अगस्त के पहले और दूसरे सप्ताह में कश्मीर पर अपने विवादास्पद क़दम को जायज ठहराने के लिए सत्ताधारी दल के शीर्ष नेताओं ने आज़ादी की लड़ाई से जुड़े देश के तमाम बड़े नेताओं - सरदार पटेल, डॉ. अम्बेडकर और डॉ. लोहिया आदि का जिक्र किया कि कैसे सरकार ने इन महापुरुषों के सपनों को पूरा किया है! लेकिन महात्मा गाँधी का नाम लेने से परहेज किया। बात समझ में नहीं आई। मौजूदा सत्ताधारी अक्सर गाँधी जी का भी नाम लेते रहते हैं। फिर इस बार कश्मीर के संदर्भ में गाँधी क्यों नहीं उद्धृत हुए
इसके दो कारण हो सकते हैं - एक तो यह कि अनु 370 के भारतीय संविधान में शामिल किए जाने से काफ़ी पहले महात्मा गाँधी एक मनुवादी-हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी के हाथों मारे जा चुके थे। दूसरा कारण यह हो सकता है कि हमारे इन प्रमुख नेताओं के भाषण-लेखकों को शायद जानकारी भी न रही हो कि कश्मीर पर महात्मा गाँधी के बहुत स्पष्ट विचार थे और ये विचार आज की तारीख़ में सत्ताधारियों की सोच के ठीक उलट हैं। उनके लिए मुश्किलें पैदा करते हैं! अगर उन्हें जानकारी थी तो निस्संदेह ये भाषण-लेखक समझदार हैं और उन्होंने जानबूझकर महात्मा का नाम न लेने का शीर्ष सत्ताधारी नेताओं को सुझाव दिया होगा।
गाँधी का कश्मीर दौरा
कश्मीर मामले में गाँधी जी के विचार और उनकी पहली व आख़िरी कश्मीर यात्रा के बारे में सबसे पहले मुझे उस वक़्त जानकारी मिली, जब मैं 1997 में हिंदी अखबार ‘हिन्दुस्तान’ के पत्रकार के रूप में कश्मीर ‘कवर’ करने श्रीनगर गया हुआ था। वह ‘मिलिटेंसी’ का भयावह दौर था। रिपोर्टिंग के अलावा मैं वहाँ के आधुनिक इतिहास को समझने के लिए किताबें भी खरीदता जाता था। किसी कश्मीरी पत्रकार-मित्र ने सुझाया कि शेख मोहम्मद अब्दुल्ला साहब की आत्मकथा भी ख़रीद लीजिए। पर वह किसी दुकान पर अंग्रेजी या हिन्दी में उपलब्ध नहीं थी। एक दिन अचानक ही श्रीनगर स्थित कश्मीर विश्वविद्यालय कैंपस के पास के एक पुस्तक विक्रेता के यहाँ शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की आत्मकथा-‘आतिश-ए-चिनार’ मिल गई। छुपाकर रखी थी, वह किताब। मैंने उस विक्रेता से पूछा - ‘इसे क्यों छुपा रखा है, वह भी सिर्फ़ एक प्रति है’ उसने जो जवाब दिया, वह मुझे हैरत में डालने वाला था।
पुस्तक विक्रेता ने कहा कि शेख साहब की तस्वीर या किताब रखने पर इन दिनों ‘मिलिटेंट्स’ ने पाबंदी सी लगा रखी है। वे कहते हैं - ‘शेख अब्दुल्ला भारत का दलाल था और कश्मीर का ट्रेटर, इसलिए उसकी तस्वीर या उस पर किताब कुछ भी नहीं रखो।’
बहरहाल, उस दौरान शेख अब्दुल्ला सहित अन्य राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों और लेखकों के मूल लेखन से पहली बार मुझे महात्मा गाँधी की पहली और आख़िरी कश्मीर यात्रा की जानकारी मिली। कश्मीर के आधुनिक इतिहास से सम्बन्धित अपनी पुस्तक ‘कश्मीर विरासत और सियासत’(प्रकाशन वर्ष-2006) में मैंने उसी आधार पर गाँधी जी के कश्मीर-विषयक विचारों की चर्चा की है। गाँधी जी अपनी इस यात्रा को लेकर स्वयं भी काफ़ी उत्साहित थे। उन्होंने 30 जुलाई, 1947 को अपने एक मित्र-शुभचिंतक को लिखे पत्र में कहा, ‘मैं कश्मीर दौरे पर जा रहा हूँ। पहली बार, कौन जाने यह आख़िरी कश्मीर दौरा भी साबित हो!’ कैसी विडम्बना है, सचमुच वह दौरा गाँधी जी का पहला और आख़िरी कश्मीर दौरा साबित हुआ। पर वह दौरा इतिहास रच गया।
यहाँ यह बताना भी मौजू होगा कि मोहम्मद अली जिन्ना ने भी कश्मीर का एक ही दौरा किया और यह बुरी तरह विफल साबित हुआ। घाटी के मुसलमानों ने जिन्ना को जमींदारों-रियासतदारों का समर्थक बताकर उन पर टमाटर और अंडे तक फेंके थे। लेकिन गाँधी जी का घाटी में हर वर्ग और समुदाय के लोगों ने फूल-मालाओं से स्वागत किया। झेलम में नावों के जुलूस में उनकी जयकार भी हुई।
नेहरू और महाराजा का टकराव
महात्मा गाँधी के कश्मीर दौरे की योजना ख़ास कारण से बनी। जवाहर लाल नेहरू कैबिनेट मिशन के साथ कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की बैठकों के बाद दोबारा कश्मीर जाने की तैयारी में थे। पिछली यात्रा में महाराजा ने उन्हें कश्मीर में गिरफ्तार करा लिया था। इस बार भी यही आशंका जताई जा रही थी। महाराजा को लगता था कि नेहरू जब भी कश्मीर आयेंगे, उससे शेख अब्दुल्ला और अवामी आंदोलन को बल मिलेगा। उन्होंने लार्ड माउंटबैटन से अपील की कि वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके नेहरू को कश्मीर आने से रोकें। तब माउंटबैटन ने इस बाबत गाँधी जी से बातचीत की और उन्हें स्वयं वहाँ जाने का सुझाव दिया। माउंटबैटन के सुझाव और हालात की जटिलता देखकर गाँधी जी ने वहाँ जाने का फ़ैसला किया। इस पर सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं की सहमति थी।जाने से ऐन पहले 29 जुलाई, 1947 को दिल्ली की एक प्रार्थना सभा में गाँधी जी ने एक और बात कही - ‘मैं वहाँ के महाराजा को यह सुझाने नहीं जा रहा हूँ कि वह किसके साथ जाएँ! भारत में मिलें और पाकिस्तान में नहीं! इसका असल फ़ैसला करने वाले कश्मीर के लोग हैं, कोई राजा या महाराजा नहीं! शासक तो बस उस जनता का सेवक भर है।’( महात्मा गाँधी कलेक्टेड वर्क्स-वी राममूर्ति—वाल्यूम 96, पृष्ठ 173)।
घाटी में गाँधी: माहौल बदलने वाले वे चार दिन!
गाँधी जी 1 अगस्त,1947 को यानी आज़ादी मिलने के महज 14 दिन पहले श्रीनगर पहुँचे। सरहदी सूबे की उनकी यह यात्रा 1 से 4 अगस्त तक की थी। वह भारत और कश्मीर, दोनों के लिए बहुत नाजुक वक्त था। शेख अब्दुल्ला उस वक्त डोगरा महाराजा हरि सिंह के शासन की जेल में बंद थे। शेख अब्दुल्ला के द्वारा चलाए जा रहे राजा-महाराजा कश्मीर छोड़ो जनआंदोलन से परेशान होकर महाराजा ने उन्हें गिरफ्तार करा लिया था। शेख के समर्थन में जब नेहरू कश्मीर घाटी गए तो उन्हें भी गिरफ्तार कर उड़ी के डाकबंगले में रखा गया था। राष्ट्रीय नेताओं के दबाव और कैबिनेट मिशन से होने वाली चर्चा के मद्देनज़र महाराजा की सरकार ने नेहरू को रिहा किया था।
उम्र और अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बग़ैर महात्मा गाँधी रावलपिंडी के रास्ते श्रीनगर गए। घाटी के मुसलमानों, हिन्दुओं, सिखों समेत संपूर्ण समाज ने महात्मा गाँधी का जबर्दस्त स्वागत किया।
महाराजा हरि सिंह और महारानी तारा देवी अपने पुत्र और सूबे के युवराज कर्ण सिंह के साथ गाँधी जी का स्वागत करने राज-दरबार के मुख्य भवन से बाहर निकलकर आए। पैलेस की तरफ़ से महात्मा गाँधी का ख़ूब सम्मान किया गया लेकिन महात्मा गाँधी ने जितना सम्मान और स्नेह शेख की बेगम अकबरजहाँ (फारूक अब्दुल्ला की माँ), नेशनल कॉन्फ्रेंस के बाक़ी नेताओं और आम लोगों को दिया, उतना और किसी को नहीं। अकबरजहाँ के घर ही गाँधी ने अपनी पसंद का नाश्ता किया। आम लोगों की तरफ़ से गाँधी जी को जितनी पीटिशन मिली, उनमें सबसे ज़्यादा दो ही माँगें थीं - महाराजा हरि सिंह शेख अब्दुल्ला को तुरंत रिहा करें और महाराजा के प्रधानमंत्री रामचंद्र काक की पद से छुट्टी हो। लोगों ने सारे विवाद और हिंसा के पीछे प्रधानमंत्री काक की सनक बताई। यह माँग करने वालों में हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदायों के लोग शामिल थे। शेख के समर्थकों में सभी समुदायों के लोगों की हिस्सेदारी देखकर गाँधी जी चकित हुए। इस यात्रा के बाद शेख के प्रति उनका सम्मान और स्नेह और बढ़ गया।
उल्लेखनीय है कि गाँधी जी के दौरे से कुछ पहले महाराजा की पुलिस-फ़ौज़ ने नेशनल कॉन्फ़्रेंस के आंदोलन को कुचलने के लिए लोगों का बहुत दमन किया था। गोलीकांडों में भारी संख्या में लोग मारे गए। हालांकि सरकारी तौर पर संख्या 20 बताई गई थी।
महात्मा गाँधी ने दो दिनों के अपने आकलन के बाद श्रीनगर में साफ़ शब्दों में कहा कि हमने महसूस किया है कि जम्मू कश्मीर में शेख अब्दुल्ला को आम लोगों का भारी समर्थन और सम्मान प्राप्त है। महाराजा के शासन से लोग खुश नहीं हैं। महात्मा गाँधी से एक सवाल पूछा गया - ‘भारत के आज़ाद होने के बाद कश्मीर का क्या होगा’ इसके जवाब में गाँधी जी ने कहा, ‘भारत के आज़ाद होने के बाद कश्मीर का क्या होगा, यह आप पर यानी यहाँ की जनता की इच्छा पर निर्भर करेगा।’ लौटते समय जम्मू की एक प्रार्थना सभा के बाद भी गाँधी जी ने इसी आशय की टिप्पणी की थी।
गाँधी जी के दिल्ली लौटने के कुछ ही दिनों बाद महाराजा हरि सिंह ने 10 अगस्त को विवादास्पद प्रधानमंत्री रामचंद्र काक को पद से हटा दिया। भारत के आज़ाद होने के बाद शेख अब्दुल्ला को भी सितम्बर, 1947 में रिहा किया गया।
रामचंद्र काक के पद पर रहते हुए महाराजा लगातार इस बात पर अड़े दिखते थे कि जम्मू-कश्मीर न तो भारत में शामिल होगा और न ही पाकिस्तान के साथ जायेगा। लेकिन शेख अब्दुल्ला की रिहाई और जन आंदोलन के दबाव में सत्ता के मिजाज में भी बदलाव दिखने लगा। अंतिम मुकाम आया, जब पाकिस्तानी सेना के संरक्षण में हुए पहले कबीलाइयों और फिर पाक-रेगुलर्स के हमलों ने महाराजा को भारत का साथ लेने के लिए मजबूर कर दिया। इस तरह कश्मीर के भारत में सम्मिलन की प्रक्रिया में तेज़ी दिखने लगी। कम लोगों को मालूम रहा कि इस सपूंर्ण राजनीतिक प्रक्रिया में गाँधी जी के सिर्फ़ एक दौरे ने शेख अब्दुल्ला और भारत के रिश्तों को पुख्ता करने में मनोवैज्ञानिक स्तर पर कितनी बड़ी भूमिका निभाई। अंततः कश्मीर के भारत में सम्मिलन की ज़मीन नेहरू, शेख अब्दुल्ला, पटेल और वीपी मेनन ने बनाई।
आज के सत्ताधारी इसीलिए हैं चुप
कश्मीर के संदर्भ में गाँधी जी ने बार-बार कहा कि किसी सूबे, देश या रियासत का शासक वहाँ की जनता का सेवक होता है, भाग्यविधाता नहीं! इसलिए अपने देश या क्षेत्र के बारे में फ़ैसला करने का अधिकार वहाँ की जनता को है, किसी शासक या राजा को नहीं!
सत्ता व समाज के रिश्तों और लोकतंत्र के बारे में महात्मा गाँधी की यह समझ इतनी साफ़ है कि इसमें किसी तरह का हेरफेर करना किसी भी सरकार या सत्ताधारी नेता के लिए नामुमकिन है। ऐसे में कश्मीर पर लिए हाल के फ़ैसले को जायज ठहराने के लिए बीजेपी सरकार गाँधी जी के सपनों को पूरा करने जैसा खोखला दावा कैसे कर सकती है
केंद्रीय स्तर पर फ़ैसला लेने से पहले केंद्र की बीजेपी सरकार ने दिल्ली से गए राज्यपाल सत्यपाल मलिक की राय ली और जम्मू-कश्मीर की जनता की राय जानने की प्रक्रिया पूरी कर ली। संविधान सभा नहीं थी तो कम से कम राज्य विधानमंडल ही होता! कम से कम वहाँ के सियासी दलों और सिविल सोसायटी को ही भरोसे में लिया गया होता पर यहाँ तो शासक पार्टी ने अपने पुराने एजेंडे को उठाया और संसदीय मंजूरी दिलाकर काम पूरा कर लिया। ऐसे में गाँधी जी की राय का क्या मतलब
इस सिलसिले में सरदार पटेल, डॉ. अम्बेडकर और डॉ. लोहिया के नामोल्लेख का भी कोई तार्किक आधार नहीं है। पर आज़ादी की लड़ाई और फिर राष्ट्रनिर्माण के क्षेत्र में मूल्यवान और ऐतिहासिक रूप से कोई उल्लेखनीय विरासत न होने के चलते कांग्रेस, सोशलिस्ट या राष्ट्रीय आंदोलन के कुछ चुनिन्दा नेताओं का नाम लेते रहना हमारे मौजूदा सत्ताधारियों की ‘मजबूरी’ है। कुछ महापुरूषों को बेवजह अपनी चादर में लपेटने की उनकी आदत बन गई है!