पहले ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और बाद में ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ मात्र दो रेखाएं भर नहीं हैं जो भारत के भौतिक धरातल पर ‘दक्षिण से उत्तर’ और ‘पूर्व से पश्चिम’ की ओर जाती हैं, बल्कि इन दोनो ने देश को एक संजीदा और एकताबद्ध करने वाला नेतृत्व प्रदान करने का काम किया है। यह यात्राएं नेतृत्व निर्माण की गहरी रेखाएं हैं जिन्हे नकारना अब असंभव है। पूरी दुनिया के इतिहास में लोकतंत्र के नाम पर इतनी कठिन परिस्थितियाँ किसी भी नेता के सामने नहीं आईं जितनी राहुल गाँधी के सामने ‘खड़ी की गईं’।
पाकिस्तान से भी बदतर स्थिति में खड़ा भारत का मीडिया राहुल गाँधी के साथ दुश्मन जैसा व्यवहार कर रहा है, उन्हे आहत करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता और खुलकर सत्ता के साथ खड़ा है। मीडिया में किसी को ‘निष्पक्षता’ ने डंक मारा है तो किसी को ‘निर्लज्जता’ ने, हर किस्म का मीडिया भारत में उपस्थित है लेकिन हर तरह से असरहीन है। मुझे व्यक्तिगत रूप से यह लगता है कि राहुल गाँधी की लड़ाई सिर्फ कॉंग्रेस को बचाने की नहीं है। यह लड़ाई है इस देश, को बचाने की। भारत में लोकतंत्र के रास्ते से कॉंग्रेस की नहीं बल्कि स्वयं ‘लोकतंत्र’ की ही विदाई की तैयारी की जा रही है।
लेकिन इस बीच सुखद यह है कि राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ अपना असर दिखाने लगी है। जहां एक तरफ काँग्रेस के कार्यकर्ताओं में गतिशीलता और विश्वास दिख रहा है वहीं भाजपा नेतृत्व लगातार खुद पर से भरोसा खोता जा रहा है। यह यात्रा मध्य प्रदेश में अपना सफर तय कर चुकी है। मध्य प्रदेश में राहुल गाँधी की यह यात्रा 8 लोकसभा क्षेत्रों गुजरी। 2023 के विधानसभा चुनावों के आँकड़े यह स्पष्ट संदेश दे रहे हैं कि इन 8 में से 5 सीटों- धार, रतलाम, मुरैना, ग्वालियर में काँग्रेस अच्छी स्थिति में होगी। यहाँ तक की देवास की सारी सीट हार चुकी काँग्रेस यहाँ भी लड़ाई में रहेगी। बाकी मांडला भी ‘लड़ाई’ के लिहाज से बीजेपी के लिए मुश्किल सीट रहने वाली है। यदि छिंदवाड़ा की जनता भी साथ रह जाती है तो काँग्रेस मध्यप्रदेश में 2019 की मात्र एक सीट के मुकाबले इस बार 4-5 सीटों में जीत दर्ज कर सकती है। जीत का अनुमान सिर्फ चुनावी आंकड़ों के आधार पर नहीं बल्कि काँग्रेस के कार्यकर्ताओं में आए उत्साह से भी है।
द हिन्दू में छपी मेहुल मालपानी की एक रिपोर्ट यह बता रही है कि जो कार्यकर्ता 2023 विधानसभा चुनावों के परिणामों से निराश थे उनमें भारत जोड़ो यात्रा ने जोश भर दिया है। मध्य प्रदेश में 650 किमी की अपनी यात्रा में राहुल गाँधी ने ‘अग्निवीर’ और जाति जनगणना जैसे मुद्दों से जनता को अपनी ओर आकर्षित किया है। पार्टी के कार्यकर्ता यात्रा में शामिल होने के लिए सैकड़ों किमी दूर से आए थे। मध्य प्रदेश में यात्रा आने से पहले के माहौल के बारे में मंदसौर के एक काँग्रेस सभासद ने कहा कि “स्थितियाँ यहाँ तक आ गई थीं हम जब भी लोकल मीटिंग आयोजित करते थे तो कार्यकर्ता आते ही नहीं थे। सभी बीजेपी के कार्यकर्ताओं से डरे हुए थे..लेकिन आज स्थितियाँ बदल चुकी है”।
मध्यप्रदेश के काँग्रेस कार्यकर्ता खुलकर कह रहे हैं कि चम्बल, भिंड, मुरैना जैसे इलाकों में जाकर वो सरकार द्वारा लाई गई ‘अग्निवीर’ जैसी अन्यायपूर्ण योजना के खिलाफ लोगों को लामबंद करके वोट मांग सकते हैं। काँग्रेस में यह उत्साह सिर्फ मध्यप्रदेश तक सीमित नहीं है। उत्तर-पूर्व के असम राज्य को देखिए। वहाँ सीधे काँग्रेस कार्यकर्ताओं के उत्साह को देखने की बजाय असम में बीजेपी के नेतृत्व के भय को मापने की जरूरत है। बीजेपी के भय को भी काँग्रेस के उत्साह के रूप में चिन्हित किया जा सकता है।
एक तरफ असम के मुख्यमंत्री हिमन्त बिस्व सरमा यह कह रहे हैं कि- राहुल गाँधी की असम में यात्रा से बीजेपी को बहुत फायदा हुआ है, अगर राहुल असम में न आते तो शायद नुकसान हो जाता। लेकिन सीएम सरमा की कार्यपद्धति कुछ और ही संकेत दे रही है। जैसे ही यात्रा असम पहुंची थी सरमा इतने घबरा गए थे कि राहुल गाँधी के मंदिर दर्शन कर लेने के विचार मात्र से उनमें असुरक्षा आ गई थी। सीएम साहब राहुल गाँधी के खिलाफ ‘बाद में’ FIR और गिरफ़्तारी करने की धमकी दे रहे थे। लेकिन दृश्य वैसा नहीं है जैसा बीजेपी दिखाने की कोशिश में है।
वास्तव में राहुल गाँधी की यात्रा से बीजेपी की असुरक्षा लगातार बढ़ रही है। अभी बीते दिनों, असम काँग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष राणा गोस्वामी काँग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल होने के लिए दिल्ली रवाना हुए थे। और अब असम कांग्रेस प्रमुख भूपेन कुमार बोरा और पार्टी नेता देबब्रत सैकिया को राज्य पुलिस के आपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) ने गुवाहाटी में राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान हुई झड़प के संबंध में पूछताछ के लिए बुलाया है। राजनैतिक रूप से अपढ़ भी बता सकता है कि असम बीजेपी में खलबली मची हुई है, उन्हे लगता है कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे राजनैतिक वर्चस्व की सुई उनकी तरफ ही टिकी हुई दिखे। लेकिन सीएम सरमा यह नहीं समझ रहे हैं कि ‘भय’ की भाषा को कभी छिपाया ही नहीं जा सकता और असम बीजेपी में यह भय यात्रा पहुँचने के बाद ही शुरू हो गया था।
भय के अपने ‘कम्पन्न’ होते हैं, कम्पन्न का निर्णय प्रक्रिया में अपना अलग ही दखल होता है, यह आसानी से देखा जा सकता है। कोई इसे अगर चुनाव की तैयारी से जोड़ना चाहता है तो ठीक है लेकिन अगर यह तैयारी भी है तो इसमें असुरक्षा निहित है और आत्मविश्वास की कमी जाहिर है। इसे स्वीकार करने में बीजेपी को शर्म नहीं महसूस करनी चाहिए कि जिसे पप्पू घोषित करने में इतनी मेहनत कर डाली उसने बीजेपी की ‘खरबों’ की तैयारी में ‘न्याय’ की कील ठोंक दी है। और अब उनकी तैयारी दरक रही है।
एक तरफ असम में बीजेपी भय में है तो दूसरी तरफ मध्यप्रदेश में काँग्रेस कार्यकर्ता उत्साह में। वहीं उत्तर प्रदेश में लगभग अपना सबकुछ खो चुकी काँग्रेस 17 सीटों में न सिर्फ चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है बल्कि खबर है कि राहुल गाँधी भी चुनावों के लिए उत्तर प्रदेश का रुख कर सकते हैं। यूपी में राहुल गाँधी ने जिस मुखरता से उन युवाओं को सुना, समझा और कंधा दिया जिन्हे सरकार से लठियाँ मिली थीं, उससे न सिर्फ प्रतियोगी परीक्षा देने वाला युवा बल्कि हर वो युवा जिसने 5 किलो अनाज को अपनी नियति मान लेना, अस्वीकार कर दिया है, वह राहुल के साथ आ खड़ा हुआ है।
भाजपा के सामने चुनौती यह है कि या तो देश की प्रगति में हिस्सेदारी सभी युवाओं को मिले(न कि सिर्फ दो उद्योगपतियों को) नहीं तो युवा सत्ता की जिम्मेदारी बदल देंगे। युवा 30 लाख खाली पड़ी नौकरियों को भरने की मांग कर रहा है, समृद्धि की मांग कर रहा है, रोजगार की स्थितियों में सुधार करने की मांग कर रहा है और सबसे अहम बात युवा धर्म के आधार देश की रूह पर किए जा रहे हमले को रोकने की मांग कर रहा है। यदि वर्तमान सरकार यह सब देने में सक्षम नहीं हुई तो लोगों के सामने अब राहुल गाँधी के रूप में मजबूत, युवा, लोगों को सुनने वाला, जवाबदेह और गरीबों के साथ खड़ा रहने वाला विकल्प मिल चुका है।
असली भय का सामना तो बीजेपी को अभी करना बाकी है। राहुल गाँधी की यात्रा जब गुजरात पहुंचेगी तब खलबली मचना शुरू होगी। इस खलबली के कुछ हाईलाइट अर्जुन मोधवाडिया के बीजेपी में शामिल होने और चुनाव आयोग द्वारा ‘सिर्फ’ राहुल को चेतावनी देने के कारनामों से समझा जा सकता है। कहीं न कहीं मोदी जी जानते हैं कि गुजरात में इस बार वैसा परिणाम नहीं आएगा जैसा 2019 में आया था इसलिए यहाँ भी वह सब कुछ करने पर जोर दिया जा रहा है जिससे राहुल गाँधी को अकेला और कमजोर महसूस कराया जा सके। लेकिन जैसा कि अमेरिकी सेना चीफ ऑफ स्टाफ रहे डगलस मैकआर्थर ने कहा था कि “एक सच्चे नेता में अकेले खड़े रहने का आत्मविश्वास, कठोर निर्णय लेने का साहस और दूसरों की जरूरतों को सुनने की करुणा होती है।” राहुल को बिकते और डरते हुए नेताओं के भरोसे अकेला दिखाने और आत्मविश्वास को तोड़ने की रणनीति का कामयाब होना असंभव है।
राहुल गाँधी भारतीय राजनीति के वह नेता है जिसको मित्रों ने धोखा दिया, दशकों तक पार्टी से सिर्फ ‘लेते रहने वालों’ ने धोखा दिया। जिसके पीछे हर वो सरकारी और प्राइवेट एजेंसी लगा दी गईं हों ताकि उन्हे बदनाम किया जा सके, जिससे लड़ने और टकराने के लिए सत्ता ने पूरे मीडिया को अपने कब्जे में ले लिए हो ताकि राहुल की किसी भी बात को देश तक पहुँचने से रोका जा सके। राहुल के खिलाफ संवैधानिक संस्थाओं का रवैया भी दोषपूर्ण कर दिया गया।
जिस राहुल गाँधी को मंदिर तक जाने से रोक दिया गया, पूजा अर्चना के अधिकारों से वंचित करने की कोशिश की गई हो, ऐसे नेता को आप क्या कहेंगे? आप जो कहना चाहें कहें, मुझे तो वह एक आशा के रूप में दिखता है। एक ऐसे राष्ट्र की आशा जहां सत्तालोलुप नेताओं ने अपनी मातृ पार्टियों को कुचल डाला, जहां सत्ता की खामोशी ने अल्पसंख्यकों को हाशिये पर धकेल दिया, जहां धर्म और हिंसा के बीच अंतर समाप्त होता जा रहा है जहां साधुता अवसरवाद के नीचे दब गई है, जहां देश का प्रधानमंत्री राज्य सरकारों के राजनैतिक रुख को देखकर महिला अन्यायों पर अपनी जुबान खोलता हो, जहां जज को देखकर न्याय का अंदाजा लगाया जा सकता है, जहां ‘अपनों’ को कानून तोड़ने की भी आजादी हो और ‘विरोधियों’ के मुँह सिलने की तैयारी हो।
भारत एक अजीबो-गरीब स्थिति में आ फंसा है जहां देश का प्रधानमंत्री सत्ता के लिए ‘डबल इंजन’ के नाम पर राज्यों में वोट की मांग करता है, अपना चेहरा दिखाता है और वोट अपने नाम पर माँगता है लेकिन जब दो दलित लड़कियों का गैंगरेप और उसके बाद उनके द्वारा आत्महत्या कर ली जाती है(घाटमपुर) और कुछ दिन बाद उनके पिता द्वारा भी आत्महत्या कर ली जाती है, तब बिल्कुल गैर-जिम्मेदाराना तरीके से इस बात पर एक शब्द भी नहीं बोलता और न ही डबल इंजन की राज्य इकाई से एक सवाल भी पूछता है! यह दोहरा व्यक्तित्व भारत के भविष्य के लिए ठीक नहीं। संदेशखाली और घाटमपुर को देखकर यह लगता है कि जब प्रधानमंत्री बलात्कार पर भी राजनीति करने लगे तो आम इंसान के पास क्या रास्ता है?
रास्ता राहुल गाँधी है! जो अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए हजारों किमी चला है किसी मंदिर या अन्य एजेंडे के लिए नहीं। राहुल के लिए 6800 शिक्षकों के एक लोकल लेकिन आवश्यक मुद्दे से लेकर भारत-चीन सीमा तक के मुद्दे जरूरी हैं। उसे स्वयं को पेश करने के लिए किसी धर्म की आलोचना नहीं करनी है, न ही उसका जनाधार दो समुदायों के बीच झगड़ों पर आश्रित है। उसे तो ‘मुहब्बत की दुकान’ खोलनी है। राहुल गाँधी के जैसा नेता मिलना अभी असंभव है क्योंकि भारत में जो नेतृत्व पनप चुका है वो संस्थाओं के ढेर और सांप्रदायिक हिंसा से अपनी भूख मिटा रहा है। मेरे विचार में यह सब आज के भारत की तथ्यात्मक स्थिति है और जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में "तथ्य तो तथ्य हैं वो आपकी पसंद के हिसाब से गायब नहीं होंगे।"
भारत, राहुल गाँधी को सिर्फ एक व्यक्ति या नेता के रूप में देखे जाने की गलती सहन करने की स्थिति में नहीं है। 2024 में की गई कोई भी गलती भारत को हमेशा के लिए बदल सकती है, वह बदलाव ऐसा भी हो सकता है जिसमें घुटन ही नियति हो और शोषण ही संविधान! क्या हम तैयार हैं?