बीएसपी प्रमुख मायावती ने एक तरफ़ जहाँ लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने का एलान किया है, वहीं इशारों-इशारों में प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी भी पेश कर दी है। मायावती के लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने का एलान के बाद दलित समाज में बेचैनी दिखी तो मायावती ने फ़ौरन ट्वीट करके कहा कि दलित समाज घबराए नहीं। साल 1995 और 97 में जब वह मुख्यमंत्री बनी थींं तब भी उन्होंने विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा था। प्रधानमंत्री बनने के लिए किसी सदन का सदस्य होना ज़रूरी नहीं है। प्रधानमंत्री बनने के बाद 6 महीने के भीतर लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य बनना ज़रूरी है।
मायावती के अलावा किसी और नेता ने प्रधानमंत्री पद के लिए इस तरह दावेदारी नहीं ठोकी है। हालाँकि मायावती के अलावा ममता बनर्जी और राहुल गाँधी भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। लेकिन इनमें से कोई भी मायावती की तरह बेबाक तरीक़े से दावेदारी ठोकने की हिम्मत नहीं दिखा पाया। मायावती ने दलित समाज को संदेश देने की कोशिश की है कि वे एकजुट होकर बीएसपी को ही वोट दें। पिछले 5 साल में मोदी सरकार के दौरान दलितों पर हुए अत्याचारों की वज़ह से मोदी सरकार के ख़िलाफ़ दलितों में बेहद ग़ुस्सा है। इसी ग़ुस्से को भुनाने की कोशिश मायावती कर रही हैं। मायावती चुनावों में चर्चा का अहम केंद्र बिंदु बन गई हैं।
इस चुनाव में मायावती सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नज़रें गड़ाए हुए हैं। उनके तेवर भी उसी हिसाब से तीखे हैं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि केंद्र और यूपी में सत्तारूढ़ बीजेपी से ज़्यादा वह कांग्रेस पर हमलावर हैं।
कांग्रेस के ख़िलाफ़ तीखे तेवर मायावती के संघर्ष के शुरुआती दिनों की याद दिला रहे हैं। वह दौर 1984-1989 का था। उस वक्त केंद्र और उत्तर प्रदेश की सत्ता कांग्रेस के हाथ में थी। मायावती एमपी बनने की कोशिश कर रही थींं। उस दौर में राजीव गाँधी प्रचंड बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने थे। कांग्रेस 1984 के लोकसभा चुनाव में 415 सीटें जीती थीं। तब प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का जलवा आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जलवे से कहींं ज़्यादा था। तब लगता था कि कांग्रेस का यह सूर्य कभी अस्त ही नहीं होगा। ऐसे मुश्किल हालात में मायावती 5 साल में 4 लोकसभा चुनाव लड़कर लोकसभा पहुँची।
मायावती का पहला चुनाव
साल 1984 में बीएसपी के गठन के बाद हुए पहले लोकसभा चुनाव में ही मायावती ने लोकसभा पहुँचने की कोशिश शुरू कर दी थी। मायावती ने पहला चुनाव मुज़फ़्फ़रनगर की कैराना लोकसभा सीट से लड़ा था। पहले ही चुनाव में एक नयी नवेली पार्टी की उम्मीदवार के तौर पर मायावती 44,444 वोट पा गयी थींं। उस चुनाव में बीएसपी के टिकट पर लड़े तमाम उम्मीदवारों के मुक़ाबले मायावती को सबसे ज़्यादा वोट मिले थे। इसी चुनाव के बाद कांशीराम ने ठान लिया था कि उन्हें अपनी पार्टी में मायावती को ही आगे बढ़ाना है। इस चुनाव में कांग्रेस के चौधरी अख़्तर हसन जीते थे। वह कैराना की मौजूदा सांसद तबस्सुम हसन के ससुर थे।
- यह भी अजीब इत्तेफ़ाक है। जिन चौधरी अख़्तर हसन के सामने मायावती अपना पहला चुनाव हारी थीं उन्हीं की पुत्र-बहू को उन्होंने समर्थन देकर 2018 में हुए लोकसभा के उप-चुनाव में लोकसभा पहुँचाया।
बिजनौर की ओर रुख़
कैराना लोकसभा सीट पर मायावती की चुनाव लड़ने की क्षमता को देखते हुए कांशीराम ने बिजनौर का रुख़ किया। दरअसल, हुआ यह कि 1984 में बिजनौर से जीते गिरधारी लाल का चुनाव के कुछ दिनों बाद ही निधन हो गया। यहाँ उप-चुनाव होने थे। तब बिजनौर सुरक्षित सीट हुआ करती थी। 1984 में राम विलास पासवान बिहार की रोसड़ा लोकसभा सीट से चुनाव हार गए थे। तब लोकदल ने राम विलास पासवान को बिजनौर से चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया। कांग्रेस ने अपने दिग्गज नेता बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार को विदेश सेवा की नौकरी से इस्तीफ़ा दिला कर बिजनौर से मैदान में उतारा। इसी चुनाव में कांशीराम ने मायावती को भी मैदान में उतार दिया।
इस तरह आज देश के 3 बड़े दलित नेताओं की टक्कर की गवाह रही है बिजनौर लोकसभा सीट। इस उप-चुनाव में मीरा कुमार ने काँटे की टक्कर में राम विलास पासवान को हराया। मीरा कुमार को 1,28,000 वोट मिले तो राम विलास पासवान को 1,22,000 और मायावती को 61,504 वोट मिले थे।
बसपा की राजनीति की प्रयोगशाला
1985 के उप-चुनाव के बाद बिजनौर लोकसभा सीट को कांशीराम ने बसपा की राजनीति की प्रयोगशाला बनाया। उन्होंने मायावती के साथ यहीं डेरा डाल दिया और तब तक डटे रहे जब तक मायावती लोकसभा नहीं पहुँच गईं। इस दौरान पूरे 5 साल तक मायावती और कांशीराम ने बिजनौर लोकसभा सीट के हर गाँव, हर शहर की गली-गली की ख़ाक छानी। बीएसपी की विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाया। तैयारी मायावती को 1989 का लोकसभा चुनाव लड़ाने की थी। इस बीच 1987 में हरिद्वार की लोकसभा सीट खाली हो गई। हरिद्वार लोकसभा सीट भी सुरक्षित थी। कांशीराम ने मायावती को हरिद्वार से भी उप-चुनाव लड़ाया। इस चुनाव में मायावती ने 1,25,000 वोट हासिल करके साबित कर दिया कि कांशीराम का मिशन धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। इस चुनाव के बाद बिजनौर में यह चर्चा आम थी कि लोकसभा का अगला चुनाव मायावती जीतेंंगी। हुआ भी यही।
मायावती की पहली जीत
साल 1989 में कांग्रेस के ख़िलाफ़ बने गठबंधन में जनता दल ने यह सीट सीपीएम के लिए छोड़ दी थी। सीपीएम ने यहाँ मास्टर रामस्वरूप को मैदान में उतारा था। इस चुनाव में मायावती ने बीजेपी के मंगल राम प्रेमी को 10,000 वोटों से हराकर लोकसभा में प्रवेश किया। लेकिन 1991 मे हुए अगले ही लोकसभा चुनाव में मायावती मंगलराम प्रेमी से क़रीब इतने ही वोटों से हार गयी थींं। बिजनौर से लोकसभा चुनाव हारने के बाद मायावती ने फिर बिजनौर का कभी रुख़ नहीं किया। मायावती के बिजनौर लोकसभा सीट को अलविदा कहने के बाद यहाँ बीएसपी का जनाधार लगातार कम होता गया फिर किसी भी लोकसभा चुनाव में बीएसपी मुख्य मुक़ाबले में नहीं आयी।
कभी बीएसपी की राजनीति की प्रयोगशाला रही बिजनौर लोकसभा सीट पर मायावती ने इस बार अलग तरह का प्रयोग किया है। टिकट देने और काटने का जैसा सिलसिला इस बार इस सीट पर चला है शायद ही किसी और सीट पर चला हो।
पिछले 3 महीने में यहाँ तीन उम्मीदवार बदले गए हैं। सपा-बसपा गठबंधन में बसपा के हिस्से में आने वाली इस सीट पर बीएसपी ने पहले सपा से बसपा में आयी रुचि वीरा को लोकसभा का प्रभारी बनाया था। लेकिन दलित समाज में उनके तीखे विरोध की वजह से उनका टिकट काट दिया गया। उनकी जगह चाँदपुर से दो बार विधायक रहे मुहम्मद इक़बाल को टिकट दिया गया। इक़बाल का भी पार्टी में विरोध हुआ। इन दोनों की लड़ाई में मलूक नागर ने बाज़ी मार ली है। नागर 2014 में भी बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़े थे। तब वो तीसरे नंबर पर आए थे।
नये प्रयोग का क्या होगा असर
बिजनौर लोकसभा सीट पर 25% दलित हैं और 40% मुसलमान। मुसलिम समाज गठबंधन की तरफ़ से किसी मुसलिम प्रत्याशी के उतारे जाने की उम्मीद कर रहा था। लेकिन मायावती ने मलूक नागर को ही फिर से टिकट देकर इस उम्मीद पर पानी फेर दिया है। गठबंधन से नाराज़ चल रहे मुसलिम समाज के कुछ ज़िम्मेदार लोगों ने एलान कर दिया है कि अगर उसका उम्मीदवार मुसलमान नहीं होगा तो गठबंधन को वोट नहीं दिया जाएगा। यह देखना दिलचस्प होगा मायावती को लोकसभा पहुँचाने वाली सीट पर उनके इस नए प्रयोग से क्या असर होगा। गठबंधन के चलते इस सीट पर जीत तय मानी जा रही थी। लेकिन बार-बार टिकट बदलने से गठबंधन की फ़ज़ीहत हुई है और सीट ख़तरे में पड़ गयी लगती है।