थिर करने की कोशिश के तौर पर देखा जाए तो यह सत्ताधारी दल के लिए मुफीद लगता है।
वहीं, ऐसी कोशिशों के बीच जब अमेरिका की कोई मानवाधिकार संस्था भारतीय शासन और लोकतंत्र पर टिप्पणी करती है तो उस पर चर्चा होगी ही। हम उन्हें शांति और सद्भाव स्थापित करके ही चुनौती दे सकते हैं।
न्यायपालिका के खिलाफ अभियान क्यों?
कानून समझने वाले लोग इस बात की भी चिंता कर रहे हैं कि माफी मांग लेने और बीजेपी से निलंबित कर दिए जाने बावजूद नूपुर शर्मा की गिरफ्तारी क्यों नहीं हो रही है? इसके उलट न्यापालिका के खिलाफ हैशटैग चलाए जा रहे हैं। ऐसे लोग इतने आजाद और निर्भीक कैसे हैं? क्यों नहीं उन्हें न्यायपालिका या शासन का डर है?
मोहम्मद जुबैर को 2018 के ट्वीट के लिए, जो दशकों पहले बनी फिल्म का दृश्य़ था, जेल भेज दिया जाता है लेकिन नफरती जुबान बोल रही नूपुर शर्मा पर कोई कार्रवाई नहीं होती! सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद तीस्ता सीतलवाड़ गिरफ्तार कर ली जाती हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद ही नूपुर शर्मा आजाद घूम रही हैं तो क्यों?
महाराष्ट्र में सियासी संकट के बीच सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा था लेकिन इससे लोकतंत्र बचाने की कोशिश सफल हुई हो, ऐसा बहुत कम लोगों को लगता है। दल बदल विधेयक कानून को टूटते हुए सुप्रीम कोर्ट देखता रहा और उसने समय रहते ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जिससे अपने प्रदेश से बाहर कैदियों की तरह होटलों में बंद रहे विधायकों की कथित गुलामी को खत्म किया जा सके।
दलबदल कानून ने चौखट पर तोड़ा दम?
उद्धव सरकार से बगावत करने वाले विधायक उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने तक महाराष्ट्र से बाहर रहते हैं और एकनाथ-फडणवीस सरकार बनते ही ये विधायक वापस चले आते हैं। दो अलग-अलग व्हिप के बीच स्पीकर का चुनाव हो जाता है। वही चुनाव, जिसे राज्यपाल कराने की अनुमति देने को पिछले डेढ़ साल से तैयार नहीं थे। अब बीजेपी की सरकार बनती देख बीजेपी के पूर्व मुख्यमंत्री रहे भगत सिंह कोश्यारी अचानक जाग उठते हैं। वे स्पीकर का बहुप्रतीक्षित लंबित चुनाव करा देते हैं।
सत्ता का दुरुपयोग
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था और संवैधानिक ढांचे पर जो आंच आयी दिख रही है उसके पीछे निस्संदेह राजनीतिक दल बड़े जिम्मेदार हैं लेकिन सत्ता का दुरुपयोग इस घटना को और बड़ा बना देती है। न्यायपालिका अपने दायरे में बेहतर काम करे- इसकी चिंता समाज को करनी होगी। इसी तरह लोकतंत्र के बाकी स्तंभों को भी स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाना चाहिए।
न्यायालय सरकार चलाने की कोशिश करे या सरकार न्यायालय को अपने मन के मुताबिक चलाना चाहे या फिर मीडिया अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर सरकार या न्यायालय या फिर दोनों को प्रभावित करे या फिर खुद किसी और से प्रभावित हो जाए, तो यह लोकतंत्र की सेहत के लिए कतई सही नहीं है।
न्यायालय से असहमति हो सकती है लेकिन न्यायालय की नाफरमानी या उसके खिलाफ मुहिम कतई लोकतंत्र को मजबूत नहीं कर सकती।