नागरिकता संशोधन विधेयक (कैब)-विरोधी छात्र-युवा आंदोलन से शुरू हुआ यह अभियान अब हर दृष्टि से एक राष्ट्रीय आंदोलन बन गया है। इस राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत अबकी बार असम से हुई है और फिर यह दिल्ली होते हुए पूरे देश में फैलता नज़र आ रहा है। दक्षिण से लेकर उत्तर और पूरब से पश्चिम तक, देश का कोई प्रमुख प्रांत या इलाक़ा नहीं, जहाँ इस आंदोलन की लहरें न उठी हों! शुरू में सत्ताधारी दल, उसके नेताओं-समर्थकों और मुख्यधारा मीडिया के बड़े हिस्से ने, जिसे इन दिनों देश में ‘गोदी मीडिया’ के नाम से जाना जाता है, इस राष्ट्रीय जन-अभियान को सिर्फ़ एक ‘समुदाय (मुसलिम)-केंद्रित’ बताने और बनाने की कोशिश की लेकिन इस आंदोलन का सच इतना ताक़तवर था कि वह सत्ता और ‘गोदी मीडिया’ के झूठ से नहीं बदला जा सका। बीते कुछ सप्ताहों में इस जन-आंदोलन में गिरफ़्तार किये गए लोगों की सूची देखने से भी साफ़ हो जाता है कि यह किसी एक जाति, बिरादरी या समुदाय का आंदोलन न होकर समूचे देश और समाज का आंदोलन बन चुका है।
इस दरम्यान आंदोलन की अगुवाई करते हुए गिरफ़्तार किए गए लोगों में मशहूर युवा किसान नेता और आरटीआई कार्यकर्ता अखिल गोगोई पर तमाम तरह की ख़तरनाक धाराएँ लगाई गई हैं। उन्हें 12 दिसम्बर को असम के जोरहाट में नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने के कारण गिरफ़्तार किया गया। गिरफ़्तारी के बाद एनआईए ने उन पर ‘राजद्रोह’ की धारा भी लगा दी है। गोगोई किसी पार्टी से सम्बद्ध नहीं हैं। कांग्रेस के शासन में भी वह अपने संगठन- ‘कृषक मुक्ति संग्राम समिति’ के बैनर तले किसानों के लिए लड़ते रहे हैं और आंदोलन के क्रम में जेल जा चुके हैं। दिल्ली में भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर रावण और लखनऊ में सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी एस आर दारापुरी जैसे मानवाधिकारवादी और दलित-अधिकार कार्यकर्ताओं के अलावा देश भर में सैकड़ों युवा गिरफ़्तार किए गए हैं, जिनकी धार्मिक या सामाजिक पृष्ठभूमि बिल्कुल अलग-अलग है। बीते कई दशकों में अपने तरह का यह अनोखा जन-आंदोलन है, जो अपने स्वरूप और एजेंडे की व्यापकता की वजह से राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले चुका है।
ब्रिटिश हुक़ूमत के नक्शेकदम पर बीजेपी की सत्ता
इस आंदोलन को बदनाम और विवादास्पद बनाने के लिए केंद्रीय सत्ता और बीजेपी-शासित प्रदेशों की सरकारें ठीक उसी तरह का दुष्प्रचार अभियान चला रही हैं, जैसा ब्रिटिश हुक़ूमत आज़ादी के लड़ाई के दौरान स्वाधीनता सेनानियों के ख़िलाफ़ चलाती थी। हुक़ूमत हमारे स्वाधीनता सेनानियों के शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचलने के लिए तब के नेताओं पर राजद्रोह सहित तमाम तरह के आपराधिक-मामले थोपा करती थी। आज की हमारी सरकार ठीक वैसा ही कर रही है। इस आंदोलन में अब तक दो दर्जन से अधिक लोगों की जानें गई हैं। सबसे अधिक लोग बीजेपी-शासित उत्तर प्रदेश में मारे गए हैं। इनकी संख्या 21 बताई गई है। संभव है, इन पंक्तियों के छापे जाने तक संख्या और बढ़ जाए क्योंकि गोलियों से बुरी तरह घायल लोगों की अस्पतालों में मौत हो रही है। शासन की तरफ़ से उन्हें सही इलाज तक नहीं मुहैया कराया जा रहा है।
जिस तरह एनपीआर-एनआरसी पर हमारे निर्वाचित सत्ताधारी नेताओं के झूठ का पर्दाफ़ाश हो चुका है, ठीक उसी तरह पुलिस के उच्चाधिकारियों का झूठ भी तार-तार हो चुका है। ये अधिकारी कुछ दिन पहले तक डंके की चोट पर कह रहे थे कि यूपी पुलिस ने कहीं भी प्रदर्शनकारियों पर गोली नहीं चलाई।
पुलिस कह रही है कि जो लोग गोली से मरे हैं, वे पुलिस की गोलियाँ नहीं थीं। फिर किसकी गोलियों से ये लोग मरे हैं? क्या प्रदर्शनकारी अपने ही लोगों को मारेंगे?
हाल में कानपुर की एक सड़क पर पुलिस वालों की लोगों पर निशाना साधकर अंधाधुंध गोलियाँ चलाती तसवीरें वीडियो कैमरे में क़ैद हो गईं। तब इनमें कुछेक वीडियो ‘गोदी मीडिया’ को भी प्रसारित करने पड़े! इससे पुलिस का झूठ सामने आ गया।
दूसरी महत्वपूर्ण बात कि मारे जा रहे लोगों के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट उनके परिजनों की पहुँच में नहीं आने दी जा रही है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गोलियों की पहचान (कि वे किस तरह के आग्नेयास्त्र से चलाई गईं!) हो जाएगी इसलिए यूपी पुलिस के उच्चाधिकारी और समूचा सरकारी तंत्र पोस्टमार्टम रिपोर्ट तक में घपला करा रहे हैं। कैसी विडम्बना है, ऐसा शासकीय-कुकर्म ब्रिटिश हुक़ूमत भी भारतवासियों के साथ नहीं करती थी, जो आज स्वतंत्र भारत में मोदी-योगी सरकार करा रही है!
अपनी ही जनता के ख़िलाफ़ जंग
दरअसल, भारत के मौजूदा शासकों ने अपनी ही जनता, ख़ासकर ग़रीबों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया है। इसके पीछे दो बड़े कारण मुझे नज़र आते हैं: एक तो आरएसएस के एजेंडे को पूरा करने की जल्दबाज़ी, शायद हमारे शासक अपने मातृ-संगठन के गठन की शताब्दी पूरा होने के मौक़े पर सन् 2025 तक भारत को पूरी तरह एक ‘मनुवादी हिन्दुत्व-आटोक्रेसी’ या मनुवादी हिन्दुत्व निरंकुशतंत्र में बदलना चाहते हों! दूसरे शब्दों में इसे ‘कारपोरेट-हिन्दुव एरिस्टोक्रेसी’ भी कहा जा सकता है! वे ऐसा निरंकुश तंत्र चाहते हैं, जिसमें लोग सन् 1950 में लागू हुए भारतीय संविधान के बजाय इनके बनाये नये क़ानूनों के तहत रहने को अभिशप्त हों। और दूसरा कारण हो सकता है कि पाँच-छह साल से ये देश की सत्ता पर काबिज हैं। तरह-तरह के वादों और नारों से इन्होंने जनता को लुभाया था। पर कोई नारा-वादा पूरा नहीं किया। सिर्फ़ अपने संघी एजेंडे को लागू करते रहे।
भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और काला धन से निजात दिलाने के नाम पर इन्होंने बीच में नोटबंदी की। उसने देश की अर्थव्यवस्था की कमर ही तोड़ दी। तब से जीडीपी बैठी हुई है, औद्योगिक विकास की दर गिरी हुई है। बेरोज़गारी भयावह स्पीड में बढ़ी है। महँगाई, बेरोज़गारी और बेहाली का इनके पास कोई समाधान नहीं है। तब ये करें तो क्या करें? दुनिया के कई मशहूर राजनीतिक-विचारकों ने बताया है- देशों के इतिहास में ऐसी विषम स्थितियाँ जब भी पैदा हुई हैं, उनके कुटिल और क्रूर शासक दो ही काम करते हैं- पड़ोस के किसी कमज़ोर देश से युद्ध करते हैं या फिर अपनी ही जनता के बीच खुराफात, आतंक या तनाव के ज़रिये- एक तरह का ‘युद्ध’ शुरू करते हैं। इस बार हमारे शासकों ने दूसरा वाला विकल्प चुना है- अपनी ही जनता के ख़िलाफ़ ‘युद्ध’!
हमारे प्रधानमंत्री जिस दिन रामलीला मैदान में एनआरसी पर सफेद झूठ बोल रहे थे, उसके 48 घंटे के अंदर उनकी सरकार ने ‘एनआरसी के पहले स्टेप’ यानी राष्ट्रीय जनसंख्या का रजिस्टर (एनपीआर) के लिए बजटीय प्रावधान की घोषणा कर दी। यह देश भर के आम निवासियों की सूची होती है। यह सन् 2010 में भी तैयार हुई थी। लेकिन उस वक़्त इसके साथ एनआरसी को नहीं जोड़ा गया था। बीजेपी की अगुवाई वाली अटल-आडवाणी सरकार के दौरान सन् 2003 में सन् 1955 के नागरिकता संबंधी पुराने क़ानून में धारा 14-ए जोड़कर एनपीआर-एनआरसी के लिए रास्ता बनाया गया था। यूपीए सरकार ने जो एनपीआर बनवाया, उसके बाद एनआरसी की तरफ़ क़दम नहीं बढ़ाया था। सन् 2004 में तैयार नियमावली के मुताबिक़ हर बार ‘हेडकाउंट’ की प्रक्रिया के बाद एनआरसी अनिवार्य नहीं है।
हमारे नये शासकों ने तो बार-बार आधिकारिक एलान कर रखा है कि पहले नागरिकता क़ानून आएगा फिर एनआरसी आएगी, पूरे देश के लिए। हमारे गृह मंत्री जी कई बार इसकी पूरी ‘क्रोनोलॉजी’ देश को समझा जा चुके हैं।
सत्ता का झूठ- क़ानून का सच
पर लोगों को अब भी बेवकूफ बनाने की इनकी कोशिशें जारी हैं। आंदोलन को कुचलने और लोगों की एकता में दरार पैदा करने के लिए बता रहे हैं कि एनपीआर में किसी से कोई दस्तावेज़ नहीं माँगा जायेगा! लेकिन यह बात छुपा रहे हैं कि एनपीआर ही आगे होने वाली एनआरसी के लिए डेटाबेस मुहैया कराएगा! और एनआरसी में उन तमाम डेटा के दस्तावेज़ माँगे जाएँगे। सिर्फ़ एक उदाहरण देखिए!
इस बार का एनपीआर पहले से किन मामलों में अलग है और क्यों अलग है? पहली बार एनपीआर में कुछ नये कॉलम शामिल किए गए हैं— इसमें एक कॉलम है कि हर व्यक्ति बताए कि उसके माँ-पिता किस तारीख़ को किस जगह पैदा हुए थे! कल्पना कीजिए, आपके माँ-पिता जीवित हैं और पढ़े-लिखे नौकरीपेशा हैं तो आपको कोई परेशानी नहीं, उनके पास सबकुछ होगा। पर अगर संयोगवश आप बहुत संपन्न या कई पीढ़ियों से पढ़े-लिखे परिवार में नहीं पैदा हुए हैं और आपके माँ-पिता भी अब जीवित नहीं हैं तो आप कहाँ से लाएँगे अपने माँ-पिता की बर्थ-सर्टिफ़िकेट और बर्थ-प्लेस का सबूत? अगर आप दिल्ली में रहते हैं और माँ-पिता बिहार के दरंभगा या यूपी के देवरिया के थे तो दौड़ते रहिये दरभंगा और देवरिया! रिश्वत और ‘कनेक्शन’ (या बीजेपी-संघ नेताओं का आशीर्वाद!) का करते रहिये जुगाड़! भूल जाइये, अपने बच्चों की बढ़ी हुई फ़ीस, प्याज-पेट्रोल के दाम, दवाई की महँगाई और यात्राओं के बेतहाशा बढ़े किराए! इसके अलावा आधार, पैन, वोटर आईडी और पासपोर्ट नंबर जैसी सूचनाएँ भी देनी होंगी।
सरकार ने इस बीच सफ़ाई दी है कि किसी अशिक्षित या अनपढ़ ग़रीब आदमी के पास अपने बर्थ का सबूत नहीं है तो वह अपने मोहल्ले के दो बुजुर्गों के ज़रिये अपने जन्म स्थान और जन्म तिथि का सबूत पेश कर सकता है। पर कोई व्यक्ति अगर पचहत्तर या अस्सी साल का है और उसके मोहल्ले में उसके ऊपर की उम्र का कोई ज़िंदा न हो तो क्या करेगा? ऐसा करके सरकार क्या लाखों-करोड़ अशिक्षित लोगों को झूठी तिथि लिखवाने के लिए मजबूर नहीं कर रही है, ठीक वैसे ही जैसे आजकल कई बड़े नेता अपनी पढ़ाई और डिग्री का झूठा सर्टिफ़िकेट दे देते हैं! आप ही सोचिए, गाँवों-कस्बों में ग़रीब और अशिक्षित अधेड़ों या बुजुर्गों में कितनों को मालूम होगी, उनकी पैदाइश की तारीख़।
एनआरसी क्यों हिन्दू-मुसलमान, सबके ख़िलाफ़ है!
असम एनआरसी में जो 19 लाख लोग अपने भारतीय नागरिक होने का सरकार द्वारा माँगा गया सबूत नहीं पेश कर सके, उनमें ग़ैर-मुसलिमों, ख़ासकर हिन्दुओं को नये नागरिकता क़ानून से थोड़ा-बहुत फ़ायदा देने की कोशिश हो सकती है। दरअसल, असम एनआरसी से पैदा हालात से निपटने और अपने चुनावी फ़ायदे के लिए ही बीजेपी सरकार ने नागरिकता क़ानून में संशोधन किया। बंगाल के चुनाव से पहले उक़्त क़ानून से उसे अपने सियासी-फ़ायदे की उम्मीद रही होगी। लेकिन कानपुर, कोयंबटूर, कोच्चि, बंगलुरू, बलिया, लखनऊ, भुवनेश्वर या भोपाल में यह फ़ायदा वह किसी कथित बहुसंख्यक को कैसे दिला सकती है? इन जगहों के किसी हिन्दू धर्मावलंबी परिवार में पैदा हुए ग़रीब आदमी को, जिसके पास सारे कागजात नहीं होंगे, क्या बांग्लादेश, पाकिस्तान या अफ़ग़ानिस्तान से आया शरणार्थी बनाकर नागरिकता दी जा सकती है? क्या ऐसा संभव है? यह पूरा विचार न केवल मूर्खतापूर्ण अपितु हास्यास्पद भी है।
जन-अभियान को बेपटरी करने की साज़िश
इन तथ्यों से यह बात स्वतःसिद्ध है कि सरकार के इस काले क़ानून और क्रूर क़दमों के ख़िलाफ़ जो लोग आज आवाज़ उठा रहे हैं, वे किसी एक समुदाय, जाति या बिरादरी की आवाज़ नहीं है, वह पूरे राष्ट्र और हर आम भारतीय नागरिक की आवाज़ है! इसीलिए यह जन-अभियान सही अर्थों में एक राष्ट्रीय आंदोलन है। इसका शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक और अहिंसक बने रहना देश, समाज और हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। पर सत्ता से जुड़े कुछ शातिर सियासी-खिलाड़ी और अन्य निहित स्वार्थी तत्व आंदोलन को कमज़ोर करने या बदनाम करने के लिए इसे अशांत और हिंसक बनाने की साज़िश कर सकते हैं। इसका उदाहरण पिछले दिनों लखनऊ में दिखा भी। ऐसे में शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक ढंग से अपना अभियान चलाने वाले आंदोलनकारियों या सत्याग्रहियों को इस तरह की साज़िशों से सतर्क रहने की ज़रूरत है।