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अयोध्यावासियों से हार गए अयोध्यावादी

अयोध्यावासियों से हार गए अयोध्यावादी

अयोध्या में बीजेपी के उम्मीदवार लल्लू सिंह की हार ने हिंदुत्ववादियों को हिला कर रख दिया है, लेकिन क्या यह अयोध्यावासियों के लिए भी ऐसा ही है? जानिए, फैजाबाद लोकसभा सीट पर चुनाव नतीजे के मायने क्या।

नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी ने गिरते-पड़ते गठबंधन वाली एक लंगड़ी सरकार बना डाली और उस पर खूब धूम धड़ाके और खुशी का इजहार किया गया। लेकिन इस दिखावटी खुशी के पीछे जो टीस और दर्द है वो है फैजाबाद की लोकसभा सीट के हारने का। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को 37 सीटें मिलने और कांग्रेस के छह सीटें जीतने की कहानी लंबी है लेकिन सबसे गहरी कहानी है फैजाबाद की सीट पर भारतीय जनता पार्टी के सवर्ण उम्मीदवार लल्लू सिंह के हारने और समाजवादी पार्टी (इंडिया) के दलित उम्मीदवार अवधेश प्रसाद के जीतने की। 22 जनवरी 2024 को राममंदिर के उद्घाटन के साथ जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नए युग यानी त्रेता युग के आरंभ की घोषणा की थी, उसे अयोध्या के लोगों ने ठुकरा दिया है। अयोध्या और रामराज्य का मुद्दा न तो उत्तर प्रदेश में चला, न अवध में चला और न ही अयोध्या-फैजाबाद में।

अब रामभक्ति की आड़ में मोदी भक्ति करने वाले भाजपा समर्थक दलितों और पिछड़ों को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं। वे इन जातियों को हिंदू धर्म का गद्दार बता रहे हैं और कह रहे हैं कि यह लोग डॉ. भीमराव आंबेडकर को भगवान मानते हैं न कि भगवान राम को। फैजाबाद लोकसभा ने अपने जनादेश से एक नया विमर्श खड़ा किया है और उसकी धमक सिर्फ उत्तर प्रदेश और दिल्ली ही नहीं, पूरी दुनिया में महसूस की जा रही है। अयोध्या के लोगों ने यह संदेश दे दिया है कि उन्हें वह राम नहीं चाहिए जो गुजरात के कॉरपोरेट घराने और महाराष्ट्र के हिंदुत्ववादी संगठन नरेंद्र मोदी के सहारे लाने का दावा कर रहे हैं। वास्तव में अयोध्यावासियों को अपने राम चाहिए न कि अयोध्यावादियों के राम चाहिए।

जबसे विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या आंदोलन शुरू किया और जबसे भारतीय जनता पार्टी ने पालनपुर प्रस्ताव के बाद इस मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा बनाने का फ़ैसला किया तब से देश राजनीतिक रूप से दो विचार खेमों में बँटा हुआ लगता है। एक खेमा है अयोध्यावादियों का जो धार्मिक प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से हिंदू और मुस्लिम विवाद खड़ा करके नए किस्म का आक्रामक और संकीर्ण राष्ट्रवाद निर्मित करना चाहता है। जिसके तहत बार बार कहा जाता है कि जब पाकिस्तान बन गया तो मुसलमान यहां क्यों रह गए। जिसमें कभी बाबर को राम से लड़ाया जाता है तो कभी औरंगजेब को हनुमान से। 

कभी सचिन तेंदुलकर को जावेद मियांदाद से लड़ाया जाता है तो कभी अक्षय कुमार और अमिताभ बच्चन को दिलीप कुमार यानी यूसुफ खान के खिलाफ खड़ा किया जाता है। कभी पंडित जवाहर लाल नेहरू को नीचा दिखाया जाता है तो कभी उन्हीं से अपनी तुलना की जाती है। कभी तीस जनवरी को गांधी का पुतला बनाकर और उसके भीतर रखे रंग भरे गुब्बारे में गोली मारी जाती है। या कभी यह कहा जाता है कि गांधी को दुनिया ने गांधी फ़िल्म बनने का बाद जाना। इन्हीं अयोध्यावादियों ने गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकाली, जिसके रथी विरथ हो चुके हैं तो सारथी सिंहासन पर विराजमान हैं। उसी रथयात्रा के दौरान पूरे देश में दंगे हुए, परिणामस्वरूप बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और उत्तर प्रदेश व अयोध्या का विकास दशकों पीछे चला गया। 

दूसरी ओर अयोध्यावासी हैं जो फैजाबाद जैसी मुस्लिम प्रभाव वाली नगरी के साथ अपना तालमेल बनाकर सुख चैन से रहने में यकीन करते थे। उनके लिए अवध के नवाबों की सहिष्णुता वा रियासतें भी अपनी थी और रामराज्य भी अपना था। उनके लिए रामधुन भी अपनी थी और अल्लाह हो अकबर की अजान भी कर्णप्रिय थी। वे 1857 के क्रांतिकारी अहमदउल्लाह शाह की बहादुरी की कथाएं भी सुनाते थे और पुजारी और मौलवी के इमली के पेड़ पर दिए गए बलिदान को भी याद करते थे। उनके मन में अंग्रेजों द्वारा प्रचारित रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का विवाद तो बैठ गया था लेकिन वे चाहते थे कि इसका समाधान या तो अदालत से जल्दी हो जाए या स्थानीय विवेक के आधार पर हो। इस बात को फैजाबाद के सहकारी अखबार जनमोर्चा के संपादक रहे शीतला सिंह ने अपनी पुस्तक `अयोध्याः राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच’ में प्रामाणिक ढंग से लिखा है। अयोध्या विवाद के दौरान एक समय ऐसा आया जब महंत अवैद्यनाथ और अशोक सिंघल इस बात के लिए तैयार हो गए थे कि इस विवाद का हल स्थानीय विवेक और दोनों धर्मों के प्रतिनिधियों के सहयोग से कर लिया जाए। 

जब यह प्रस्ताव आडवाणी के पास गया तो उन्होंने अशोक सिंघल को डांटते हुए कहा कि हमें अयोध्या में मंदिर थोड़े ही बनाना है, हमें तो दिल्ली में सरकार बनानी है। उसी स्थानीय विवेक का दूसरा नाम है अयोध्यावासी। उसी विवेक का प्रतिनिधित्व करते हैं अवेधश प्रसाद।

जिन्हें जनता ने इसलिए चुना क्योंकि बाहरी लोगों ने अयोध्या पर अपनी राजनीति, अपनी अर्थनीति और अपना आख्यान थोप दिया। उनकी दुकानें तोड़ डालीं, उनके घर गिरा डाले, उन्हें मुआवजा भी नहीं दिया और न ही उन्हें ठीक से रोने दिया। इसी गुस्से से भरी हुई धार्मिक अयोध्या ने कॉरपोरेट अयोध्या के विरुद्ध अपनी नाराजगी व्यक्त की है 2024 के चुनाव में।

ऐसा नहीं है कि जबसे अयोध्या आंदोलन शुरू हुआ तबसे फैजाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा या जनसंघ का उम्मीदवार ही जीतता रहा हो। 1989 में यहां से कम्युनिस्ट पार्टी के मित्रसेन यादव जीते तो 1998 में वे समाजवादी पार्टी में शामिल होकर उसके टिकट से सांसद चुने गए। मित्रसेन यादव 2004 में बहुजन समाज पार्टी से सांसद चुने गए। जबकि 2009 में निर्मल खत्री कांग्रेस के टिकट पर सांसद चुने गए। इससे पहले वे 1984 में फैजाबाद सीट से सांसद चुने गए थे। फैजाबाद लोकसभा सीट से कांग्रेस कम से कम सात बार चुनाव जीती है। हालांकि यहां से 1991, 1996 और 1999 में मंदिर आंदोलन के बड़े नेता विनय कटियार भाजपा के टिकट पर सांसद रहे तो 2014 और 2019 में लल्लू सिंह जीते।

वास्तव में अयोध्या के इर्दगिर्द मंदिर अर्थव्यवस्था, सांस्कृतिक रूप से हिंदुत्व का आख्यान और प्रशासनिक रूप से बुलडोजर नीति पर चलकर रामराज्य का खाका खींचा गया। एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भगवान राम की उंगली पकड़कर यह कहने का दंभ दिखाया कि `जो राम को लाए हैं हम उनको लाएंगे’। तो दूसरी ओर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बुलडोजर चलाने के साथ यह कहना शुरू किया कि रामभक्तों और रामद्रोहियों के बीच लड़ाई है। इसी आख्यान के बीच फैजाबाद के तत्कालीन सांसद लल्लू सिंह यह कह बैठे कि हमें चार सौ पार इसलिए चाहिए क्योंकि संविधान बदलना है। उनका यह बयान जंगल में आग की तरह फैल गया और उत्तर प्रदेश के दलित, पिछड़ा समाज को लग गया कि न सिर्फ मनुस्मृति आधारित जाति व्यवस्था लाई जाएगी बल्कि उनका आरक्षण भी समाप्त हो जाएगा। फिर अखिलेश यादव का पीडीए चल निकला। मंदिर आंदोलन में जिस तरह धर्मनिरपेक्ष राजनीति को आहत करने के लिए दलितों का इस्तेमाल किया जाता था उसके विपरीत इंडिया ने सामाजिक न्याय की राजनीति को स्थापित करने के लिए दलित नेता अवधेश प्रसाद को सामान्य सीट से लड़ाकर हिंदुत्व की राजनीति को करारा झटका दिया।

गांधी जो कि अक्सर रामराज्य का जिक्र करते थे, वे साफ कहते थे कि उनके रामराज्य का मतलब दशरथ के पुत्र राम के राज्य से नहीं है। चूंकि यह एक ताकतवर प्रतीक और मुहावरा है इसलिए वे इसका प्रयोग करते हैं। उनके लिए यह तालस्ताय के ईश्वर के राज्य जैसा है, खलीफा के शासन जैसा है जहां खलीफा सारा कर जनता की सेवा में लगा देता है, रैदास के बेगमपुरा जैसा है जहां पर कोई गम नहीं है। समाजवादी पार्टी का पीडीए आधारित सामाजिक न्याय गांधी के उसी रामराज्य की कल्पना कर सकता है जहां समता भी हो और समृद्धि हो। जहाँ केवट और राम के बीच की गैर-बराबरी मिट जाए। जहां सीता का निष्कासन न हो और जहाँ रामपथ के लिए लोगों को रोजगार और आवास से महरूम न किया जाए। यही अयोध्यावासियों का स्वधर्म है और इसी की जीत इस बार फैजाबाद सीट पर हुई है।

(लेखक के निजी विचार हैं)

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