अप्रैल का महीना है और मौसम गर्म होने लगा है। सियासी मौसम भी गर्म है। हर राजनैतिक दल चुनावी रैलियाँ कर रहे हैं और देश को नयी उम्मीदें बेच रहे हैं। यह विचित्र है कि देश की आधी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है इसके बावजूद किसानों के मुद्दों को राजनेताओं के भाषणों में ढूँढना पड़ रहा है।
पिछले पाँच वर्षों में सरकारी आँकड़ों में ही कृषि क्षेत्र में हो रही गिरावट को लेकर सरकारी नीतियाँ सवालों के घेरे में हैं। इस चुनाव में सरकार किसानों को पिछले 5 वर्ष का हिसाब देने में नाकाम दिख रही है। सत्तापक्ष के भाषणों में किसानों की आय वृद्धि कम होने को लेकर कहीं भी ज़िक्र नहीं है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अंतर्गत देश के अंतिम किसान के खेत तक पानी पहुँचा है या नहीं पहुँचा है, इस सवाल का जवाब भी नहीं मिल रहा है। प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना के अंतर्गत निजी कंपनियों को इतना बड़ा फ़ायदा कैसे हो रहा है और किसान इस बीमा योजना को लेकर इतने निराश क्यों है, इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा है।
सरकार को बताना चाहिए कि किसानों को लागत का डेढ़ गुना दाम देने वाले वादे का क्या हुआ? देश के किसानों को इसलिए 5 साल का हिसाब जानने का अधिकार है।
यह भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता की बात है कि जिस देश में 50% से अधिक लोग कृषि आधारित कार्यों पर निर्भर हैं वहाँ की राजनीति में कृषि विकास को लेकर कोई सकारात्मक चर्चा नहीं है। विपक्ष भी सरकार के ऊपर आरोप लगाने के अलावा किसानों को कोई बहुत सकारात्मक नीति नहीं समझा पा रहा है।
मोदी सरकार से किसान नाराज़ क्यों?
पिछले 5 वर्षों में आपने हर वर्ष मोदी सरकार ने किसानों के लिए कुछ बड़ी योजनाओं की घोषणा की लेकिन किसान ख़ुश नज़र नहीं आ रहे। पश्चिमी यूपी में गन्ना भुगतान को लेकर किसान सरकार से विशेष नाराज़गी जता रहे हैं। वर्ष 2018 में सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागत का डेढ़ गुना करने का भी दावा किया था लेकिन हक़ीकत में न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना नहीं हुआ है। प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना के अंतर्गत सबसे अधिक फ़ायदा निजी कंपनियों को हो रहा है।
शायद आज़ाद भारत की यह पहली कृषि बीमा नीति है जहाँ किसान अपनी कमाई का एक हिस्सा पूंजीपतियों की बड़ी-बड़ी बीमा कंपनियों को लाभ पहुँचाने के लिए जमा कर रहा है।
फ़सल नुक़सान होने की स्थिति में जब वह दावा करता है तो यह निजी बीमा कंपनियाँ बैंकों के साथ मिलीभगत कर किसानों को झूठ बोलने का कार्य करती है। सरकार इस तथ्य पर मौन है कि आख़िर क्यों किसान प्रधानमंत्री कृषि बीमा योजना से ख़ुश नहीं हैं?
कांग्रेस के घोषणापत्र में ज़िक्र, लेकिन विशेष चर्चा नहीं
कांग्रेस ने घोषणापत्र में किसानों के मुद्दे शामिल कर एक मामूली बढ़त ज़रूर ली है। कांग्रेस के घोषणापत्र को देखें तो उसमें कृषि के संदर्भ में 22 बिंदुओं को चिन्हित किया गया है। इसमे जो एक नई चीज दिख रही है वह स्वतंत्र किसान बजट की वकालत करना है। दूसरा विषय जो स्वागत योग्य है, वह कर्ज़ तले दबे किसान को आपराधिक मामले के अंतर्गत नहीं रखते हुए उसे सिविल मामले में बदलने की बात कही गई है। कांग्रेस के घोषणापत्र में इसका ज़िक्र है और वह अगर सत्ता में आई तो करेगी या नहीं करेगी, यह देखना होगा। लेकिन फ़िलहाल इसकी चर्चा भी दब गयी है। वर्तमान में पिछले 5 वर्ष में हुए कृषि के क्षेत्र में कार्यों की पड़ताल करने की ज़रूरत है।
बीजेपी और कांग्रेस की राजनीतिक लड़ाई लड़ाइयाँ जो भी हो, पर आर्थिक नीतियों के मामले में यह एक जैसे ही दिखते रहे हैं। आज जब कांग्रेस की ज़मीन राजनीतिक रूप से कमज़ोर हुई तो वह अचानक मज़दूर और किसानों की आवाज़ को उठाने की कोशिश कर रही है और यह प्रशंसनीय है कि विपक्ष के रूप में वह किसानों की बिगड़ती स्थिति को राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है।
दोतरफ़ा युद्ध लड़ रहे हैं किसान
असल में अब इस देश का किसान एक आर्थिक युद्ध लड़ रहा है जहाँ उसे अब सिर्फ़ संघर्ष ही करना है। ऐसा इसलिए क्योंकि वह युद्ध सरकार के साथ-साथ देश के बड़े पूंजीपतियों के ख़िलाफ़ लड़ रहा है। किसानों के संदर्भ में बन रही सरकारी नीतियाँ कुछ चंद पूंजीपतियों को फ़ायदा पहुँचाने के उद्देश्य से कार्य कर रही है। लक्ष्य बड़ा स्पष्ट है कि किसानों की ज़मीन पूंजीपतियों को उपलब्ध कराना है और इसके लिए किसानों को कमज़ोर करना ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है। इसका परिणाम भी हम देख सकते हैं। वर्ष 1995 से 2015 के बीच कुल 3,05,000 किसानों ने आत्महत्या की है। इतने लोग तो एक जंग में भी शहीद नहीं होते। यह आँकड़े गृह मंत्रालय ने ही जारी किए हैं। वर्ष 2015 के बाद का कोई भी आँकड़ा किसानों की आत्महत्या को लेकर मौजूद नहीं है।
वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक भारत की आधी आबादी शहरी क्षेत्र की तरफ़ प्रस्थान कर जाएगी। इसका सीधा-सा मतलब होगा कि कृषि क्षेत्र में 25.7% आबादी में गिरावट देखी जाएगी। वर्ल्ड बैंक की यह रिपोर्ट 2 बुनियादी सवाल हमारे सामने रख रही है। पहला अगर कृषि क्षेत्र से पलायन इतने बड़े स्तर पर होगा तो देश की कृषि ज़रूरतों को कौन पूरा करेगा? दूसरा सवाल है कि इस बढ़ती बेरोज़गारी के बीच क्या शहरी क्षेत्र आने वाली ग्रामीण आबादी को जगह देने के लिए उपयुक्त है? इन दोनों ही बुनियादी सवालों का जवाब आपको इस चुनाव में किसी नेता या राजनैतिक दल के ज़रिए सुनने को नहीं मिलेंगे। देश में ऐसे विषयों को चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनाया जाता है?
किसानों की आय दोगुनी कैसे होगी?
वर्तमान केंद्र सरकार ने कहा था कि 2022 तक वह किसानों की आय को दोगुना कर देगी। किसानों की आय सरकार दोगुनी कैसे कर देगी इसको लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं दिखाई पड़ रही है। किसानों की आय में हो रही वृद्धि के आँकड़ों को देखें तो अक्टूबर से दिसंबर 2018 की तिमाही में किसानों की आय वृद्धि दर पिछले 14 वर्ष में सबसे कम रही है।
आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 की रिपोर्ट कहती है कि कृषि क्षेत्र में 2.1% की दर से वृद्धि हो रही है जो कि यूपीए के 10 सालों वाली सरकार से भी कम है।
कृषि के सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर को देखें तो पिछले 4 वर्षों में 2.5% की वृद्धि दर रही है जो कि यूपीए-2 के 5.2% से काफ़ी कम है। फिर अब यह कौन-सा अर्थशास्त्र है जो इतनी कम वृद्धि दर पर भी 2022 तक किसानों की आय को दोगुना कर सकता है? यह अर्थशास्त्र तो नोटबंदी करने वाले और इसके फ़ायदे गिनाने वाले प्रधानमंत्री जी ही बता सकते हैं!
कृषि में निवेश कम हुआ
वर्ष 1980-81 में कृषि क्षेत्र में 43.2 फ़ीसदी सरकारी निवेश हुआ करता था जो कि वर्ष 2016-17 में 18.8% हो गया है। सरकारी निवेश का कृषि क्षेत्र में घटना कहीं ना कहीं पूंजीवाद के एकाधिकार को कृषि क्षेत्र में बढ़ावा देने का पहला कदम है। किसान अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है और दुख इस बात का है कि यह चुनाव भी किसानों के मुद्दे को केंद्रित ना करते हुए बेवजह के मुद्दों पर लड़ा जा रहा है। लोकसभा में सबसे अधिक सीटें ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं और अगर किसानों का मुद्दा तेज़ी से मतदान के समय हावी हुआ तो निश्चित रूप से सत्ता के ख़िलाफ़ एक परिवर्तन दिख सकता है। तक़रीबन 400 से अधिक ग्रामीण लोकसभा सीटें हैं और यह सीटें सत्ता के बनने और बिगड़ने का रास्ता तय करती है। इसलिए सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को किसानों के मुद्दे पर केंद्रित होकर चुनाव लड़ना चाहिए।