होर्डिंग्स विवाद पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से झटका खाने के बाद भी उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को सद्बुद्धि नहीं आई है। वह न केवल अपने रुख़ पर अड़ी हुई है, बल्कि उससे भी आगे जाकर ऐसे काम करने पर उतारू है जो न केवल जनविरोधी हैं, बल्कि अलोकतांत्रिक एवं असंवैधानिक भी हैं। उसका नया रिकवरी ऑफ़ डैमेज टू गवर्नमेंट एंड प्राइवेट प्रापर्टी ऑर्डिनेंस इसकी एक और बानगी है।
योगी सरकार यह अध्यादेश सरकारी एवं निजी संपत्ति को नुक़सान पहुँचाने वालों से हर्ज़ाना वसूलने के नाम पर लाई है। लेकिन इस अध्यादेश के प्रावधान ऐसे हैं जो किसी भी लोकतांत्रिक कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इसका एकमात्र मक़सद आम जनता में खौफ़ पैदा करना है और विरोध करने वालों की आवाज़ को दबाना है।
यानी इस अध्यादेश के बाद किसी भी तरह का विरोध-प्रदर्शन करने वालों को हिंसा भड़काकर परेशान किया जा सकता है। हर्ज़ाना वसूली के नाम पर ट्रिब्यूनल बग़ैर अभियुक्त का पक्ष जाने उसकी संपत्ति कुर्क कर सकता है और न्याय के सामान्य सिद्धांत के विपरीत आरोपी को खुद को निर्दोष साबित करना होगा।
इस अध्यादेश के दुरुपयोग की पूरी संभावनाएं हैं। कोई भी सर्किल अफ़सर झूठी एफ़आईआर के ज़रिए किसी को भी फँसा सकता है और फिर उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जा सकती है। यही नहीं, योगी सरकार ने इसमें आरोपियों के नामों को प्रचारित करने का प्रावधान भी किया है। यानी वह प्रतिरोध करने वालों को फंसाकर उन्हें बदनाम करने और ख़तरे में डालने का काम जारी रखना चाहती है।
योगी सरकार को इस बात की परवाह नहीं है कि इस तरह से पोस्टर-होर्डिंग्स लगाने से लोगों का जीवन ख़तरे में पड़ सकता है। जिस काम को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ग़लत बता चुके हैं उसे वह इस अध्यादेश के ज़रिए जायज़ ठहराने की कोशिश कर रही है।
ज़ाहिर है कि योगी सरकार का यह क़दम लोकतंत्र विरोधी है। मगर बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती। अगर इस अध्यादेश को अदालत में चुनौती दी गई तो न्याय के मानदंडों पर भी यह फ़ेल हो जाएगा।
दरअसल, यह एक खीझी हुई सरकार का आत्मघाती क़दम है। गत 9 मार्च को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने योगी सरकार से 16 मार्च तक लखनऊ के चौक-चौराहे पर लगाए गए होर्डिंग्स को हटाने के लिए कहा था। उसके इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई थी मगर वहाँ भी उसे कोई राहत नहीं मिल पाई थी। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने कोई अंतिम फ़ैसला नहीं दिया था और मामले को बड़ी बेंच को भेजने की बात कही थी। मगर चूँकि उसने हाई कोर्ट के फ़ैसले पर स्टे नहीं दिया था इसलिए योगी सरकार के लिए यह लाज़िमी हो गया था कि वह इन होर्डिंग्स को हटाए। लेकिन सरकार ने ऐसा करने के बजाय अध्यादेश के ज़रिए हाई कोर्ट के आदेश को न मानने का रास्ता अपनाया है।
योगी सरकार का यह काला अध्यादेश न्याय के बुनियादी सिद्धांतों की धज्जियाँ उड़ाने वाला है। पता नहीं जिसने भी इसे बनाया उसे क़ानून की ठीक से जानकारी भी थी या नहीं। विडंबना यह है कि राज्यपाल आनंदी बेन पटेल ने भी इसकी क़ानूनी जाँच किए बिना आनन-फानन में इसे अपनी मंज़ूरी दे दी।
पहले तो यह समझ लीजिए कि योगी के इस क़ानून को हम क्यों काला और जनविरोधी कह रहे हैं। पहली बात तो यह है कि इसमें यह व्यवस्था की गई है कि इसके तहत बनाए गए ट्रिब्यूनल का फ़ैसला अंतिम होगा और इसे किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। मौलिक अधिकारों के तहत यह हमारा संवैधानिक अधिकार है कि हम अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं। मगर अदालतों से घबराए मुख्यमंत्री योगी न केवल हमारा-आपका यह अधिकार छीन रहे हैं बल्कि अदालतों की भूमिका भी ख़त्म कर देना चाहते हैं।
इस अध्यादेश के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि ट्रिब्यूनल राज्य सरकार की मशीनरी के तहत काम करेगा और ज़ाहिर है कि वह सरकार के दबाव में होगा।
यह अध्यादेश हमारे एक और मौलिक अधिकार को सीमित करता है। जनता को अधिकार है कि वह सरकार के किसी भी काम या नीति का विरोध कर सकती है। मगर यह अध्यादेश इस तरह का आतंक पैदा करेगा कि लोग विरोध करने से घबराएंगे।
बर्बरता दिखा रही सरकार
वास्तव में यह अध्यादेश उत्तर प्रदेश में सरकारी आतंकवाद का अगला चरण है। सीएए और एनआरसी के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन को कुचलने के लिए योगी सरकार बहुत बर्बरता से काम कर रही है। पिछले साल नवंबर से उसने यह दमन अभियान चला रखा है। इसके तहत उसने शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने वाले लोगों के ख़िलाफ़ गाली, गोली सब तरह के हथकंडे अपनाए। सैकड़ों निरपराध लोगों को जेल में डाल दिया गया, उन्हें हिरासत में भी बुरी तरह से मारा-पीटा गया।
साफ़ है कि यह अध्यादेश अदालत में नहीं टिक पाएगा। हालाँकि हाल में अदालतों का जो रवैया रहा है उससे यह संदेह पैदा होता है कि अगर कोर्ट ने इस अध्यादेश को नहीं रोका तो योगी सरकार यूपी को एक ऐसे राज्य में तब्दील कर देगी जहाँ नागरिक आज़ादी होगी ही नहीं, केवल आतंक का राज होगा।
वास्तव में योगी सरकार की ऐसी हिम्मत इसलिए भी हुई क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने ढुलमुल रवैया अपनाते हुए कोई ठोस फ़ैसला नहीं दिया था। उसने मामले को तीन सदस्यीय बेंच को भेजने की बात कही जबकि इसकी ज़रूरत ही नहीं थी। इस तरह उसने पूरे देश को निराश किया और खुद की विश्वसनीयता पर भी चोट कर ली है।
अब समय है कि इस काले अध्यादेश का देशव्यापी विरोध हो, क्योंकि उत्तर प्रदेश के लोगों का ऐसा कर पाना तो मुश्किल होगा। उन्हें सरकार फंसाकर जेल में ठूँस देगी, परेशान करेगी। मगर यदि उत्तर प्रदेश के बाहर विरोध हुआ तो सरकार कुछ नहीं कर पाएगी। क़ानून के मोर्चे पर भी लड़ाई तुरंत और पूरे ज़ोर के साथ लड़ी जानी चाहिए। जाने-माने वकील प्रशांत भूषण ने कहा है कि वह इस अध्यादेश को अदालत में चुनौती देंगे।