राजस्थान में कोटा के सरकारी जे.के. लोन हॉस्पिटल में बच्चों की मौत की संख्या 104 हो गई है। इस वक़्त मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की बड़ी चिंता क्या होनी चाहिए? बच्चों की जान या विपक्ष की आलोचना का डर? उनके बयान को ही देखिए। गहलोत ने कहा है कि नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ बने माहौल से ध्यान हटाने के लिए कोटा में बच्चों की मौत के मामले को उठाया जा रहा है। तो अब पूछा जाना चाहिए कि क्या मुख्यमंत्री को इसकी चिंता होनी चाहिए कि नागरिकता क़ानून से ध्यान हटाने के लिए मुद्दे को उठाया जा रहा है या फिर एक-एक जान को बचाने की चिंता होनी चाहिए? यदि ध्यान हटाने के लिए मामले को उठाया जा रहा है तो भी क्या बच्चों की मौत लगातार होते रहने को कमतर आँका जा सकता है?
हालाँकि इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मैंने पहले ही कहा है कि इस साल शिशु मृत्यु दर में पिछले कुछ वर्षों की तुलना में काफ़ी कमी आई है। लेकिन सवाल है कि कितनी कमी आई है और स्वास्थ्य-व्यवस्था कितनी सुधरी है? गहलोत के हाल ही के दावे को मानें तो उन्होंने कहा था कि पहले किसी साल 1500, कभी 1400 और कभी 1300 मौतें होती थीं, लेकिन इस बार क़रीब 900 मौतें हुई हैं। लेकिन सवाल है कि ये 900 मौतें भी क्यों हुईं? क्या यह इतनी बेहतर स्थिति है कि इसकी तारीफ़ की जाए?
स्वास्थ्य के क्षेत्र में राजस्थान की बदहाली का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि 2018 में नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक़ स्वास्थ्य के क्षेत्र में 21 बड़े राज्यों में राजस्थान 20वें स्थान पर है। यह तथ्य निस्संदेह राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं की खस्ता हालत को बताता है।
डॉक्टरों की भारी कमी
इसका एक बड़ा कारण है कि डॉक्टरों की भारी कमी है। राज्य की जनसंख्या 7 करोड़ से ज़्यादा है जबकि सरकारी और निजी एलोपैथिक डॉक्टर लगभग 38,000 ही हैं यानी क़रीब 2 हज़ार की जनसंख्या पर एक डॉक्टर। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक हज़ार जनसंख्या पर कम से कम एक डॉक्टर होना चाहिए। यही नहीं, राज्य में एमबीबीएस की सीटें भी बमुश्किल 1600-1700 ही हैं। साल 2013 में अशोक गहलोत सरकार ने 15 ज़िला मुख्यालयों पर नए मेडिकल कॉलेजों को खोलने की योजना तैयार की थी, लेकिन सरकार बदली तो योजना ठंडे बस्ते में चली गयी। फिर से अशोक गहलोत की सरकार को आए एक साल हो गया है। लेकिन इस पर कोई प्रगति नहीं हुई है।
राजस्थान में विधानसभा का चुनाव लड़ते समय कांग्रेस ने दिसंबर 2018 में नि:शुल्क निदान, उपचार और दवाओं सहित राइट टू हेल्थ केयर के अधिकार का वादा किया था। लेकिन गहलोत ने अब तक जो किया वह नाकाफ़ी साबित हुआ है। और यही कारण है कि विपक्षी दल बीजेपी गहलोत पर हमलावर है। बीजेपी गहलोत सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रही है और मुख्यमंत्री से इस्तीफ़ा तक माँग रही है।
वैसे, यही बीजेपी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में क़रीब 2 साल पहले यानी 2017 में जब बच्चों की मौत हुई थी तब दूसरे लोगों पर आरोप मढ़ रही थी क्योंकि राज्य में बीजेपी ही सत्ता में थी।
गोरखपुर में बीजेपी भी करती थी बयानबाज़ी
'लाइव मिंट' की रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में अगस्त महीने में 290 बच्चों की मौत हो गई थी। यह मामला तब उछला था जब ऑक्सीज़न की कमी से एक साथ कई बच्चों की मौत हो गई थी। तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि बच्चों की मौत अस्पताल के अंदर चल रही राजनीति की वजह से हुई है, न कि ऑक्सीजन की कमी से। बाद में रिपोर्ट आई थी कि 69 लाख रुपये का भुगतान नहीं होने की वजह से ऑक्सीज़न सप्लाई करने वाली फ़र्म ने ऑक्सीज़न सिलेंडर की सप्लाई रोक दी थी।
हालाँकि, बाद में तो योगी आदित्यनाथ ने यहाँ तक कह दिया था कि बच्चों की मौत के पीछे भी गंदगी एक बड़ी वजह है। उन्होंने कहा था कि सेप्टी टैंक लोग घरों में बनाते हैं, जगह की कमी की वजह से गंदगी फैलती है और फिर यह भयावह रूप ले लेता है।
तब प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने भी कहा था कि हर साल अगस्त में बच्चों की मौत होती है। इस पर भी काफ़ी विवाद हुआ था।
बिहार में बच्चों की मौत
ऐसी ही बयानबाज़ी बिहार में बच्चों की मौत के मामले में भी आई थी। जब वायरल या बैक्टीरिया संक्रमण से इंसेफेलाइटिस के कारण मुज़फ्फरपुर में बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हो गई थी। हर कोई ज़िम्मेदारी से बचता नज़र आया था। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस पर चुप्पी साधे रखने के लिए तीखी आलोचना भी हुई थी। फिर कई स्तरों पर कहा गया कि बच्चों की मौत के लिए लीची ज़िम्मेदार है। हालाँकि विशेषज्ञों ने इसको एक कारण माना था, लेकिन इससे बड़ी वजह दूसरी थी। तब अस्पताल में भी कई अव्यवस्थाएँ सामने आई थीं। पहले से तैयारी नहीं थी। वैसे बच्चों की मौत हो रही थी जो कुपोषित थे। बता दें कि लीची में मेथिलीन साइक्लोप्रोपाइल ग्लाइसीन (एमसीपीजी) रसायन होता है। कुपोषित बच्चों के खाली पेट लीची खाने से ख़तरा बढ़ जाता है।
ऐसे मामलों में हर बार नेताओं द्वारा ऐसे आरोप-प्रत्यारोप लगाए गए या ऐसे सवाल पूछे गए और उसके उत्तर दिए गए जिससे लगा कि इसके पीछे सरकार और इसके स्वास्थ्य महकमे की बड़ी लापरवाही को छुपाने की कोशिश हो! क्या गहलोत के ताज़ा बयान के भी यही मायने तो नहीं?