दुष्यंत कुमार हिंदी साहित्य में बहुत बड़ा नाम हैं जिनकी मिसाल हर कोई देता है। दुष्यंत कुमार अपनी बेहद सरल हिंदी और बेहद आसानी से समझ आने वाली उर्दू में कविताएं लिखकर लोगों के दिलो-दिमाग पर एकदम से छा गए थे। उन्होंने देश के सामने सरल हिंदी भाषा में गजलों को पेश करके, देश के हिंदी साहित्य में एक नई बयार बहाई थी। पुण्यतिथि पर प्रस्तुत हैं उनकी कुछ बेहतरीन रचनाएं -
"रहनुमाओं की अदाओं पर फ़िदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों,
कैसे आकाश में सुराख़ हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।"
महान कवि दुष्यंत कुमार का जन्म 27 सितंबर, 1931 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। हालांकि दुष्यंत कुमार की पुस्तकों में उनकी जन्मतिथि 1 सितंबर, 1933 लिखी है। उनके पिता का नाम भगवत सहाय त्यागी और माता का नाम रामकिशोरी देवी था। दुष्यंत कुमार ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में बीए और एमए किया। कथाकार कमलेश्वर और मार्कण्डेय तथा कविमित्रों धर्मवीर भारती, विजयदेवनारायण शाही आदि के संपर्क में आकर दुष्यंत की साहित्यिक अभिरुचि को एक नया आयाम मिला था।
देश में लगे आपातकाल के समय उनका कविमन बेहद क्षुब्ध और आक्रोशित हो उठा जिसकी अभिव्यक्ति कुछ कालजयी ग़ज़लों के रूप में हुई, जो उनके ग़जल संग्रह 'साये में धूप' का हिस्सा बनीं। सरकारी सेवा में रहते हुए सरकार विरोधी काव्य रचना के कारण उन्हें समय-समय पर सरकार के कोपभाजन का भी शिकार बनना पड़ा था। अपनी ग़जलों से देश के मठाधीशों के सिंहासन को हिलाने वाले दुष्यंत की 30 दिसंबर, 1975 की रात्रि में हृदयाघात के चलते मृत्यु हो गयी। उनकी कुछ और प्रमुख रचनाओं पर नज़र डालते हैं -
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
जिस दौर के दौरान दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने क़दम रखे थे, उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का गज़लों की दुनिया पर एकक्षत्र राज था। हिन्दी भाषा में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का जबरदस्त बोलबाला था। नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कवि भी उस दौरान लोकप्रिय थे।
दुष्यंत कुमार ने कविता, गीत, गज़ल, काव्य, नाटक, कथा, हिंदी की सभी विधाओं में लेखन किया था लेकिन उनकी गज़लें उनके लेखन की दूसरी विधाओं पर हमेशा भारी पड़ी और लोगों के दिलो-दिमाग पर छा गयीं।
दुष्यंत की हर गज़ल आम आदमी की आवाज़ बन गयी है, जिसमें चित्रित है - आम आदमी के जीवन संघर्ष की दास्तान, आम आदमी के जीवन का दर्द व दर्पण, देश की राजनैतिक विडम्बनाएं और विसंगतियां। राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, प्रशासनिक तन्त्र की संवेदनहीनता उनकी गजलों का ताकतवर स्वर है। दुष्यन्त कुमार ने गज़ल को रूमानी तबियत से निकालकर देश के आम आदमी से जोड़ने का कार्य सफलतापूर्वक किया है। दुष्यंत कुमार ने गज़ल को हिंदी कविता की मुख्य धारा में शामिल करने की पुरजोर कोशिश की और वह इसमें पूरी तरह सफल भी हुए।
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए