प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, को लाल किले से दिए गए अपने भाषण के जरिये 2024 के आम चुनाव में अपनी पार्टी की जीत और प्रधानमंत्री के रूप में लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए दावा किया है। उनके इस दावे पर काफी कुछ कहा जा चुका है। इस दावे में देशवासियों से अधिक खुद को आश्वस्ति देने का भाव है। इस दावे में दो बातें अंतर्निहित है, जिनका देश की राजनीति के साथ ही भाजपा की आंतरिक राजनीति से भी संबंध है। इन पर गौर करने की जरूरत है।
यह कुछ-कुछ वैसा ही भरोसा है, जब 2014 के आम चुनाव के दौरान और उसके बाद तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष और अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह अक्सर दावा करते आए हैं कि हम यहां पचास साल तक राज करेंगे।
यह भरोसा प्रधानमंत्री की छवि निर्माण को केंद्र में रखकर तैयार की गई नीतियों, कार्यक्रमों और हिंदुत्व की प्रयोगशाला से निकले सत्व से बना है। ये दो परियोजनाएं, जैसा कि अंग्रेजी में कहते हैं, वर्क इन प्रोगेस हैं। मोदी सरकार यह खयाल रखती है कि सिर्फ केंद्रीय योजनाएं ही नहीं, बल्कि जिनमें राज्यों की भूमिका भी है, उन सबमें प्रधानमंत्री का नाम विशेष रूप से जुड़ा हो। उन योजनाओं में भी जहां केंद्र और राज्य दोनों को धन देना होता है, उसमें भी। मसलन, प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) को ही देख लें, जिसमें 60 फीसदी राशि केंद्र सरकार देती है और 40 फीसदी राज्य सरकारें। संविधान में अंतर्निहित भारतीय संघ की परिभाषा के दायरे में केंद्र और राज्य की अलग-अलग भूमिकाओं से उसे लेना-देना नहीं है।
प्रधानमंत्री की छवि निर्माण का सबसे बड़ा उदाहरण तो महामारी के दौरान देखा गया, जब टीकाकरण के सर्टिफिकेट तक में प्रधानमंत्री की तस्वीर लगी होती थी। प्रधानमंत्री केंद्रित अभियान की ताजा कड़ी है, प्रधानमंत्री भारतीय जन उर्वरक परियोजना। यह सूची बहुत लंबी है। वंदे भारत ट्रेनों को भी प्रधानमंत्री ही हरी झंडी दिखाते हैं, जबकि किसी भी फ्लैगशिप योजना की शुरुआत के बाद यह काम संबंधित मंत्री भी कर सकते हैं।
संसद के शिलान्यास और उद्घाटन से लेकर राम मंदिर के शिलान्यास तक में प्रधानमंत्री मोदी की उपस्थिति उनकी छवि निर्माण का ही हिस्सा हैं। प्रधानमंत्री की छवि निर्माण का विस्तार व्हाट्सअप के जरिये इस हद तक हो चुका है कि रोजाना आपको ऐसे संदेश मिल जाएंगे, जिनमें उन्हें महामानव की तरह पेश किया जाता है।
इसमें मुख्यधारा की मीडिया की भी अहम भूमिका है, वरना नोटबंदी जैसी नाकामी पर, जिससे आज तक देश उबर नहीं पाया है, सरकार से कोई सीधे सवाल नहीं करता। नोटबंदी से सर्वाधिक असर एमएसएमई और उससे जुड़े करोड़ों कामगारों पर पड़ा था, लेकिन कोई उस प्रधानमंत्री मुद्रा लोन के बारे में भी नहीं पूछता, जिसमें 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक औसत ऋण पचास हजार रुपये भी नहीं था।
दरअसल यह पूरा अभियान एक तरह से समूची राजनीति खासकर चुनावों को प्रधानमंत्री पर केंद्रित करने के अभीष्ट पर टिका है। वास्तविकता यह है कि 2014 के बाद से भाजपा प्रायः सारे चुनाव चाहे वह लोकसभा का हो या राज्यों की विधानसभा के चुनाव हों, प्रधानमंत्री के चेहरे पर ही लड़ती आई है। बल्कि यह कहना ठीक होगा कि वह चुनावों को अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर लड़ रही है, जिसमें मतदाताओं से कहा जाता है कि वह भाजपा को नहीं सीधे मोदी को वोट दे रहे हैं।
लोकसभा चुनावों के संदर्भ में देखें, तो भारत में आज भी चुनावी जीत के लिए कुल मतों के पचास फीसदी की भी जरूरत नहीं पड़ती। मसलन 2019 के चुनाव को ही देखें, तो भाजपा को 37.76 फीसदी वोट मिले थे और उसने 303 सीटें जीती थीं। तब विपक्ष बिखरा हुआ था। इस बार विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ में 26 दल शामिल हैं और उनमें भाजपा विरोधी मतों को रोकने के लिए सीटों पर समझौता हो जाता है, तो निश्चित रूप से इसका असर नतीजों पर पड़ेगा। कितना अभी नहीं कहा जा सकता। खुद प्रधानमंत्री इंडिया पर जिस तरह हमलावर हैं, उसके पीछे विपक्ष के इस गणित से उपजी चिंता भी होगी।
कल्पना कीजिए कि यदि महाराष्ट्र (48), पश्चिम बंगाल (42), बिहार (40), तमिलनाडु (39), कर्नाटक (28), पंजाब (13), हरियाणा (10) और दिल्ली (07) की कुल 227 सीटों में भाजपा या एनडीए के मुकाबले इंडिया एक-एक उम्मीदवार उतारता है, तो क्या स्थिति हो सकती, जहां 2019 में भाजपा को 92 सीटें मिली थीं? मैंने सिर्फ इन्हीं राज्यों को क्यों चुना तो इसकी एक वजह यह है कि जिन तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अभी विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होता है और इन राज्यों की लोकसभा की 65 सीटों में से तीन सीटें ही कांग्रेस जीत सकी थी। इसी तरह से सर्वाधिक 80 सीटों वाला उत्तर प्रदेश भाजपा की सफल प्रयोगशाला है, जहां सिर्फ एक के मुकाबले एक उम्मीदवार के साथ ही विपक्ष को नया कथानक भी गढ़ने की जरूरत पड़ेगी। कर्नाटक इसमें इसलिए हैं क्योंकि वहां कांग्रेस का जनता दल (एस) से तालमेल था और अब जनता दल एस भाजपा के साथ है।
जैसा कि मैंने लेख की शुरुआत में कहा है कि प्रधानमंत्री का तीसरे कार्यकाल के लिए दावा खुद को आश्वस्त करने के लिए अधिक है। जैसा कि अब तक ‘इंडिया’ ने संकेत दिए हैं, वह न सिर्फ एकजुट होकर उम्मीदवार उतारना चाहता है, बल्कि जमीनी स्तर पर भी एकजुटता कायम रखना चाहता है। वास्तविकता यह है कि ‘इंडिया’ की बैठकों में जो सामने दिख रहा है, उससे कहीं अधिक परदे के पीछे भी चल रहा है।
अब बात प्रधानमंत्री के तीसरे कार्यकाल के दावे से भाजपा की आंतरिक राजनीति से संबंध की बात। प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले से यह दावा करते हुए जाने अनजाने भाजपा के भीतर 2024 को लेकर उनके उत्तराधिकारी के सवाल को भी खारिज कर दिया है! मई 2024 के चुनाव के समय प्रधानमंत्री मोदी 73 वर्ष आठ महीने के हो चुके होंगे यानी भाजपा के मार्गदर्शक मंडल की 75 वर्ष की उम्र से करीब सवा साल कम। मार्गदर्शमंडल को लेकर भाजपा के नीतिगत फैसले के आलोक में यह पूछा जा सकता है कि क्या प्रधानमंत्री लाल किले से अपने तीसरे कार्यकाल में सवा साल के लिए दावा कर रहे थे?
इस प्रश्न का उत्तर भाजपा के पास होगा।
असल में 2024 में इस दावे के साथ ही इस बात की भी परीक्षा होनी है कि मई, 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश के ऑपरेटिंग सिस्टम को बदलने का जो अभियान शुरू किया गया था, क्या वह अपनी पूर्णता को प्राप्त करेगा या फिर विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ उसे कंट्रोल आल्ट डिलीट कर देगा?
( सुदीप ठाकुर स्वतंत्र पत्रकार और दस साल जिनसे देश की सियासत बदल गई के लेखक हैं)