जैसे-जैसे चुनाव नतीजे आ रहे हैं, राजस्थान में तस्वीर लगभग साफ़ होती जा रही है। एक बार फिर साफ़ हो गया है कि भाजपा सरकार की नाकामी और भ्रष्टाचार से उकताई जनता ने बदलाव के लिए वोट दिया। कांग्रेस के एक बार फिर सत्ता में आने के स्पष्ट संकेत हैं। करीब 10 से ज्यादा निर्दलीय प्रत्याशी भी चुनाव जीत कर आते दिख रहे हैं। बसपा, माकपा और रालोपा भी फुटकर सीटें अपने खाते में डालते दिख रहे हैं। बेशक कांग्रेस की जीत उतनी जबरदस्त न हो जितनी पिछली बार मोदी लहर में बीजेपी की थी, पर फिर भी यह साफ़ है कि मतदाता एक निर्णायक वोट तो चाहता ही था। कहने को यह बदलाव का वोट है लेकिन राजस्थान की राजनैतिक तासीर में कोई बदलाव दिखाई नहीं दे रहा। बाहर से गए पत्रकार की नज़र से अगर राजस्थान को देखें तो सब कुछ पुराने चुनावों जैसा ही है। हर 5 साल में एक नाकाम, नाकारा और भ्रष्ट सरकार को सत्ता से हटाने की बेचैनी, विपक्ष से गायब रही दूसरी पार्टी के ख़ुद-ब-ख़ुद सत्ता में आ जाने की कहानी एक बार फिर दोहराई जा रही है।
स्थानीय क्षत्रपों पर जताया भरोसा
पिछले 4 महीने के चुनाव को अगर देखें तो यही सामने आता है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपने स्थानीय क्षत्रपों पर भरोसा किया। कमोबेश पुराने उम्मीदवार ही एक-दूसरे से लड़ते दिखाई दिए। दोनों दलों में पारंपरिक और स्वाभाविक अंदरूनी कला और प्रतिस्पर्धा उनके लिए सबसे बड़ा ख़तरा थी। चुनाव से जुड़ा संवाद उसी पुराने ढर्रे पर था। पूरे प्रचार में बीजेपी या वसुंधरा राजे अपनी सरकार की नाकामी या भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर बिल्कुल डिफ़ेंसिव नहीं दिखाई दीं। राजस्थान भर में भाजपा के होर्डिंग दिखाते हैं कि जैसे मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपनी सरकार के काम पर चुनाव लड़ रही हैं। जो सरकारी योजनाएँ बुरी तरह फ़ेल हुईं और सरकार की बदनामी का सबब बनीं, वह बीजेपी के होर्डिंग पर हैं।
मैदान में उतारे गए भ्रष्ट नेता
जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और लेन-देन से जुड़े ऑडियो सामने आए, वे चुनाव मैदान में उतारे गए। ऐसा माना जा रहा था कि बीजेपी बड़े पैमाने पर अपने विधायकों और मंत्रियों के टिकट काटेगी और सरकार की लोकप्रियता और जनता में उसके प्रति गुस्से को कम करने के लिए ज़्यादातर नए चेहरे मैदान में उतारे जाएंगे। लेकिन जब बीजेपी ने अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की तो लगा कि जैसे मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की ज़िद पर बीजेपी का आलाकमान उन सभी लोगों को टिकट देने पर मजबूर हो गया जिनको लेकर जनता के बीच नाराज़गी थी।पूरे राजस्थान में चुनाव के 7-8 महीने पहले से ही ऐसा माहौल बन रहा था जैसे सरकार के ख़िलाफ़ बहुत ज़बरदस्त ग़ुस्सा है और चुनाव में वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली बीजेपी को बहुत बड़ी हार का सामना करना पड़ेगा। इस पृष्ठभूमि में बीजेपी के उम्मीदवार और प्रचार की पिच देख कर अचंभा जरूर हुआ, लेकिन उससे ज़्यादा चुनाव के नतीजे सामने आने पर हुआ। वसुंधरा राजे ने अपनी सरकार की जनता में मौजूद नाराज़गी की जो भरपाई की वह आश्चर्यचकित करने वाली है।
जनता के ख़िलाफ़ लड़ा चुनाव
इस पहेली का हल शायद इस एक सूत्र में है कि इस बार प्रमुख राजनीतिक दल बीजेपी और कांग्रेस एक-दूसरे से चुनाव नहीं लड़ रहे थे बल्कि ये दोनों पार्टियाँ मिल कर जनता के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रही थीं। चुनाव पूरी तरह फ़ॉर्मूला चुनाव बन गया। स्थानीय क्षेत्र में स्थानीय क्षत्रपों का अपना प्रभाव, जातीय समीकरण, संसाधन और स्थानीय अस्मिता का प्रकटीकरण मुख्य चुनाव की धुरी बन गए। चुनाव के मुख्य मुद्दे धुँधला गए। भ्रष्टाचार और सरकार की नाकामी चुनाव के केंद्र में नहीं आ पाई, इसलिए चुनाव प्रचार में दोनों पार्टियों की पिच और असली चुनावी गणित के बीच बहुत फ़र्क़ रहा। सतह पर चुनाव की पिच दिखाई दी। पारंपरिक आरोप-प्रत्यारोप दिखाई दिए और मुद्दों की नुमाइश हुई, लेकिन आख़िरकार चुनावी फ़ॉर्मूले एक बार फिर कामयाब हुए। दोनों पार्टियों की ओर से दो स्तरों पर चुनाव लड़ा गया जिसमें जनता के मुद्दे पूरी तरह धुँधला गए।बदलाव की जो उत्कंठा एक आम मतदाता के मन में दिखाई दी, वह चुनावों में कहीं भी दिखाई नहीं दी। स्थानीय क्षत्रपों के बँधुआ वोट बैंक के सहारे चुनाव लड़ा गया और यह फ़ॉर्मूला कामयाब भी हुआ। जनजातीय बेचैनी कुछ ज्यादा थी उसका एक शुभ संकेत जरूर देखने को मिला और वह है भारतीय ट्राईबल पार्टी का उदय। इस पार्टी की आंशिक सफलता यह बताती है कि जनजातियों के मतदाताओं ने अपने उम्मीदवारों का साथ दिया और अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ी।
धनबल पर चुप रहा आयोग
धनबल एक बार फिर वैसी ही पहेली बन कर उभरा जैसा पिछले चुनाव में उभरा था। और इस पहेली को सुलझाने की कोई कोशिश चुनाव आयोग या उसके तंत्र ने भी नहीं की। पिछले चुनाव में किरोड़ीलाल मीणा एनसीपी के बैनर तले चुनाव लड़े थे और चुनाव में उन्होंने बेशुमार पैसा खर्च किया था। यह अकूत धन उन्होंने कहाँ से खर्च किया, इसकी कोई पड़ताल नहीं हुई। इसी तरह इस चुनाव में हनुमान बेनीवाल ने अपनी पार्टी बना कर चुनाव में अकूत धन खर्च किया। रैलियों पर करोड़ों रुपये खर्च किए और हेलिकॉप्टर से प्रचार किया। इस बार भी चुनाव आयोग ने यह जानने की कोई कोशिश नहीं की कि आखिर उनके पास इतना पैसा कहां से आया।मुख्य राजनीतिक दल कांग्रेस और बीजेपी पिछली बार भी इन क्षत्रपों का अपने लिए इस्तेमाल कर रहे थे और प्रॉक्सी की तरह चुनाव लड़ा रहे थे। इस बार भी इनका इस्तेमाल मुख्य राजनीतिक दलों के प्रॉक्सी की तरह ही हुआ। बसपा वहीं है जहां पिछले चुनाव में थी। माकपा भी उसके आसपास ही है। कुल मिला कर पिछले कई चुनाव की तरह इस बार भी जनता ने सत्ता बेशक बदल दी हो पर राजस्थान की राजनीतिक तासीर में कोई बदलाव देखने को नहीं मिला। बदलाव की बेचैनी में मतदाता को मीडिया की भी कोई मदद नहीं मिली। प्रमुख अख़बारों और टीवी चैनलों के नुमाइंदे विज्ञापनों के पैकेज के बदले अखबारों में स्पेस और टीवी चैनल में स्लॉट बेचते दिखाई दिए।