लगभग साढ़े चार दशक बाद एक बार फिर भारत का छात्र और नौजवान समुदाय अंगड़ाई लेता और एक बड़े परिवर्तन का वाहक बनता दिख रहा है। नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के रूप में सरकार के दो निहायत ग़ैर-ज़रूरी और संविधान विरोधी क़दमों के ख़िलाफ़ देश के पंद्रह से भी ज्यादा राज्यों के विभिन्न शहरों में बीस से भी अधिक बड़े विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा से संबंधित प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्र सड़कों पर निकल आए हैं।
कई जगह आंदोलनों ने हिंसक रूप ले लिया है। देश की राजधानी दिल्ली में तो खुद पुलिसकर्मी शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करते छात्रों की पिटाई करते नज़र आए हैं। यही नहीं, पुलिस ने कुलपति की इजाजत के बग़ैर यूनिवर्सिटी कैंपस और लाइब्रेरी में घुसकर भी छात्रों की बेरहमी से पिटाई की है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि आंदोलन करने वालों को उनकी पोशाक से पहचाना जा सकता है। प्रधानमंत्री की इसी बात को उनकी पार्टी के लोग थोड़ा ज्यादा स्पष्ट भाषा में सोशल मीडिया में कह रहे हैं, खासकर दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों के विरोध-प्रदर्शन की तुलना वे मुसलिम लीग के 1946 के डायरेक्ट एक्शन से कर रहे हैं।
कई मुद्दों को लेकर आक्रोशित हैं छात्र
बहरहाल, छात्रों का यह आंदोलन सीएए और एनआरसी के विरोध में ज़रूर शुरू हुआ है लेकिन उनका आक्रोश सरकार के इन संविधान विरोधी और विभाजनकारी क़दमों के ख़िलाफ़ ही नहीं है। छात्रों का गुस्सा और भी कई बातों को लेकर फूट रहा है जो लंबे समय से विभिन्न कारणों से उनके अंदर खदबदा रहा था। उच्च शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों की घटती सीटें, शिक्षण तथा अन्य शुल्कों में बेतहाशा बढ़ोतरी, शिक्षा का व्यापक पैमाने पर निजीकरण, रोजगार के घटते अवसरों के चलते शिक्षा पूरी कर लेने के बाद अंधकार भरा भविष्य आदि तमाम ऐसे मुद्दे हैं, जिनकी वजह से छात्र और नौजवान हताश-निराश और गुस्से से भरे हैं।
इसके अलावा कुछ विश्वविद्यालयों में वहां के प्रशासन द्वारा छात्रों के साथ जातीय और सांप्रदायिक आधार पर भेदभाव करने और मानसिक तौर पर उनका उत्पीड़न किए जाने की भी कई घटनाएं हाल के वर्षों में हुई हैं, जिसके चलते रोहित वेमुला और पायल तडावी सहित कुछ छात्रों को आत्महत्या जैसा क़दम उठाने के लिए भी मजबूर होना पड़ा है। इस सिलसिले में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र नजीब का चार साल पहले ग़ायब होना आज भी रहस्य बना हुआ है।
छात्रों और नौजवानों के इस ग़ुस्से और प्रतिरोध को दबाने और उन्हें बदनाम करने का प्रयास उसी तरह किया जा रहा है, जिस तरह करीब साढ़े चार दशक पहले गुजरात में हुए छात्रों के नवनिर्माण आंदोलन को और उसके बाद बिहार तथा देश के अन्य राज्यों में लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) की अगुवाई में हुए आंदोलनों को दबाने और बदनाम करने के लिए तत्कालीन सरकारों ने किया था।
यह बात 46 वर्ष पुरानी है। यही दिसंबर का महीना था। गुजरात में मोरबी के एलडी इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों को जैसे ही पता चला कि हॉस्टल के मैस की फीस में 20 फीसदी की बढ़ोतरी कर दी गई है, वे भड़क उठे। उन्होंने इस फीस बढ़ोतरी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया। शुरुआती दौर में उनका विरोध कॉलेज कैंपस तक सीमित रहा लेकिन जब विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनके विरोध को सिरे से नजरअंदाज किया तो वे कैंपस से बाहर सड़कों पर आ गए। महंगाई से त्रस्त जनता भी उनके आंदोलन से जुड़ गई।
देखते ही देखते यह आंदोलन पूरे गुजरात में फैल गया। आंदोलन को मोरारजी भाई देसाई की कांग्रेस (संगठन), सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और भारतीय लोकदल जैसी पार्टियों का समर्थन भी मिल गया।
बिहार से गुजरात आए जेपी
आंदोलन का समर्थन करने के लिए बिहार से जयप्रकाश नारायण भी गुजरात आ गए। विपक्ष के ज्यादातर विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफे दे दिए। राज्य के तमाम मजदूर संगठन भी आंदोलन में शामिल हो गए। पूरे प्रदेश भर में जगह-जगह राज्य सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन होने लगे।
चिमनभाई पटेल राज्य के मुख्यमंत्री थे। उनकी सरकार पर और ख़ुद उन पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। आंदोलन की लपटें दिल्ली तक पहुंचीं। संसद का घेराव किया गया और प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया गया।
कुल मिलाकर आंदोलन 73 दिन चला। 8053 लोग गिरफ्तार हुए। 184 को आंतरिक सुरक्षा क़ानून (मीसा) के तहत निरुद्ध किया गया। पुलिस ने 1405 राउंड फायरिंग की, जिसमें 88 लोग मारे गए और 312 जख्मी हुए। 1654 बार आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज हुआ। 4342 आंसूगैस के गोले छोड़े गए। आख़िरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को झुकना पड़ा। चिमनभाई पटेल की सरकार को बर्खास्त कर गुजरात विधानसभा निलंबित कर दी गई। राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। बाद में विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस की बुरी हार हुई। विपक्षी दलों के गठबंधन जनता मोर्चा की सरकार बनी, जिसे महज नौ महीने बाद ही बर्खास्त कर दिया गया।
अभी गुजरात आंदोलन की आग ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि बिहार में तत्कालीन अब्दुल गफूर सरकार के भ्रष्टाचार और हॉस्टल की फ़ीस बढ़ाने के विरोध में छात्रों का आंदोलन शुरू हो गया।
पटना से शुरू हुआ आंदोलन देखते-देखते ही पूरे बिहार में फैल गया। छात्रों ने जयप्रकाश नारायण से आंदोलन की अगुवाई करने का अनुरोध किया। जेपी इस आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए इस शर्त पर तैयार हुए थे कि आंदोलन के दौरान छात्र किसी भी तरह की हिंसक कार्रवाई नहीं करेंगे। 'हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा’, 'लाठी गोली सेंट्रल जेल, जालिमों का अंतिम खेल’, 'दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे-कितनी ऊंची जेल तुम्हारी, देखी है और देखेंगे’....ये उस आंदोलन के मुख्य नारे थे।
‘संपूर्ण क्रांति’ की संकल्पना
जेपी के नेतृत्व को संभालते ही यह आंदोलन बिहार के बाहर देश के दूसरे हिस्सों में भी शुरू हो गया। इसी आंदोलन के दौरान जेपी ने अपनी ‘संपूर्ण क्रांति’ की संकल्पना देश के सामने पेश की। उन्होंने पुलिस और सैन्य बलों से सरकार के अनैतिक और अलोकतांत्रिक आदेशों को नकारने का आह्वान किया। जिस तरह आज मोदी सरकार छात्र आंदोलन को एक समुदाय विशेष का आंदोलन करार दे रही है और आंदोलन का समर्थन कर रहे विपक्षी दलों पर पाकिस्तानी बोली बोलने का आरोप लगा रही है, उसी तरह उस समय इंदिरा गाँधी और उनकी सरकार के मंत्री भी जेपी और अन्य विपक्षी नेताओं पर सीआईए के हाथों खेलने का आरोप लगाया करते थे।
आंदोलन से निबटने के लिए ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को आपातकाल का सहारा लेना पड़ा। पूरे 19 महीने तक देश को एक तरह से क़ैद खाने में तब्दील कर दिया गया था। इस आंदोलन की परिणति इंदिरा गाँधी और कांग्रेस की तानाशाह हुकूमत के पतन के रूप में हुई थी।
आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीयकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है। सारे अहम फ़ैसले संसदीय दल तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते। विपक्ष को देशद्रोही करार दिया चुका है, लिहाजा उससे सलाह-मशविरा करने का तो सवाल ही नहीं उठता। सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है। इस प्रवृत्ति की ओर विपक्षी नेता और तटस्थ राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं, बल्कि सत्तारुढ़ दल से जुडे़ कुछ वरिष्ठ नेता भी यदा-कदा इशारा करते रहते हैं।
आपातकाल को जनता के मौलिक अधिकारों, मीडिया की आजादी के अपहरण, विपक्षी दलों के क्रूरतापूर्वक दमन के साथ ही संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका समेत तमाम संवैधानिक संस्थाओं के मान-मर्दन के लिए ही नहीं, बल्कि घनघोर व्यक्ति-पूजा और चापलूसी के लिए भी याद किया जाता है। सवाल है कि क्या आपातकाल को दोहराने का ख़तरा अभी भी बना हुआ है
जून, 2015 में आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए बीजेपी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था। हालांकि आडवाणी इससे पहले भी कई मौकों पर आपातकाल को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे थे, मगर यह पहला मौका था जब उनके विचारों से आपातकाल की अपराधी कांग्रेस नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी बीजेपी अपने को हैरान-परेशान महसूस करते हुए बगलें झांक रही थी। आडवाणी का यह बयान यद्यपि चार वर्ष से अधिक पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता चार वर्ष पहले से कहीं ज्यादा आज महसूस की जा रही है।