5 अगस्त को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद कश्मीर में सब कुछ बदल गया है। अवाम लगभग बेरोज़गार होकर घरों में क़ैद होने को मजबूर हैं। घाटी के प्रमुख सियासतदान, जिनमें 3 पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व केंद्रीय मंत्री शामिल हैं, भी सरकारी क़ैद में हैं। इसके अतिरिक्त सैकड़ों लोग जम्मू कश्मीर के बंदीगृहों, स्थायी-अस्थायी जेलों के साथ-साथ देश की विभिन्न जेलों और जेल सरीखी अन्य जगहों में बंद हैं। इस बाबत सरकारी-ग़ैर सरकारी आंकड़े और दावे एकदम अलग-अलग हैं।
आंकड़े अपनी जगह हैं लेकिन यह खुला सच है कि समूची घाटी अजीब किस्म की 'बंदी' में है। चौतरफा अंधेरा पसरा है और रोशनी का फिलवक्त कोई सुराग नहीं है। केंद्र की सरकारों को हमेशा लगता रहा है कि कश्मीर भारतीय गणतंत्र को चुनौती देता रहा है। इसलिए भी कि 1990 के बाद हर स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) और गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) को घाटी में हड़ताल रहती है। यह एक रिवायत बन चुकी है।
5 अगस्त को अनुच्छेद 370 निरस्त करके जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सों में बांटने के पीछे एक तर्क यह भी था कि यह रियासत अब बाक़ायदा भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बना ली गई है।
2020 का गणतंत्र दिवस केंद्र सरकार द्वारा विभाजित तथा तीन खित्तों की लकीरें खींच कर बनाए गए केंद्र शासित प्रदेशों कश्मीर, जम्मू और लद्दाख का पहला गणतंत्र दिवस था। यानी अनुच्छेद 370 टूटने के बाद लोकतंत्र का पहला बड़ा उत्सव! 26 जनवरी का दिन कश्मीर घाटी में कैसा रहा, इस पत्रकार ने वहां के कुछ लोगों से ख़ास बातचीत करके इसका जायजा लिया।
पसरा हुआ था सन्नाटा
डॉक्टर गुलाम मोहम्मद मलिक घाटी के अति प्रतिष्ठित चिकित्सक हैं और देशभर के चिकित्सा जगत में उनका नाम बेहद सम्मान के साथ लिया जाता है। पांच साल पहले वह गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज, श्रीनगर के निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। फ़ोन पर हुई बातचीत में उन्होंने बताया, ‘26 जनवरी को श्रीनगर में पूरी तरह सन्नाटा पसरा हुआ था। लोगबाग खुद ही घरों से बाहर नहीं निकले। चौकसी और अतिरिक्त सावधानी के नाम पर चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाकर्मी तैनात थे। जगह-जगह बने बंकरों में हफ्ता भर पहले इजाफा कर दिया गया था। एक किलोमीटर लंबे रास्ते पर दस-बारह बंकर बनाए गए हैं। हर चार क़दम बाद गहन तलाशी और पूछताछ। कई जगह फजीहत। ऐसे में कौन घरों से बाहर निकलता है? सरकार ने सुबह से ही पूरी तरह फ़ोन बंदी कर दी थी।’
ग़ुलाम मोहम्मद बताते हैं, ‘1947 के बाद ऐसा माहौल कभी नहीं देखा। हम देशभक्त हैं लेकिन समझे नहीं जाते। इससे ज्यादा दुखदायी क्या होगा? पता नहीं इस बात के लिए कितने इम्तिहान देने होंगे कि हम भी इस गणतंत्र का हिस्सा हैं!’
नाजिम अली दरबार पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर हैं और बीते सितंबर तक गुड़गांव की एक नामी मल्टीनेशनल कंपनी में अच्छे ओहदे पर थे। 17 सितंबर को वह बारामुला स्थित अपने घर लौटे और उसके बाद वापस काम पर नहीं गए। उनके मुताबिक़, ‘सरकार कहती है कि कश्मीर सामान्य हो चला है लेकिन क्या आप सिर्फ हिंसा रुकने को सामान्य कहेंगे। गणतंत्र दिवस के दिन उम्मीद थी कि सरकार पाबंदियों में सचमुच ऐसी छूट अथवा ढील देगी कि कश्मीरी अवाम को लगेगा कि वह भी आम भारतीयों की तरह इस तंत्र का गण है लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उल्टे प्रतिबंध और पाबंदियों में ज्यादा कसाव कर दिया गया!’
पीडीपी के सक्रिय कार्यकर्ता अफज़ल ख़ान कहते हैं, ‘इस बार का गणतंत्र दिवस भी कश्मीरियों के लिए बेमतलब साबित हुआ। अलगाववादी संगठनों ने पहले की तरह हड़ताल अथवा बंद के पोस्टर कहीं नहीं लगाए लेकिन फिर भी लोग बाहर नहीं निकले।’
मीडिया नहीं दिखा रहा सही तसवीर
यह पूछने पर कि कुछ चैनलों में बताया गया है कि लोग घरों से बाहर आकर आराम से घूमते रहे, अफज़ल इसके जवाब में दो टूक कहते हैं, ‘यह प्रायोजित झूठ है। ऐसे दृश्य मैनेज किए जाते हैं ताकि लगे कि कश्मीर में सरकारी कोशिशों से शांति बहाल हो चुकी है। मीडिया में कश्मीर की सही तसवीर नहीं दिखाई जा रही। हकीक़त यह है कि कश्मीर शांत तो है लेकिन भीतर ही भीतर असंतोष बढ़ता जा रहा है।’
सरकार ने गंवाया मौक़ा
सीपीआई की राज्य काउंसिल के सदस्य और वरिष्ठ वामपंथी नेता यूसुफ़ मुहम्मद भट्ट बरसों से घाटी में सांप्रदायिक सद्भाव और अमन के लिए काम कर रहे हैं। इस पत्रकार से फ़ोन पर उन्होंने कहा, ‘कश्मीर घाटी में 26 जनवरी का दिन दहशत और आशंकाओं के नाम रहा। 26 जनवरी को ऐसे बहुत से क़दम उठाए जा सकते थे जो भरोसा खो रहे लोगों को कहीं न कहीं आश्वस्त करते। लेकिन चौकसी के नाम पर सरकार के इस तरह के शक्ति प्रदर्शन ने कश्मीरियों में और ज्यादा नाउम्मीदी, बेयकीनी और घोर निराशा भरी है। मैं तो कहूंगा कि सरकार ने कश्मीरियों का दिल जीतने का एक बड़ा मौक़ा गणतंत्र दिवस के अवसर पर गंवा दिया।’ यूसुफ़ सरीखी सोच कश्मीर में बहुत सारे बुद्धिजीवियों, चिंतकों और गंभीर राजनीतिक लोगों की है। दिक्कत यह है कि सरकार उन्हें या कश्मीर के संबंध में किसी भी गैर सरकारी पक्ष को सुनने तक को तैयार नहीं है।
नेशनल कॉन्फ्रेंस से जुड़े और पूर्व मुख्यमंत्री फारूक़ अब्दुल्ला के करीबी अख़्तर जैदी ने कहा, ‘इस बार घाटी में हड़ताल नहीं बल्कि कर्फ्यू का आलम था। नजरबंद नेताओं में से कुछ को रिहा करके कश्मीर में गणतंत्र को मजबूत किया जा सकता था लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया।’
अनुराधा भसीन जम्मू-कश्मीर के सबसे बड़े अख़बार ‘कश्मीर टाइम्स’ की बहुचर्चित संपादक हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के मुद्दे और 5 अगस्त के बाद बंद की गई इंटरनेट सेवाओं पर सरकारी फ़ैसले के ख़िलाफ़ वह सुप्रीम कोर्ट गईं थीं। सुप्रीम कोर्ट ने 10 जनवरी को हुई सुनवाई में सरकार को प्रतिबंधों की समीक्षा के निर्देश दिए थे और इंटरनेट चालू करने के लिए कहा था लेकिन फिलहाल तो सरकार पर उसका कोई असर नहीं हुआ।
कश्मीर टाइम्स की संपादक अनुराधा भसीन।
इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन के कार्यकारी डायरेक्टर व वकील अपर गुप्ता के मुताबिक़, 10 जनवरी की सुनवाई में कश्मीर में नजरबंदी और नेटबंदी पर सुप्रीम कोर्ट के रुख में सबसे बड़ी खामी यह है कि उसने अपने निर्देश लागू करने पर जोर नहीं डाला, जिससे सरकार को मौक़ा मिल गया कि वह कश्मीर में रह रहे लोगों को इंटरनेट सुविधा के उपयोग से और ज्यादा लंबे अरसे तक वंचित रख सके।
अनुराधा भसीन ने बातचीत में कहा, ‘सरकार की कश्मीर संबंधी नीतियां समझ से परे हैं। एक तरफ दुनिया भर में दावे किए जा रहे हैं कि कश्मीर में हालात सामान्य हो रहे हैं और दूसरी तरफ़ एहतियात के बहाने अचानक फ़ोन बंद कर दिए जाते हैं। जब सब सामान्य है तो सरकार को आख़िर ख़तरा किससे है?’
अनुराधा कहती हैं, ‘फ़ोन खुले रहते तो क्या हो जाता? संचार सुविधाएं सरकार के निशाने पर हैं। देश के कई इलाक़ों में हालात जम्मू-कश्मीर से भी बदतर रहे हैं लेकिन वहां तो इस तरह फ़ोनबंदी और नेटबंदी नहीं की जाती।’ अनुराधा भसीन भी मानती हैं कि गणतंत्र दिवस पर सरकार कोई नई पहल कर सकती थी।