नेहरू से लेकर राहुल गाँधी तक कांग्रेस कई पीढ़ियों में जी चुकी है और उसने सत्ता में उतार-चढ़ाव के कई दौर भी देखे हैं। नेहरू-गाँधी घराने के नेतृत्व से गुजरते हुए कांग्रेस अब नया नेता चुनने की पसोपेश में है। कांग्रेस इतने लम्बे कालखंड का सफ़र तय कर यहाँ तक पहुँची है कि उसे जानने वाले लोग कहते हैं कि ‘पार्टी की आगे की राह का समाधान उसके इतिहास में ही छुपा है और वहीं से उसे सबक लेना चाहिए।’
राहुल गाँधी कांग्रेस की विचारधारा और उन विचारों पर चलकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा पर विजय हासिल करने की बात करते हैं लेकिन क्या आज के दौर में यह संभव है? इस लड़ाई के परिणाम पर सवालिया निशान तो स्वयं राहुल गाँधी ने अपनी चिट्ठी में ही लगा दिया है। चुनाव आयोग व अन्य सरकारी संस्थानों की निष्पक्षता पर सवालिया निशान और धनबल का जो जिक्र राहुल गाँधी ने किया है वह तो आगे भी जारी ही रहेगा या उसका प्रभाव और अधिक गहरा भी सकता है? तो राह क्या होगी?
लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद राहुल गाँधी जिस बात का बार-बार जिक्र कर रहे हैं, वह यह है कि वह इस चुनाव में संघ और बीजेपी के साथ अकेले लड़ते नज़र आ रहे थे और उनकी पार्टी के नेता भी उनके साथ नहीं खड़े थे। कांग्रेस कार्य समिति की जिस बैठक में राहुल गाँधी ने इस्तीफ़े की बात कही थी, उसमें भी उन्होंने इस बात का जिक्र किया था कि पार्टी के नेता अपने पुत्रमोह में पड़े रहे?
गाँधी-नेहरू घराने में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर सबसे कम समय तक रहने वाले राहुल गाँधी के कार्यकाल को देखें तो उन्होंने दिसंबर 2017 में पद संभालते ही नयी कांग्रेस की बात कहनी शुरू कर दी थी।
मार्च, 2018 में कांग्रेस का महाधिवेशन था। पहली बार कोई नेता मंच पर नजर नहीं आ रहा था। सारे नेता मंच के नीचे लगी कुर्सियों पर बैठे थे। तब राहुल ने कहा था - नए लोगों के लिए कांग्रेस का मंच खाली है। इस बैठक के बाद गोवा के प्रदेश अध्यक्ष शांता राम नाइक ने इस्तीफ़ा दे दिया था।71 साल के शांता राम ने कहा था कि वह राहुल गाँधी से काफ़ी प्रभावित हैं और इसलिए नए लोगों को मौक़ा देने के लिए कुर्सी छोड़ रहे हैं। लेकिन क्या 2019 के लोकसभा चुनाव की कमान कांग्रेस के नए नेताओं के हाथ में थी? नहीं। दरअसल, राहुल गाँधी ने यह सबक भी कांग्रेस के इतिहास से ही सीखकर आजमाने की कोशिश की थी।
साल 1963 का दौर था, चीन से युद्ध हारने के बाद नेहरू दबाव में थे और पार्टी एक के बाद एक तीन उप चुनाव हार गयी थी। आचार्य कृपलानी, राम मनोहर लोहिया और मीनू मसानी जैसे नेहरू के घोर विरोधी चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुँचे थे। पार्टी पर संकट था और उसी समय तमिलनाडु के मुख्यमंत्री कुमारासामी कामराज (के. कामराज) ने यह कहते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था कि पार्टी का संगठन कमजोर पड़ रहा है, इसलिए मैं मुख्यमंत्री की जगह प्रदेश अध्यक्ष बन कर काम करना चाहता हूँ।
नेहरू को कामराज की यह योजना बहुत पसंद आई। उन्होंने इसे पूरे देश में लागू करने का मन बनाया। इस योजना के चलते छह कैबिनेट मंत्रियों और छह मुख्यमंत्रियों को इस्तीफ़ा देना पड़ा। कैबिनेट मंत्रियों में मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री, बाबू जगजीवन राम और एसके पाटिल जैसे लोग शामिल थे। वहीं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रभान गुप्त, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भगवंत राव मंडलोई, ओडिशा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक जैसे मुख्यमंत्रियों ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। बाद में कामराज को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया। लेकिन राहुल गाँधी वह नहीं कर पाए जो कामराज प्लान के तहत नेहरू के दौर में हुआ था।
25 मई को राहुल गाँधी के द्वारा इस्तीफ़े की घोषणा के बाद से 3 जुलाई तक कांग्रेस के जो नेता राहुल गाँधी को मनाने का स्वांग रच रहे हैं, दरअसल कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी अड़चन वे ही हैं।
राहुल गाँधी के कई बार कहने के बाद कि हार की सामूहिक जवाबदेही होनी चाहिए, इसके बाद भी इनमें से अधिकाँश नेता अपना इस्तीफ़ा नहीं दे रहे थे। लिहाजा राहुल गाँधी ने स्पष्ट रूप से भी बोल दिया, ‘मैंने तो अपना इस्तीफ़ा दे दिया है, बाक़ी लोग क्या कर रहे हैं।’ यही अंतर आ गया है नेहरू के दौर की कांग्रेस और आज की कांग्रेस में। उस दौर में कामराज ने यह कहते हुए प्रधानमंत्री पद स्वीकार नहीं किया था कि उन्हें हिंदी और अंग्रेजी नहीं आती है, इसलिए वह इस पद के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे। राहुल गाँधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, ऐसे लोगों को तलाशने की, जो ख़ुद से ज़्यादा पार्टी को अहमियत देते हैं? उन्हें कांग्रेस की विचारधारा पर चलने से पहले कांग्रेस के सिपाही तलाशने होंगे?